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आम आदमी को राहत की दरकार

देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर लगातार गिर रही है और बाजार में मांग नहीं है। मांग इसलिए नहीं है कि लोगों की जेब में पैसे नहीं हैं।

04:03 AM Dec 17, 2019 IST | Ashwini Chopra

देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर लगातार गिर रही है और बाजार में मांग नहीं है। मांग इसलिए नहीं है कि लोगों की जेब में पैसे नहीं हैं।

आम आदमी को राहत की दरकार
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देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर लगातार गिर रही है और बाजार में मांग नहीं है। मांग इसलिए नहीं है कि लोगों की जेब में पैसे नहीं हैं। लोगों की जेब में अतिरिक्त धन हो तो वे बाजार में जाएं और कुछ न कुछ जरूरत के अनुसार खरीदें। जब खरीदारी बढ़ेगी, खपत बढ़ेगी तभी उद्यमी उत्पादन करेंगे। आर्थिक विशेषज्ञ इस आर्थिक हालत को काफी खतरनाक मान रहे हैं तो कई अर्थशास्त्री इसे चक्रीय मानते हैं।
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उनका कहना है कि भारत आर्थिक सुस्ती से कुछ माह बाद निकल आएगा। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने जहां सरकार की नीतियों पर सवाल उठाए हैं वहीं मुख्य आर्थिक सलाहकार के. सुब्रमण्यन का कहना है कि निजी निवेश आर्थिक विकास के लिए अहम है। सरकार ने कार्पोरेट टैक्स इसलिए घटाया ताकि निजी निवेश को प्रोत्साहित किया जा सके। अब सवाल यह है कि आर्थिक सुस्ती ढांचागत वजहों से है या चक्रीय।
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सवाल यह है कि ऐसी स्थिति क्यों पैदा हुई। उपभोक्ताओं की मांग डगमगाई क्यों? ऐसे में आम आदमी को नई क्रय शक्ति प्रदान करनी जरूरी है। पिछले दिनों विश्व आर्थिक फोरम और भारतीय उद्योग परिसंघ द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में उद्याेग प्रतिनिधियों ने देश में मंदी को दूर करने के लिए व्यक्तिगत आय कर दरों में छूट की मांग की। सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह आम आदमी को राहत कैसे प्रदान करे। मौजूदा स्थिति को देखते हुए देश में पहली बार वित्त मंत्रालय ने टैक्स सुधार को लेकर सुझाव आमंत्रित किए हैं। वैसे तो वित्त मंत्री बजट बनाने की कवायद शुरू करने से पहले उद्योग जगत से परामर्श करते हैं।
उद्योग जगत का मानना है कि छोटे आयकरदाताओं और मध्यम वर्ग को राहत देने से जो पैसा उनके पास बचेगा उससे उनकी कुछ शक्ति बढ़ेगी और आर्थिक गतिविधियों में तेजी आएगी। आम लोग भी आयकर में राहत चाहते हैं और उन्हें नए साल में और प्रभावी आयकर कानून की दरकार है। सरकार की मुश्किल यह है कि व्यक्तिगत आयकर में छूट का दायरा बढ़ाने से राजकोषीय घाटा बढ़ेगा। देश की आजादी के बाद 1961 तक देश में प्रत्यक्ष कर नीति व आयकर कानून में सुधार ​किए जाते रहे हैं। 1961 में आयकर अधिनियम लागू किया गया लेकिन आज भी इसमें जटिलताएं हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि आयकर अधिनियम में भी कई छिद्र थे। लोग अच्छी आय होने के बावजूद आयकर की चोरी करते थे और इसके लिए कई अनैतिक तरीके अपनाते थे। नोटबंदी के बाद 2016-17 में आयकर रिटर्न दाखिल करने वालों की संख्या में भारी इजाफा हुआ। कालाधन जमा करने वालों की संख्या बढ़ी लेकिन नोटबंदी और जीएसटी के बाद छोटे उद्योगों को हानि हुई। जीएसटी से छोटे उद्योगों को हानि इस प्रकार हुई कि किसी राज्य के माल काे दूसरे राज्य में ले जाना आसान हो गया। पूरा देश एक बाजार बन गया लेकिन छोटे उद्योगों को राज्य की सीमा में जो संरक्षण मिलता था वह समाप्त हो गया। छोटे उद्योगों पर बोझ बढ़ा। रिटर्न भरने का बोझ तो बहुत जटिल और दबावपूर्ण रहा।
अब जीएसटी में नए स्लैब बनाने की तैयारी की जा रही है। जब देश एक बाजार बन गया तो सस्ते माल को बनाने वाले बड़े उत्पादकों के हाथ पूरा मैदान आ गया जिसमें छोटे उद्योगों को कोई जगह नहीं मिलती। फलस्वरूप रोजगार खत्म हो गए। छोटे उद्योगों से कर्मचारी निकाल दिए गए और मंदी के दौर में आटोमोबाइल कम्पनियों ने भी हजारों लोगों को नौकरी से निकाल दिया।वित्त मंत्री निर्मला सीतामरण ने कहा है ​कि सरकार आर्थिक सुस्ती से निपटने के लिए कई उपायों पर विचार कर रही है, जो कुछ भी सम्भव हुआ वह उपाय ​किए जाएंगे। उन्होंने आयकर में राहत के संकेत भी दिए हैं।
यह सही है कि कार्पोरेट टैक्स में कटौती के बाद वित्त मंत्रालय ने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जिसे तात्कालिक असर डालने वाला कहा जा सके। उद्योग व्यापार जगत के लोग उत्साहित नहीं दिखते। वे तरह-तरह की शिकायतों से लैस दिखाई देते हैं। जब किसी क्षेत्र में लोगों  के शिकायती स्वर बढ़ जाते हैं तो माहौल ठीक नहीं दिखाई देता। सरकारें माहौल को ढांपने का प्रयास करती हैं। बेहतर यही होगा ​कि सरकार दीर्घकालीन उपाय करे और आम आदमी को राहत प्रदान करे। नए बजट में उसे ऐसे उपाय करने होंगे ताकि आम आदमी के चेहरे पर ​मुस्कुराहट आ सके।
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Ashwini Chopra

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