मन्दिर भी ले लो, मस्जिद भी ले लो...!
“मन्दिर भी ले लो, मस्जिद भी ले लो/ के लहू से मगर अब न खेलो!”, मौजूदा हालात पर पूर्ण रूप से फिट बैठता है, क्योंकि चाहे कोई भी मन्दिर हो या मस्जिद हो, एक व्यक्ति की जान उस से कहीं अधिक है…
अफजल मंगलौरी का यह शेर :
“मन्दिर भी ले लो, मस्जिद भी ले लो/ के लहू से मगर अब न खेलो!”, मौजूदा हालात पर पूर्ण रूप से फिट बैठता है, क्योंकि चाहे कोई भी मन्दिर हो या मस्जिद हो, एक व्यक्ति की जान उस से कहीं अधिक है। संभल में जो कुछ भी हुआ और जिसके बाद जिस प्रकार से पुलिस की गोलियों से पांच लोग, अपनी जान से हाथ धो बैठे, वह अति हृदय विदारक व निंदनीय था। खेद का विषय है कि मन्दिर-मस्जिद की रंजिश रुक ही नहीं रही।
जब 2019 में राम मन्दिर बन गया तो ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अब यह सिलसिला थम जाएगा, मगर ऐसा नहीं लग रहा, क्योंकि एक के बाद एक मस्जिद पर समाज और कोर्ट की कटार गिरती जा रही है। जिस सहज भाव से मुस्लिम समुदाय ने राम मन्दिर के पक्ष में निर्णय स्वीकार किया और हिंदू पक्ष ने भी कोई शादियाने नहीं बजाए थे, उस से ऐसी आशा जागी थी कि आगे इस प्रकार के दावे नहीं उठेंगे, मगर हिंदू संगठनों ने काशी और मथुरा को लेकर अपना दावा क़ायम रखा। अब तो काशी और मथुरा से भी बात आगे बढ़ती जा रही है।
वास्तव में इस विवाद की जड़ उसी समय से है, जबसे राम मन्दिर का केस उच्चतम न्यायालय में गया। न्यायालय ने भी हिंदू व मुस्लिम पक्षों को समझाते ही कहा कि अदालत के बाहर सर जोड़ कर बैठें और आपसी भाईचारे द्वारा इसे सुलझा लें। यह एक सुनहरा अवसर था दोनों संप्रदायों के लिए और विशेष रूप से मुसलमानों के लिए। यदि उस समय मुस्लिम तबके के कुछ वरिष्ठ धार्मिक व सामाजिक नेता, आम हिंदू भाईयों को यह कह कर बाबरी मस्जिद का दावा छोड़ देते तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र जी उनके सब से बड़े अराध्य हैं और उनके सम्मान में ऐसा कर रहे हैं, इस विनती के साथ कि आगे किसी मस्जिद पर दावा नहीं किया जाए और यह कि बाकी वे सब अल्लाह पर छोड़ते हैं, तो इससे दुनियाभर में हिंदू-मुस्लिम आपसी सौहार्द की एक खुशगवार मिसाल क़ायम हो जाती। मगर अफसोस ऐसा न हुआ, बल्कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तो इस फैसले के विरुद्ध एक रिव्यू पिटीशन ठोक दी, जिससे हालात में रंजिश पैदा हो गई, जो आज भी मस्जिदों के खिलाफ कोर्ट की याचिकाओं के रूप में देखने में आ रहा है।
इससे शांति व सद्भाव को लेकर चिंता की स्थिति बनी हुई है। इस बेलगाम स्थिति का सरसंघ चालक, डा. मोहन भागवत ने संज्ञान लेते हुए 2022 में कहा था, ‘‘यह ठीक है कि कुछ स्थानों को लेकर हमारी आस्था है, पर हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग ढूंढना ठीक नहीं। हालांकि ऐसे बहुत से स्थान हो सकते हैं, पर अपने को झगड़ा क्यों बढ़ाना।’’
मुस्लिम नेताओं और समाज की कमी है कि वक्त की नब्ज़ को नहीं पकड़ पाता। यह तो पता ही था मुस्लिम वर्ग को कि कोर्ट का फैसला उनके विरुद्ध होगा, तो डिप्लोमेसी और मसलेहत से काम लेते और अयोध्या को हिंदुओं के लिए सहमति से छोड़ देते तो आपसी प्यार भी बना रहता और शायद हिंदू वर्ग मुस्लिमों के इस प्रकार से बड़ा दिल दिखाने पर ध्वस्त बाबरी मस्जिद को पुनः निर्माण में बढ़चढ़ कर सहयोग देते। सभी ने इस बयान को बहुत व्यवहारिक, यथा समय, समभाव और सद्भाव के तौर से तो लिया ही था, एक चेतावनी के रूप में भी लिया गया। उस समय, उनके बयान से मस्जिदों पर कटार गिरना कुछ समय तक रुक गया और सभी ने इसकी प्रशंसा की थी। मगर अब कुछ समय पूर्व अजमेर दरगाह से लेकर, संजोली मस्जिद, सुनेहरी मस्जिद, संभल शाही मस्जिद और लगभग पूर्ण भारत में मस्जिदों, मदरसों, दरगाहों आदि पर समस्या आ रही है। हैरानी की बात है कि एक ऐसी दरगाह कि जिस पर हर वर्ष प्रधानमंत्री चादर चढ़ाते हैं और जिस पर अपनी दुआएं कबूल कराने लाखों हिंदू जाते हैं, उस पर आनन-फानन मुक़दमा ठोक दिया, एक सोचनीय बात है।
दूसरी बात यह कि अगर मुस्लिम बादशाहों, सुल्तानों आदि ने मंदिरों को ध्वस्त कर मस्जिदें बनाई हैं तो बिल्कुल गलत किया, मगर इसका खामियाजा आज के मुसलमान क्यों भुगते। यदि विश्व हिंदू परिषद तथा अन्य याचिकाओं के माध्यम से मंदिरों की खुदाई के साथ-साथ ताज महल, क़ुतुब मीनार, जामा मस्जिद दिल्ली, लाल क़िला आदि की खुदाई करवाना चाहते हैं तो भारत में माहौल खराब हो जाएगा, जबकि आज देश नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में तेज़ रफ्तार से जगत गुरु बनने की राह पर अग्रसर है तो उसमें अजमेर दरगाह जैसे केस न केवल स्पीड ब्रेकर का काम कर रहे हैं, बल्कि पूर्ण देश में साम्प्रदायिक सौहार्द खराब कर रहे हैं। वक्त की ज़रूरत है कि हम हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि ऐसे विवादों में न फंसते हुए जिस तरह से गंगा-जमुनी तहज़ीब और साझा विरासत के साथ रहते चले आए हैं, ऐसे ही आगे भी रहें। सभी के योगदान और सहयोग से हमारा भारतवर्ष विकास कर पायेगा।