बंटवारा तो अभी तक बकाया है
यह गाथा उस नृत्यांगना की मूर्ति से जुड़ी है जो इस समय भारत के दिल्ली स्थित संग्रहालय
यह गाथा उस नृत्यांगना की मूर्ति से जुड़ी है जो इस समय भारत के दिल्ली स्थित संग्रहालय में कड़ी सुरक्षा के बीच मौजूद है। दरअसल, वर्ष 1926 में मोहेन्जोदाड़ो की खुदाई के मध्य यह मूर्ति व कुछ अन्रू प्रतिमाएं वहां से मिली हैं। उन्हें जब नई दिल्ली के ‘केंद्रीय शाही संग्रहालय’ (सेंट्रल इम्पीरियल म्यूजियम) में रखा गया था तब भारत-विभाजन के बारे में कोई चर्चा भी नहीं थी।
विभाजन के समय जब सारा सामान बांटा गया तब भी मोहेन्जोदाड़ो व हड़प्पा की खुदाई से मिले अवशेषों के बारे में लम्बी-चौड़ी बहस नहीं हुई। दरअसल, नेताओं की दिलचस्पी उन सरहदों की निशानदेही पर ही टिकी थीं जो उन दिनाें इंसानी-खून से खींची जा रही है। भारत माता की परिकल्पना तब भी थी। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जूझने वाले और अपनी जानें न्यौछावर करने वालों के जेहन में उस समय कोई बंटवारा नहीं था। उस समय केवल भारत की आज़ादी का मुद्दा था। उस मुद्दे पर गांधी, जिन्ना, नेहरू, पटेल, लियाकत सभी एक थे। उनके साथ कदमताल करने वालों में अब्दुल गफ्फार खां भी थे, सुहरावार्दी भी थे, कृपालानी भी थे, अम्बेडकर भी थे। नेताजी सुभाष, लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय, गोपाल कृष्ण गोखले, आज़ाद, भगत सिंह आदि सभी एक ही स्वर में बोल रहे थे, ‘अंग्रेजो! भारत छोड़ो’।
मगर जब अंग्रेजों ने भारत छोड़ा तो बंटवारे की भयावह दास्तानों के अलावा कला, संस्कृति, अदब संगीत सब कुछ तहस-नहस करते गए। तब तक हमें संगीत की सरगम या पुरानी सांस्कृतिक विरासत, सामाजिक सौहार्द, हथियार, सेना, प्रशासनिक पुर्जे आदि के बारे में बंटवारे की भयावहता का रत्तीभर एहसास भी नहीं था।
बहरहाल, बाकी बातों की चर्चा बाद में, फिलहाल बात उन कलात्मक प्रतिमाओं व खुदाई के दौरान मिली अद्भुत विरासतों के बारे में, जिनका भारत-विभाजन के साथ कोई दूरदराज का रिश्ता भी नहीं था।
वर्ष 2016 में पाकिस्तान के एक वरिष्ठ बैरिस्टर व अल्लामा इकबाल के बेटे और वहां की सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जावेद इकबाल ने लाहौर-हाईकोर्ट में एक याचिका भी दी थी। इसमें मांग की गई थी कि लगभग 60 वर्ष पूर्व राष्ट्रीय कला परिषद (नेशनल आर्ट्स काउंसिल) नई दिल्ली में इस नृत्यांगना-मूर्ति को एक प्रदर्शनी के लिए मंगाया गया था। मगर उसके बाद मूर्ति वापिस नहीं आई। विवाद उन सभी प्राचीन अवशेषों पर है जो अभी भी हड़प्पा (पाकिस्तान), मोहेन्जोदाड़ो, नई दिल्ली, कराची व लाहौर में बिखरे पड़े हैं। राखीगढ़ी (जिला हिसार) की खुदाई के साथ-साथ नए विवादों के जन्म लेने की भी आशंकाएं कुनमुनाने लगी हंै।
नृत्यांगना की यह एक कांस्य-मूर्ति है जो मोहेन्जोदाड़ो से प्राप्त हुई थी, जो सिंधु घाटी की सभ्यता का एक स्थल है। माना जाता है कि इसे 2500 ईसा पूर्व के आसपास बनाया गया होगा। मोहेन्जोदाड़ो के एक घर से एक और कांस्य मूर्ति प्राप्त हुई थी जो लगभग इसी की तरह है। भिर्दाना में एक मिट्टी के बर्तन पर भी नर्तकी का भित्तिचित्र मिला है। इस मूर्ति की ऊंचाई 10.5 सेेंटीमीटर है। यह मोहेन्जोदाड़ो के ‘एच आर क्षेत्र’ में 1926 में अर्नेस्ट मैके को प्राप्त हुई थी। यद्यपि यह मूर्ति नृत्य मुद्रा में नहीं है, फिर भी ‘नर्तकी’ इसलिए कहा गया क्योंकि इसकी सजावट से लगता है कि इसका व्यवसाय नृत्य होगा। इसके शरीर पर वस्त्र नहीं है किंतु इसके एक हाथ में ऊपर तक चूडि़यां हैं।
दिवंगत भारतीय पत्रकार कुलदीप नैयर एक बार लंदन में उस शख्स से मिले थे, जिसने हमारे देश को दो टुकड़ों में बांटने वाली लकीरें खींची थीं। उससे उन्होंने पूछा था कि भारत-विभाजन की त्रास्दी के बाद वह कैसा महसूस करता है? उस शख्स के चेहरे पर घोर पश्चाताप के भाव भी थे, शर्मिंदगी का एहसास भी था और उसने खुले मन से यह स्वीकार किया था कि ‘विभाजन के गुनाह’ ने उसे अपनी ही नज़रों में गिरा दिया था। उसने स्वीकार किया था कि 1946 से पहले वह एक बार भी भारत नहीं गया था, न ही उसे वहां के भूगोल, इतिहास, संस्कृति व सामाजिक ढांचे के बारे में कुछ भी पता था। उसे तो सिर्फ एक भूखण्ड के दो हिस्सों में बांटने का काम सौंपा गया था, मगर अब उसे लगता है कि उससे एक ऐसा गुनाह कराया गया जिसकी कभी भी माफी नहीं मिल सकती थी।
उससे पूछा गया कि क्या वह एक बार भारत-पाकिस्तान जाकर अपना गुनाह कबूल नहीं करना चाहेगा तो उसका उत्तर था कि वहां के लोग उसे पत्थर मार-मार कर लहूलुहान कर देंगे और उसे किसी भी शर्त पर माफ नहीं करेंगे।
बंटवारे का यह सिलसिला सिर्फ दो देशों के मध्य तक सीमित नहीं है। पाकिस्तान अभी भी सिंधु घाटी सभ्यता को अपनी ही विरासत बताने पर अड़ा है। हड़प्पा व मोहेन्जोदाड़ो पर तो वह एकाधिकार जता ही चुका है। आशंका यह भी है कि राखीगढ़ी या धोलावीरा से उत्खनन में जो-जो प्राप्त होगा उस पर भी पाकिस्तान अदालतों की शरण ले सकता है। कुछ पेंटिंग्स को लेकर भी दोनों देश अदालतों में आमने-सामने हैं। शुक्र है पाकिस्तान ने अभी बड़े गुलाम खान साहब की विरासत पर अपना दावा नहीं ठोका और न ही बिस्मिल्लाह खान पर ईशनिंदा का आरोप चस्पां किया। बिस्मिल्लाह खान तो काशी विश्वनाथ के द्वार पर शहनाई बजाया करते थे। उनके सुरों व उनकी धुनों से बाबा विश्वनाथ विश्राम से जगते थे।
परिस्थितियां विपरीत हैं। वर्तमान हालात में दोनों देशों के बीच करुणा, सौहार्द या संवेदनशीलता के लिए कोई जगह नहीं बची और सारे माहौल को विषाक्त बनाने व सांस्कृतिक या सामाजिक समरसता को पूरी तरह तार-तार करने के लिए पाकिस्तान वैधानिक, नैतिक व सामाजिक रूप में जिम्मेदार है। यह सोचते हुए भी रूह कांप जाती है कि क्या आने वाले किसी काल में भारत-पाक युद्ध हुआ तो उन 1500 मंदिरों, गुरुद्वारों, जिनमें कटासराज भी शामिल है और हिंगलाज मंदिर भी है, को खरोंचों से कैसे बचाया जा पाएगा?
वैसे भी अनेक मुद्दे हैं जिनका बंटवारा अभी भी, 78 वर्ष बाद भी बकाया है। यह बंटवारा मुमकिन भी नहीं है। जरूरत है तनाव घटाने की, आतंकी तत्वों के सफाए की, साझे पुलों के निर्माण की। अन्यथा पाकिस्तान के लिए आने वाले दिन अच्छे नहीं हैं।