भारत में ‘लोकमत’ का तन्त्र
भारत का लोकतन्त्र इसकी आजादी के बाद से ही ‘लोकमत’ की अभिव्यक्ति का प्रतीक इस प्रकार रहा है कि सत्ता व विपक्ष दोनों ही एक-दूसरे को इस मोर्चे पर पछाड़ने की कोशिश में लगे रहे हैं।
05:19 AM Sep 26, 2019 IST | Ashwini Chopra
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भारत का लोकतन्त्र इसकी आजादी के बाद से ही ‘लोकमत’ की अभिव्यक्ति का प्रतीक इस प्रकार रहा है कि सत्ता व विपक्ष दोनों ही एक-दूसरे को इस मोर्चे पर पछाड़ने की कोशिश में लगे रहे हैं। इस काम में भारत के लोकतन्त्र के सर्वोच्च प्रतिष्ठा प्राप्त ‘न्यायपालिका’ के स्तम्भ की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण और निर्णायक रही है। न्यायपालिका ने सत्ता व विपक्ष की हैसियत का ख्याल किये बगैर जो भी फैसला दिया उसे भारत के लोगों ने ‘खुदा के फरमान’ की तरह लिया।
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यह इस बात का सबूत था कि भारतीय संस्कृति में ‘ईश्वर’ के बाद ‘पंच परमेश्वर’ की स्थिति अविवादित और किसी भी सन्देह या शक-ओ-शुबहा से ऊपर थी। इसका पहला प्रमाण स्वतन्त्र भारत में हमने तब देखा जब 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश स्व. जगमोहन लाल सिन्हा ने तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. इंदिरा गांधी के रायबरेली क्षेत्र से लड़े गये लोकसभा चुनाव को केवल इस आधार पर अवैध घोषित कर दिया कि उन्होंने अपने चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमन्त्री कार्यालय में नियुक्त विशेष अधिकारी स्व. यशपाल कपूर की सेवाएं ली थीं जो कि चुनावी कानून जनप्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 के तहत गैर कानूनी थीं।
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यह फैसला भारत के लोकतन्त्र को पूरी दुनिया में वह स्थान देने वाला था जिससे यह साबित होता था कि भारत में किसी राजनैतिक दल या राजनीतिज्ञों का शासन नहीं होता है बल्कि केवल संविधान का शासन होता है। संविधान के शासन को काबिज होते देखना और कार्य करते देखना केवल स्वतंत्र न्यायपालिका की ही जिम्मेदारी है जिसे हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुत सावधानी के साथ गढ़ा था। दरअसल न्यायपालिका की सत्ता को राजनैतिक आग्रहों से ऊपर रखने के इतने पुख्ता इन्तजाम हमारे पुरखों ने किये थे कि संविधान के संरक्षक ‘राष्ट्रपति’ को उसके पद व गोपनीयता की शपथ दिलाने का काम सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को सौंपा था और राष्ट्रपति की सुरक्षा में सेना के तीनों अंगों के सैनिकों की तैनाती करके भारत की फौजों को भी संविधान के संरक्षक की सुरक्षा में लगा दिया था।
यह सब प्रतीकात्मक नहीं था बल्कि इसके व्यावहारिक अर्थ थे। अतः भारत के लोकतन्त्र को सब तरफ से निरापद और सुरक्षित रखने की व्यवस्था हमारे पुरखों ने सौंपते हुए हमें ताकीद की कि इसी प्रणाली को बदस्तूर जोरदार तरीके से चलाने की जिम्मेदारी भारत के आम लोगों पर संसद के माध्यम से होगी और संसद ही सभी स्तम्भों के अधिकारों की संरक्षक होगी किन्तु वह भी कोई भी कार्य संविधान के मूल सिद्धान्तों के विरुद्ध जाकर न कर पाये, यह कार्य न्यायपालिका देखेगी। यही वजह है कि संसद द्वारा बनाये गये कानूनों को भी सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जाती है। हर दौर में लोकतन्त्र की पहली शर्त है कि संविधान के अनुसार शासन चले और जनता द्वारा चुने गये जनप्रतिनिधियों के हाथ में जो सत्ता सौंपी गई है वे संविधान के अनुसार ही काम करें परन्तु पिछले सत्तर साल में ऐसे कई अवसर आये हैं जब सत्ताधारी लोगों पर संविधान की अवहेलना करते हुए मनमर्जी करने के आरोप लगे हैं।
इसकी शुरूआत स्व. इन्दिरा गांधी के शासनकाल से ही हुई थी। उन पर राजनैतिक बदले की भावना से काम करने के आरोप भी लगाये गये थे और संवैधानिक संस्थाओं को नियन्त्रित करने के आरोप भी लगे थे परन्तु वह दौर स्वतन्त्रता आन्दोलन की भट्टी से तप कर बाहर निकले हुए राजनीतिज्ञों का दौर था। इसके बावजूद जब 1977 में कांग्रेस से ही निकले स्व. मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी सरकार गठित हुई तो उनके पुत्र कान्ति भाई देसाई पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे। जनता पार्टी के ही घटक दलों विशेष रूप से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं मधु लिमये आदि ने इस मुद्दे पर अपने ही प्रधानमन्त्री को उलटा खींचा परन्तु वर्तमान दौर में भारतीय राजनीति की तस्वीर उलटी लटकी हुई पड़ी है जिसमें विपक्ष के नेता लगातार भ्रष्टाचार के आरोपों में घिर रहे हैं। यह विचित्र स्थिति है क्योंकि इससे पहले ऐसी स्थिति कभी पैदा नहीं हुई। बेशक विपक्ष इसे राजनैतिक बदले की भावना से की जा रही कार्रवाई बता रहा है मगर मूल सवाल यह है कि न्यायिक कसौटी पर ऐसे आरोप कहां खड़े हुए हैं? जाहिर है कि न्यायिक निगरानी में ही ये सब मामले चल रहे हैं। सबसे ताजा मामला राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेता श्री शरद पवार का है।
उनके खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय ने मामला दर्ज किया है जो महाराष्ट्र सहकारी बैंक द्वारा दिये गये ऋणों में पक्षपात करने के मुतल्लिक है। श्री पवार किसी भी सहकारी बैंक के पिछले पचास साल से निदेशक नहीं रहे हैं किन्तु राज्य में सहकारी आन्दोलन के प्रवर्तकों में माने जाते हैं। देखना केवल यह होगा कि न्यायालय में उन पर लगे आरोप किस स्थान पर जाकर ठहरते हैं। वित्तीय गड़बडि़यों का जो दौर पिछले तीस साल में भारत में तेजी से फैला है उसका प्रत्यक्ष रूप से बाजार मूलक अर्थव्यवस्था से लेना-देना है।
हमें इस मुद्दे पर भी गौर करना होगा वरना कल को कोई भी राजनीतिज्ञ स्वयं को सफेदपोश दिखाने के काबिल नहीं रहेगा क्योंकि इस प्रणाली में सरकार स्वयं ही सार्वजनिक सम्पत्ति की बिक्री करती है। जो भी मामले भ्रष्टाचार के हैं वे सभी इसी किस्म के हैं। अतः हमें अपने लोकतन्त्र को मजबूत बनाये रखने के लिए इस तरफ भी ध्यान देना होगा। जहां तक ‘लोकमत’ का सवाल है तो उसे स्वयं लोक (जनता) ही अपने मत से निर्मित करती है। इसमें सरकार की कोई भूमिका चाह कर भी नहीं हो सकती। भारत का चुनावी इतिहास इसका सबूत रहा है।
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