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पापा की बदौलत

आज मेरे पिता अश्विनी कुमार की दूसरी पुण्य तिथि है।

01:22 AM Jan 18, 2022 IST | Aditya Chopra

आज मेरे पिता अश्विनी कुमार की दूसरी पुण्य तिथि है।

आपके नाम से जाना जाता हूं पापा
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भला इससे बड़ी शोहरत मेरे लिए क्या होगी।
आज मेरे पिता अश्विनी कुमार की दूसरी पुण्य तिथि है। 18 जनवरी का दिन कभी भुलाया नहीं जा सकता। मां किरण चोपड़ा खामोश हैं, मेरे अनुज आकाश और अर्जुन भी पिता जी को याद करके भावुक हैं। पिता जी के अवसान के बाद से मेरे पर लेखन की जिम्मेदारी आ गई साथ ही कोरोना जैसी महामारी के दौरान पंजाब केसरी का बिना रुके रोजाना प्रकाशन का दायित्व। इसके अलावा भी हमने चुनौतियों के पहाड़ को पार किया। सोचता हूं कि हममें इतना आत्मविश्वास और ऊर्जा कैसे आ गई कि हम अपने दायित्वों को पूरा करने में सक्षम हो गए। यह पंक्तियां याद आ रही हैं कि- मुझे यकीन तो था अपनी हाथ की लकीरों पर, न जाने पिता ने कौन सी अंगुलियों को पकड़कर चलना सिखाया था। आज मैं अपने हाथों की अंगुलियों पर पिता जी का स्पर्श महसूस कर रहा हूं। आज अगर हम चल रहे हैं तो यह उनका ही स्पर्श है जो हमें इस बात का अहसास दिलाता है कि वे हमारे साथ हैं, हर समय, हर क्षण।
पिता जी कभी-कभी अपने जीवन की कहानियां सुनाते थे तो उन्होंने बताया था कि बचपन से लेकर युवा होने तक लोग उनसे पूछा करते थे कि ‘तुम जिंदगी में क्या बनना चाहते हो’ तो उनका जवाब एक ही होता था कि ‘मुझे अश्विनी कुमार बनना है।’ वे मुझसे कहते थे कि जो तुम्हारा अपना व्यक्तित्व है, उसी को तुमने विकसित करना चाहिए। तुम्हें दूसरों से प्रेरणा मिल सकती है लेकिन तुम्हारा व्य​क्तित्व तुम्हारा ही है, जिस दिन तुम अपने व्यक्तित्व को पहचान सभी को साथ लेकर चलना शुरू कर दोगे तुम जीवन में आगे बढ़ते चले जाओगे। कभी ऐसा नहीं सोचना कि जिंदगी के सारे काम तुम अकेले ही कर लोगे। जैसे एक घर कई ईंटों से बनता है, ऐसे ही देश सभी नागरिकों को मिलाकर बनता है लेकिन ईंटों के अलावा घर के बीम और खंभे भी महत्व भूमिका निभाते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इंसान को आत्मबोध का ज्ञान बहुत जरूरी है।
पिता जी के रहते मैंने आत्मबोध का कोई प्रयास ही नहीं किया। वास्तव में पिता के रहते हमारे हिस्से का आकाश उज्ज्वल रहा, सूर्य तेजस्वी लगता था और घर का आंगन खुशगवार था। पिता वह संजीवनी थे जिनके रहते हमारे चेहरे पर कभी लकीरें नहीं पड़ी। मैंने पिता की डांट-फटकार भी खाई साथ ही उनका असीम स्नेह भी पाया। पिता होना संतान के लिए अभिमान और पिता स्वयं के लिए एक स्वाभिमान है।
हमारे परिवार का इतिहास स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ा हुआ है। पिता की ही तरह मुझे भी परिवार के गौरवपूर्ण इतिहास पर गर्व रहा है। पिता जी अक्सर मेरे पड़दादा लाला जगत नारायण जी और दादा रमेश चंद्र जी की स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी गाथाएं सुनाते तो अहसास होता था कि हमारे पूर्वजों का इतिहास कितना समृद्ध है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी लालाजी और रमेश जी ने पत्रकारिता को लक्ष्य बनाया। पिता जी उनकी गोद में पले और उन्हीं से संस्कार हासिल किये।
मैं यह सोचकर आज भी सिहर उठता हूं कि मेरे पिता अश्विनी कुमार पहले आतंकी दानवों की गोलियों से छलनी पड़दादा लाला जी का शरीर अपनी गोद में रखकर लाए फिर आतंकवादियों की गोलियों से छलनी दादा रमेश चंद्र जी का शरीर अपनी गोद में रखकर आवास पर लाए। घर के वटवृक्ष गिर गए थे परन्तु परिवार के दायित्वों ने उन्हें और ज्यादा साहसी बना दिया। उन्होंने जिस भूमिका का​ निर्वाह किया, उसी के उत्कर्ष को छुआ। क्रिकेट खेली तो उसमें लोकप्रियता को छुआ। कलम सम्भाली तो अपनी लेखनी से पंजाब केसरी को शीर्ष तक पहुंचाया। आतंकवाद के काले दिनों में शहादतों के बाद जब परिवार जालंधर छोड़ कर पलायन को तैयार था तो यह पिता का ही साहस था कि  उन्होंने न केवल परिवार के पलायन को रोका, बल्कि आतंकवाद के खिलाफ अपनी लेखनी से जनमत तैयार कर दिया। दिल्ली पंजाब केसरी का प्रकाशन एक जनवरी 1983 से शुरू हुआ तो धमकियों का सिलसिला बंद नहीं हुआ। चारों तरफ सुरक्षाकर्मियों का घेरा एवं किसी भी क्षण प्राणों से हाथ धोने की दहशत के बीच उनकी कलम कभी नहीं रुकी। हालात यह थे कि मुझे भी सुरक्षाकर्मियों के साथ ही स्कूल भेजा जाता था और लाया जाता था। भयावह परिस्थितियों में भी वे कभी टूटन का  शिकार नहीं हुए। कैंसर से जूझते हुए भी अपनी आत्मकथा लिखते रहे।  उन्होंने जो कुछ मुझे समझाया उसका भाव यही था। लेखनी सत्य के मार्ग पर चले, लेखनी कभी नहीं रुके, कभी नहीं झुके, यह राष्ट्र की अस्मिता की संवाहक है, यह राष्ट्र को समर्पित हो। 
आज उनकी पुण्यतिथि पर मैं यह दायित्व कितना निभा पाया, उसका फैसला पंजाब केसरी के पाठक ही करेंगे। मां किरण  हमारा मार्गदर्शन कर रही हैं, कोरोना काल में भी उन्होंने वरिष्ठ नागरिक केसरी क्लब के सदस्यों को विभिन्न वर्चुअल कार्यक्रमों से हताशा, निराशा का कोई भाव नहीं आने दिया । पिता जी ने मुझे और मेरे भाइयों को कुम्हार की तरह तराशा है। ​जिंदगी धूप है तो ​पिता छाया थे। मेरा लेखन ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि है। यही कामना है-
‘‘लेखनी जो लिखे कुछ लिखे इस तरह
चोट दिल पे करे कुछ इस तरह
चूम लेें हाथ उठकर मेरा लोग जब
लेखनी में ढले शब्द कुछ इस तरह।’’
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