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दार्जिलिंग की आपदा

06:15 AM Oct 07, 2025 IST | Aditya Chopra
दार्जिलिंग की आपदा
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पश्चिम बंगाल के पहाड़ों की रानी कहे जाने वाले दार्जिलिंग में भारी बारिश और भूस्खलन से तबाही मच गई है जिसने 23 लोगों की जान ले ली। सैकड़ों घर तबाह हो गए, सड़कें बह गईं। इसके चलते सिक्किम राज्य से भी सम्पर्क टूट गया। भूस्खलन से दार्जिलिंग के पास जलपाईगुड़ी जिला भी बुरी तरह से प्रभावित हुआ। बालासोन नदी पर बना दूधिया पुल भी टूट गया जिससे सिलीगुड़ी और मिरिक का सम्पर्क भी टूट गया। पश्चिम बंगाल सरकार ने तुरंत राहत और बचाव कार्य शुरू किए। इसी बीच भूटान ने वांगचू नदी में जलस्तर की वृद्धि के कारण उत्तरी बंगाल में बाढ़ की चेतावनी दे दी है। उत्तराखंड और हिमाचल की प्राकृतिक आपदाओं के बाद हिमालय के पर्वतीय क्षेत्र दार्जिलिंग में भूस्खलन यद्यपि एक सामान्य प्राकृतिक घटना है लेकिन यह आपदा हमें सतर्क कर रही है कि लोकप्रिय हिल स्टेशन में सब कुछ ठीक नहीं है। वैसे तो अपनी खूबसूरती और स्वास्थ्यवर्धक जलवायु के लिए मशहूर दार्जिलिंग अतीत में कई प्राकृतिक आपदाओं का शिकार रहा है। उपलब्ध रिकॉर्ड बताते हैं कि 1899, 1934, 1950, 1968, 1975, 1980, 1991 और हाल ही में 2011 और 2015 में बड़े पैमाने पर भूस्खलन हुए थे। 1968 में अक्तूबर में ही विनाशकारी बाढ़ आई थी, जिसमें एक हज़ार से ज़्यादा लोग मारे गए थे।

गैर-लाभकारी संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट द्वारा प्रकाशित पर्यावरण स्थिति रिपोर्ट, 1991 में कहा गया है कि 1902-1978 के दौरान तीस्ता घाटी में बादल फटने की नौ घटनाएं हुईं। देशभर में आपदा की व्यापकता ने पर्यावरणविदों और शोधकर्ताओं को चिन्ता में डाल दिया है। पहाड़ों का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं का कहना है कि हिमालय अभी भी बढ़ रहा है और अपनी प्रकृति में युवा है। यदि इसकी उचित देखभाल नहीं की गई तो दार्जिलिंग में उत्तराखंड और हिमाचल जैसी प्रलय आ सकती है। जनसंख्या में लगातार बढ़ौतरी, पर्यटकों की लगातार बढ़ती संख्या, दार्जि​लिंग और आसपास के क्षेत्रों यहां तक कि सिक्किम की नाजुक परिस्थितिकी तंत्र पर दबाव डाल रही है। पूर्वी हिमालय के समग्र पर्यावरणीय क्षरण से पहाड़ नंगे और बदसूरत हो चुके हैं। लगातार वनों की कटाई से मिट्टी के कटाव की समस्या बढ़ गई है। झरनों के सूखने और पानी के स्तर में बदलाव से भी समस्या बढ़ गई है। जिस तरह से इमारतों का प्रसार हुआ है और पहाड़ी क्षेत्रों में बहुमंजिला इमारतें बनती जा रही हैं जिनमें उचित जल निकासी की व्यवस्था भी नहीं है। पहाड़ क्षेत्र भी भीड़भाड़ वाले होते जा रहे हैं। पुराना आकर्षण खत्म हो गया है। पर्यटकों को ले जाने वाले वाहनों की संख्या बढ़ने से प्रदूषण बढ़ चुका है।

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा प्रकाशित भारत के भूस्खलन एटलस 2023 में, दार्जिलिंग को 147 जिलों में सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र के रूप में 35वें स्थान पर रखा गया था। कलिम्पोंग के कर्नल प्रफुल राव के नेतृत्व वाले सेव द हिल्स सहित कई स्थानीय गैर सरकारी संगठन सोशल मीडिया पर तथा ठोस बहसों और जागरूकता अभियानों के माध्यम से इन खतरों को उजागर कर रहे हैं। सिक्किम में अक्तूबर 2023 में ल्होनक झील के टूटने से उत्पन्न होने वाली ग्लेशियल झील विस्फोट बाढ़ (जीएलओएफ) के बारे में सिक्किम मानव विकास रिपोर्ट 2001 में बहुत जोरदार चेतावनी दी गई थी। इस जीएलओएफ ने न केवल कई लोगों की जान ले ली, बल्कि 1200 मेगावाट की चुंगथांग जल विद्युत परियोजना को बहा ले गया, कई सार्वजनिक और सैन्य प्रतिष्ठानों को नष्ट कर दिया और अनुमानित 25,000 करोड़ रुपये से अधिक की क्षति हुई जो 2022-23 के सिक्किम के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 60 प्रतिशत है। पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग और जलपाईगुड़ी जिलों के निचले तटवर्ती क्षेत्रों तथा बंगलादेश में इसके कारण हुई भारी तबाही का अभी तक कोई हिसाब नहीं है।

भारी वर्षा के साथ लम्बी अवधि के दौरान जल भराव बढ़ जाता है जिससे संवेदनशील ढलानों पर भूस्खलन का खतरा बढ़ता है। ग्रामीण और ऊंची पहाडि़यों में लोग ईंधन के रूप में लकड़ी का इस्तेमाल करते हैं। इसलिए पेड़ों की अवैध कटाई लगातार जारी है। ब्रिटिश काल में भवन निर्माण मानदंडों और ​दिशा-निर्देश पूरी तरह से त्याग दिए गए। पहाड़ों को बचाने के लिए कोई कारगर योजना लागू ही नहीं की गई। तत्कालिक आर्थिक लाभ और तीव्र विकास ने पर्यावरण को संकट में डाल दिया है। प्राकृति मनुष्य के हाथों वर्षों से चली रही खामोश बदनामी और निरंतर अनादर का बदला लेने के लिए पलटवार करती दिखाई दे रही है। जितना मानव ने प्रकृति को नुक्सान पहुंचाया है उतना किसी ने नहीं पहुंचाया है। सरकारों को चाहिए कि कारणों की पहचान कर उनके निवारण के निष्कर्षों से पता चलता है कि न तो भूस्खलन को रोकना संभव है न ही इसके नुक्सान को पूरी तरह से समाप्त करना ले​किन कुछ बुनियादी उपायों और सार्वजनिक जागरूकता के साथ काम किया जाए तो नुक्सान की संभावना को सीमित किया जा सकता है।

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