चुनाव आयोग की जल्दबाजी !
हमारे संविधान निर्माताओं ने जब स्वतन्त्र होने के बाद चुनाव आयोग को पूर्ण रुपेण स्वायत्तशासी व सरकार से निरपेक्ष दर्जा दिया था तो प्रत्येक भारतवासी को सत्ता में भागीदारी करने की गारंटी दी थी। क्योंकि लोकतन्त्र का मतलब ही जनता की पसन्द की अपनी सरकार होता है। चुनाव आयोग जनता की इसी इच्छा की पूर्ति कराता है और तय करता है कि हर भारतवासी की इसमें शिरकत हो। अभी तक हम देखते आ रहे थे कि हर चुनाव से पहले चुनाव आयोग 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने वाले हर मतदाता का वोट बनाने के लिए अभियान चलाया करता था और अपील करता था कि बड़ी से बड़ी संख्या में लोग अपने मताधिकार का प्रयोग करने जायें परन्तु पहली बार यह देखने में आ रहा है कि चुनाव आयोग खुद मतदाता सूची से मतदाताओं के नाम काट रहा है। वह नाम काटने का कारण भी सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद ही बताता है। ऐसा बिहार में हुआ है जहां 65 लाख मतदाताओं के नाम काटे गये हैं। बिहार में चुनाव आयोग ने कहा कि वह विशेष मतदाता पुनरीक्षण अभियान चला रहा है। यह कार्य जब बिहार में शुरू किया गया तो इसका विरोध देश की विपक्षी पार्टियों ने किया और आरोप लगाया कि चुनाव आयोग का यह कार्य कानून को धत्ता बता कर किया जा रहा है। इस बारे में देश के सर्वोच्च न्यायालय में भी कई याचिकाएं दायर की गईं जिन पर सुनवाई चल रही है और सबसे ताजा सुनवाई 8 सितम्बर को ही होनी है।
चुनाव आयोग ने कहा कि किसी वैध मतदाता के लिए आधार कार्ड, राशन कार्ड व खुद उसके द्वारा जारी किया गया वोटर कार्ड ऐसे दस्तावेज नहीं हैं जो उसके वैध भारतीय नागरिक होने के प्रमाण हों। अतः उसने 11 ऐसे दस्तावेजों की फेहरिस्त पकड़ा दी जिनकी जरूरत आम आदमी को मुसीबत के वक्त ही पड़ती है। इनमें जन्म प्रमाणपत्र से लेकर जाति प्रमाणपत्र व निवासी प्रमाणपत्र शामिल थे। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि वह आधार कार्ड को किसी भी नागरिक के वैध होने का सबूत समझे और अपने ही जारी किये गये वोटर कार्ड का भी संज्ञान ले। अब चुनाव आयोग पूरे भारत में बिहार की तर्ज का मतदाता पुनरीक्षण अभियान चलाना चाहता है जबकि सर्वोच्च न्यायालय में यह याचिका लम्बित है कि चुनाव आयोग क्या इस प्रकार का कोई अभियान चला सकता है। चुनाव आयोग को आखिरकार जल्दी किस बात की है?
सवाल यह है कि चुनाव आयोग सर्वोच्च न्यायालय के अन्तिम फैसले का इन्तजार क्यों नहीं करना चाहता? भारत का संविधान स्पष्ट रूप से जब यह कहता है कि भारत में रहने वाले किसी भी व्यक्ति की नागरिकता की जांच केवल गृह मन्त्रालय ही कर सकता है तो चुनाव आयोग किस वजह से अपनी टांग इस क्षेत्र में अड़ाना चाहता है? चुनाव आयोग ने अभी राज्यों के मुख्य चुनाव अधिकारियों की बैठक आगामी 10 सितम्बर को दिल्ली में बुलाई है। इस बैठक का मन्तव्य यह माना जा रहा है कि वह आगामी 1 जनवरी, 2026 से पूरे देश में मतदाता सूची पुनरीक्षण अभियान चलाना चाहता है। जाहिर है उसके इस कदम का विरोध देश के विपक्षी दल करेंगे क्योंकि वे कह रहे हैं कि इसके बहाने आयोग देश में राष्ट्रीय नागरिकता पंजीकरण का काम करना चाहता है। निश्चित रूप से यह कार्य चुनाव आयोग का नहीं है। उसे सिर्फ यह देखना होता है कि किसी भी वयस्क भारतीय नागरिक का वोट बनने से न रह जाये। इसके अलावा उसका काम होता है कि पूरे देश में हर चुनाव पूरी तरह स्वतन्त्र तरीके से हों और मतदाता अपने अधिकार का प्रयोग बिना किसी खौफ-ओ-खतर के करें। उनका वोट कोई भी उन्हें डरा कर या लालच देकर न ले सके।
मगर चुनाव आयोग यदि नागरिकों की नागरिकता की जांच करने लगेगा तो इससे वह अपने लक्ष्य से भटक जायेगा और पूरे भारतीय समाज में बेवजह डर व्याप्त हो जायेगा। लोकतन्त्र में डर केवल कानून का ही होना चाहिए। जो लोग भारत के वैध नागरिक नहीं हैं और मतदाता बने हुए हैं उनमें कानून का डर होना चाहिए। मगर यह डर भारत के उस वैध नागरिक में नहीं होना चाहिए जिसके पास किसी कारणवश जन्म प्रमाणपत्र नहीं है। भारत की पुरानी पीढि़यों में जन्म प्रमाणपत्र बनवाने की परंपरा ही नहीं थी और सारे कार्य उनकी वल्दियत के नाम पर ही होते थे। इस हकीकत को हमें स्वीकार करना चाहिए। नई पीढि़यों में जन्म प्रमाणपत्र रखने की परम्परा जरूर पैदा हुई है जो कि देश में बढ़ती शिक्षा व्यवस्था की वजह से है। अब यदि राज्यों के मुख्य चुनाव अधिकारियों की बैठक चुनाव आयोग पूरे देश में मतदाता सूची के पुनरीक्षण की गरज से बुला रहा है तो यह उसकी जल्दबाजी होगी क्योंकि देश में इससे अगले वर्ष 2027 में जनगणना शुरू होनी है।
जनगणना के दौरान नागरिकता की पहचान भी हो सकती है। इससे चुनाव आयोग का कार्य और सरल ही होगा। बिहार में जिस तरह 65 लाख मतदाताओं के नाम चुनाव आयोग ने काटे हैं उससे पूरे देश में आशंका का वातावरण बना हुआ है जिससे लोगों का रोष चुनाव आयोग के प्रति पैदा हो सकता है। अभी तक चुनाव आयोग लोगों का मित्र ही समझा जाता है। उसकी छवि लोकमित्र जैसी है। अतः चुनाव आयोग को अपनी छवि की चिन्ता भी करनी चाहिए क्योंकि यह एक संवैधानिक संस्था है।