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चुनाव प्रणाली में संशोधन की जरूरत

बाबा साहेब अम्बेडकर ने 26 नवम्बर 1949 को जो हम देशवासियों…

10:35 AM Feb 07, 2025 IST | Rakesh Kapoor

बाबा साहेब अम्बेडकर ने 26 नवम्बर 1949 को जो हम देशवासियों…

चुनाव प्रणाली में संशोधन की जरूरत

बाबा साहेब अम्बेडकर ने 26 नवम्बर 1949 को जो हम देशवासियों को संविधान दिया उसमें उन्होंने साफ किया कि भारत का लोकतन्त्र चार खम्भों पर खड़ा होगा जिनमें चुनाव आयोग इस पूरी प्रणाली की जमीन तैयार करेगा जिस पर शेष तीन पाये विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका अवस्थित रह कर प्रशासन करेंगे। बाबा साहेब का यही चौखम्भा राज था जिसमें चुनाव आयोग के पूर्णतः पारदर्शी बने रहने की शर्त है। सरकार का हिस्सा बने बिना वह सीधे संविधान से शक्ति लेकर देशभर में चुनाव पूरी पारदर्शिता के साथ कराने के लिए प्रतिबद्ध है। उसकी यह प्रतिबद्धता देश की जनता के प्रति है क्योंकि संविधान में ही इसकी पुख्ता व्यवस्था है।

चुनाव आयोग केवल स्वतन्त्र व निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए ही प्रतिबद्ध नहीं है बल्कि वह लोकतन्त्र में हर आम आदमी की हिस्सेदारी के कर्त्तव्य से भी बंधा हुआ है। महात्मा गांधी के कठिन प्रय़ासों व कड़े संघर्ष के बाद ही स्वतन्त्र भारत में हर जाति, वर्ग व वर्ण के वयस्क व्यक्ति को एक वोट का संवैधानिक अधिकार मिला था। महात्मा गांधी यह सिद्ध करना चाहते थे कि अंग्रेजों द्वारा लुटे-पिटे हिन्दोस्तान के दास बनाये गये लोगों में यह ताकत है कि वह अपना राज खुद चला सकें और अपने राजा स्वयं ही बन सकें। उनका यह सपना साकार तभी हो सकता था जब चुनाव आयोग पूरी तरह निष्पक्ष रह कर भारत की राजनीतिक दलीय व्यवस्था को साफ- सुथरा रखे। इसी वजह से राजनैतिक दलों की अन्तर्व्यवस्था देखने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग को बाबा साहेब अम्बेडकर ने सौंपी। इसके साथ ही बाबा साहेब ने चुनाव आयोग को इन्हीं राजनैतिक दलों के प्रति जवाबदेह भी बनाया क्योंकि भारत में जो भी पार्टी लोकसभा में बहुमत प्राप्त करती है, राज उसी का होता है मगर वह केवल संविधान के अनुसार ही सरकार का प्रशासन चला सकती है।

जिस देश के लोकतन्त्र की इतनी सुन्दर व्यवस्था हो उसमें चुनाव आयोग को सभी राजनैतिक दलों का विश्वास जीतना होता है। मगर आजकल चुनाव आयोग लगातार सवालों के घेेरे में घिर रहा है। लोकसभा में विपक्ष के नेता श्री राहुल गांधी प्रश्न पूछ रहे हैं कि चुनाव आयोग यह बताये कि विगत महीनों महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में हिमाचल प्रदेश की कुल जनसंख्या के बराबर के नये मतदाता किस प्रकार केवल पांच महीनों में ही जुड़ गये? जबकि पिछले पांच सालों में भी इतने मतदाताओं का इजाफा नहीं हुआ। इस मामले में महाराष्ट्र के सभी प्रमुख विपक्षी दल राहुल गांधी के साथ हैं। राहुल गांधी का कहना है कि विगत वर्ष मई महीने में हुए लोकसभा चुनावों व इसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में केवल पांच महीने का ही अन्तर था मगर इस अन्तराल में पांच साल में जुड़े मतदाताओं की संख्या से भी अधिक मतदाता केवल पांच महीने में जुड़ गये। यह सवाल एेसा है जिसका उत्तर चुनाव आयोग को श्री राहुल गांधी को मतदाता सूची भेज कर देना चाहिए था लेकिन राहुल गांधी चुनाव आयोग से सूची मांग रहे हैं और चुनाव आयोग इस पर टालमटोल कर रहा है। परन्तु चुनाव आयोग को लेकर यह केवल एक पक्ष है।

दूसरा पक्ष और भी अधिक गंभीर है। वह यह है कि चुनाव प्रक्रिया शुरू होने से लेकर मतगणना होने तक चुनाव आयोग ही देश या प्रदेश का प्रशासनिक मुखिया हो जाता है जिसमें उसे देखना होता है कि चुनाव में भाग लेने वाले दलों के साथ किसी भी प्रकार का पक्षपात न हो सके। इसकी वजह यह है कि भारत का लोकतन्त्र सत्ता पक्ष व विपक्ष को लेकर ही बनता है। यह मानना गलत है कि भारत के लोकतन्त्र में केवल सत्तारूढ़ पार्टी की ही मुख्य भूमिका होती है। भारत की संसदीय प्रणाली में विपक्ष की भागीदारी भी होती है। इसी वजह से सरकार की तरफ से संसद में रखे गये किसी भी विधेयक पर बहस होती है जिसमें विपक्षी दलों के सांसद अपनी राय देते हैं और सरकार को अपने सुझावों से अवगत कराते हैं।

चुनाव आयोग पूरे देश में चुनाव कराने के लिए जो व्यवस्था निष्पक्ष होकर करता है उसी से सत्तापक्ष व विपक्ष निकल कर आता है। भारत के लोग संसद सदस्यों का चुनाव करते हैं जो सदन मे पहुंच कर सत्ता पक्ष व विपक्ष में बंट जाते हैं। अतः चुनाव आयोग ही वह संवैधानिक संस्था है जो चुनाव पूरे होने पर राष्ट्रपति के पास जाकर उन्हें चयनित संसद सदस्यों की सूची सौंपता है जिसके बाद नई लोकसभा का गठन होता है। इसी तथ्य से हमें चुनाव आयोग की महत्ता का पता लग जाना चाहिए। इसे दन्त विहीन संस्था मानना पूरी तरह गलत है। परन्तु आज जब पूरे मुल्क में एक देश एक चुनाव की चर्चा हो रही है तो हमें चुनाव आयोग की भूमिका पर औऱ ज्यादा गंभीरता के साथ विचार करना चाहिए। और सोचना चाहिए कि बिना चुनाव प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन किये क्या हम उस लोकतन्त्र की परिकल्पना कर सकते हैं जो गांधी या हमारे संविधान निर्माताओं ने की थी? वह कल्पना यह थी कि देश का गरीब से गरीब व्यक्ति भी जनता के चाहने पर उनका प्रतिनिधी चुना जा सके। भारत में एेसे कई उदाहरण है जब पूर्व राजा-महाराजाओं को उन्हीं के कारिन्दे रहे लोगों ने चुनाव में परास्त कर दिया था। 1971 के लोकसभा चुनावों में एेसा ही नजारा देखने को मिला था जब पुराने राजे- रजवाड़ों ने स्व. इन्दिरा गांधी की कांग्रेस के प्रत्याशियों से चुनाव हारा था।

1977 में तो रीवां की बड़ी रियासत के पूर्व महाराजा ‘मार्तंड जू सिंहदेव’ एक नेत्रहीन समाजवादी प्रत्याशी श्री के. के. शास्त्री से चुनाव हार गये थे। 1977 में श्री शास्त्री से जब मैं मिला तो उन्होंने साफ कहा कि भारत की निष्पक्ष चुनाव प्रणाली के चलते जनता के समर्थन से मेरी जीत हुई। हालांकि इन चुनावों से पहले 21 महीने तक भारत में इमरजेंसी लगी रही थी। उस समय तक देश की चुनाव प्रणाली पर किसी भी दल का नेता किसी प्रकार के सवाल नहीं उठाता था। उस समय तक राजनैतिक दलों में भी अपने क्षेत्र में लोकप्रिय गरीब प्रत्याशियों का कोई टोटा नहीं होता था। इसके बावजूद 1974 में शुरू जयप्रकाश नारायण (जेपी) आन्दोलन मेें चुनाव सुधार एक प्रमुख मुद्दा था। इसके साथ ही चुने हुए प्रतिनिधियों को वापस बुलाने की मांग भी जेपी जोरशोर से उठा रहे थे। जेपी चाहते थे कि भारत की चुनाव प्रणाली को धन के प्रभाव से मुक्ति दिलाई जानी चाहिए। इसके लिए उन्होंने अपने आन्दोलन के चलते ही बम्बई उच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त मुख्य न्यायाधीश श्री वी.एम. तारकुंडे के नेतृत्व में एक चुनाव सुधार समिति बनाई थी। इस समिति ने अपनी सिफारिश भी जेपी को सौंप दी थी जिसमें सरकारी खर्चे से चुनाव कराने की संस्तुति की गई थी।

जेपी के आन्दोलन में जनसंघ (भाजपा) भी उनके साथ थी। 1977 में इमरजेंसी के बाद जब देश में जनता पार्टी के झंडे के नीचे मोरारजी देसाई की सरकार बनी तो उसने इस समिति की सिफारिशों पर कोई खास ध्यान नहीं दिया और पूर्व चुनाव आयुक्त श्री एस.एल. शकधर के नेतृत्व में एक चुनाव सुधार आयोग गठित कर दिया। जनता सरकार केवल 1977 से 1979 तक ही चल सकी और 1980 में पुनः इन्दिरा जी बिखरी ही जनता पार्टी को परास्त कर सत्ता में आ गईं।

शकधर आयोग की रिपोर्ट तब बट्टे खाते में चली गई। इसने सरकारी खर्च से चुनाव कराने की सिफारिश नहीं की। इसके बाद चुनाव सुधारों को लेकर कई समितियां बनीं परन्तु उनकी सिफारिशों में भी मूलाधार चुनाव प्रणाली में परिवर्तन करने की कोई संस्तुति नहीं की गई। इनमें सिर्फ गोस्वामी समिति की रिपोर्ट के कुछ अंशों को लागू किया गया। मगर 2004 के चुनावों से पहले तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने एक टीवी पत्रकार को दिये अपने साक्षात्कार में साफ किया कि चुनाव प्रणाली के लिए सबसे बड़ा खतरा इसके धनतन्त्र के कब्जे में आने का है। अतः चुनावों को धन के प्रभाव से मुक्ति दिलाने के लिए प्रयास किये जाने चाहिए। जनतन्त्र में जब गरीब आदमी व अमीर आदमी के वोट की कीमत में कोई अन्तर नहीं है तो चुनाव में खड़े होने के लिए केवल अमीर आदमी की अहर्ता किस प्रकार जायज हो सकती है।

दूसरी तरफ अब चुनाव आयोग पर ही सवाल उठने शुरू हो गये हैं अतः बहुत जरूरी है कि हम अपने लोकतन्त्र को स्वस्थ बनाने के लिए धरातल पर जाकर आमूल चूल परिवर्तन करें। चुनावों में जिस प्रकार धन बहाया जाता है वह तो है ही मगर प्रत्य़ाशी के खर्च की सीमा होने के बावजूद जिस प्रकार धन मौजूदा कानूनों में ही बहाने की छूट है उससे तो गरीब आदमी के पसीने ही छूट जायेंगे। प्रत्याशी के समर्थक कितना ही धन खर्च कर सकते हैं यह संशोधन भी 1974 में ही इन्दिरा गांधी द्वारा किया गया था। इसके बाद चुनाव लड़ना भी आम आदमी के लिए ‘गूलर के फूल’ जैसा हो गया। अब जबकि चुनाव आयोग ही सवालों के घेरे में घूम रहा है तो चुनावी प्रक्रिया के जस के तस रहने का कोई औचित्य नहीं है। इसका मतलब है कि समस्या जमीन से लेकर ऊपर तक फैल गई है। लोकतन्त्र को जीवन्त बनाये रखने के लिए हमें इस इलैक्ट्रानिक व डिजिटल मीडिया दौर में कहीं न कहीं से पहल करनी ही होगी।

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Rakesh Kapoor

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