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विपक्ष की व्यथा और सभापति

दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र भारत में संसद कभी भी ‘शोभा’ की वस्तु…

10:48 AM Dec 12, 2024 IST | Aditya Chopra

दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र भारत में संसद कभी भी ‘शोभा’ की वस्तु…

दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र भारत में संसद कभी भी ‘शोभा’ की वस्तु बनकर नहीं रह सकती। अतः बहुत जरूरी है कि संवैधानिक नियमों के तहत यह बाकायदा चले और जनप्रतिनिधियों के माध्यम से सत्ता की जवाबदेही जनता के प्रति तय हो। हमारी संवैधानिक प्रणाली में संसद की स्वतन्त्र सत्ता इसके दोनों सदनों के अध्यक्षों या सभापतियों की मार्फत इस प्रकार तय की गई है कि सत्ता में बैठी सरकार से इसकी कार्यवाही पूरी तरह निरपेक्ष रहे और लोकसभा व राज्यसभा के सभापति विपक्ष व सत्ता पक्ष के सांसदों को एक तराजू पर तोलें। इस सन्दर्भ मंे विपक्ष की ओर से राज्यसभा में इसके सभापति उपराष्ट्रपति श्री जगदीप धनखड़ के विरुद्ध जो अविश्वास प्रस्ताव लाया गया है वह भारत के संसदीय इतिहास का एक ‘एेतिहासिक मोड़’ है क्योंकि इससे पहले स्वतन्त्र भारत की संसद में एेसा नजारा कभी देखने को नहीं मिला। विपक्ष यह प्रस्ताव सदन में अपने साथ हो रहे व्यवहार से दुखी होकर लाया है। इसमें सभापति धनखड़ का सदन में आचरण प्रमुख कारण बताया जा रहा है। हद यहां तक हो गई है कि विपक्ष सदन में व्यवधान पैदा करने का सबसे ‘कारक’ उन्हें ही बता रहा है।

यह बहुत ही गंभीर आरोप है जिस पर श्री धनखड़ को निस्पृह भाव से आत्मालोचन करना चाहिए। उनका पद पूर्णतः अराजनैतिक है। सदन में निश्चित रूप से राजनैतिक दलों के चुने हुए प्रतिनिधि ही बैठते हैं और उनके मुद्दे राजनीति से प्रेरित भी होते हैं परन्तु सभापति की भूमिका पूरी तरह राजनीति से निरपेक्ष रहते हुए उन पर विचार करने की होती है। एेसा वह सदन द्वारा अपने लिये बनाये गये नियमों के अनुसार ही करते हैं। प्रत्येक विषय या मुद्दे को उन्हें इसी तराजू पर रखकर तोलना होता है। इस क्रम में किस पक्ष का पलड़ा भारी रहता है इससे उन्हें कोई मतलब नहीं रहता। उनका लक्ष्य यही रहता है कि सदन बिना किसी व्यवधान के सुचारू ढंग से चले परन्तु जब सदन में किसी मुद्दे पर स्वयं सभापति ही पहले अपने विचार व्यक्त करने लगें और विपक्ष के नेताओं के कथन से पहले ही अपनी टिप्पणियां करने लगें तो सभापति का आसन पक्षपात करने की आशंका के घेरे में आ जाता है। उनके समक्ष सदन के नेता और विपक्ष के नेता की हैसियत में कोई अन्तर नहीं होता क्योंकि दोनों के ही अधिकार बराबर होते हैं। अतः जब सभापति का पलड़ा किसी एक ओर झुक जाता है तो आसन स्वयं एक पक्ष बन जाता है। अतः इस स्थिति को टालने के लिए ही संसदीय लोकतन्त्र में यह कहा जाता है कि सदन का ‘स्पीकर’ या अध्यक्ष अथवा सभापति एेसा ‘स्पीकर’ होता है जो ‘बहुत कम’ या ‘सबसे कम’ बोलता है। वह आसन पर बैठते ही न्यायाधीश की भूमिका में आ जाता है और अपने बोले गये शब्दों के वजन की स्वयं ही मीमांसा करता चलता है। उसके समक्ष सदन में बैठे हुए प्रधानमन्त्री से लेकर मन्त्री तक सबसे पहले एक सदस्य होते हैं क्योंकि इन सदस्यों के अधिकारों का वह संरक्षक होता है। विपक्ष की सबसे बड़ी व्यथा यह है कि श्री धनखड़ राजनीतिक समीकरणों को साधते हुए सदन को चलाना चाहते हैं जिसका इजहार उनकी टिप्पणियों और आचरण से स्पष्ट होता है।

विपक्षी सांसदों और नेताओं को वह किसी भी विषय पर अपनी पूरी बात कहने का अवसर ही नहीं देते हैं और बीच-बीच में अपनी टिप्पणियां करते रहते हैं। इस सन्दर्भ में सदन की पुरानी नजीरें मौजूद हैं जो कि सर्वपल्ली डा. राधा कृष्णन से लेकर डा. जाकिर हुसैन व भैरोसिंह शेखावत तक ने बनाई हैं। श्री धनखड़ कांग्रेस से लेकर विभिन्न विपक्षी दलों में रह चुके हैं और मन्त्री भी रहे हैं अतः उन्हें सदन के भीतर राजनीतिक आगृहों के प्रदर्शन का अच्छा अनुभव है मगर उन्हें अपने समय के सदनों के अध्यक्षों के आचरण का भी अच्छा ज्ञान है। अतः उन्हें ज्यादा पुराना इतिहास खंगालने की भी जरूरत नहीं है। वह यह भी अच्छी तरह जानते होंगे कि संसद पर पहला अधिकार विपक्ष का ही होता है और संसद चलाने की प्राथमिक जिम्मेदारी सत्ता पक्ष पर ही होती है। मगर जब सत्ता पक्ष स्वयं संसद में व्यवधान पैदा करता है तो अध्यक्ष को कड़ा रुख अख्तियार करते हुए विपक्ष को भी कायदे में रखना पड़ता है। विपक्ष को भी सभापति बेलगाम इस वजह से नहीं छोड़ सकते हैं कि संसद पर पहला अधिकार उसका होता है क्योंकि सरकार की जवाबदेही जनता के प्रति विपक्षी सांसदों की मार्फत ही तय होती है। अतः सत्ता पक्ष व विपक्ष दोनों को नियम-कायदों की सीमा में रखना उनका प्राथमिक कर्त्तव्य होता है । मगर विपक्ष के कथनों को सदन की कार्यवाही का अंग न बनाने को लेकर सभापति को अपने विवेक का इस्तेमाल इस प्रकार करना पड़ता है कि दोनों पक्ष उनके इस कदम से सन्तुष्ट लगें हालांकि उनके इस अधिकार को कहीं भी चुनौती नहीं दी जा सकती है। इसी वजह से उनका इस बारे में किया गया निर्णय पूरी तरह अराजनैतिक भाव से होना चाहिए जिससे प्रत्येक पक्ष को न्याय का पलड़ा ही भारी लगे। उनके किसी भी फैसले में सरकार कहीं बीच में नहीं आती है क्योंकि उपराष्ट्रपति का चुनाव केवल दोनों सदनों के संसद सदस्य ही मिलकर व्यक्तिगत हैसियत से करते हैं। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में पार्टी व्हिप जारी नहीं होता है। अतः राज्यसभा के सभापति की हैसियत से प्रत्येक सांसद का विश्वास अर्जित करना उनका दायित्व भी होता है। चाहे वह विपक्ष का सांसद हो या सत्ता पक्ष का सांसद हो। इसलिए यह भी मालूम होना चाहिए कि सभापति के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव तभी पारित माना जायेगा जब वह राज्यसभा से लेकर लोकसभा में भी पारित होगा।

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