कश्मीर में लोकतंत्र का अहसास
जम्मू-कश्मीर में आठवें चरण में 51 फीसदी मतदान के साथ ही जिला विकास परिषद (डीडीसी) चुनाव सम्पन्न हो गए। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को खत्म किये जाने के बाद पहली बार हुए डीडीसी चुनाव में मतदाताओं का उत्साह लोकतंत्र में उनकी आस्था को ही अभिव्यक्त करता है।
12:53 AM Dec 21, 2020 IST | Aditya Chopra
जम्मू-कश्मीर में आठवें चरण में 51 फीसदी मतदान के साथ ही जिला विकास परिषद (डीडीसी) चुनाव सम्पन्न हो गए। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को खत्म किये जाने के बाद पहली बार हुए डीडीसी चुनाव में मतदाताओं का उत्साह लोकतंत्र में उनकी आस्था को ही अभिव्यक्त करता है। मतदान केंद्रों पर कड़ाके की ठंड के बीच लोगों की लम्बी कतारें इस बात का संकेत दे रही थी कि अनुच्छेद 370 को समाप्त किये जाने से आम लोगों पर कोई असर नहीं पड़ा है। कश्मीरी अवाम बुनियादी सुविधाओं के लिए स्थानीय सरकार चाहती है। 370 खत्म करने का प्रभाव अगर हुआ है तो वह जम्मू-कश्मीर के सियासतदानों पर हुआ है जो जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के समय से ही अपनी-अपनी राजनीतिक दुकानें सजाये हुए थे। डीडीसी चुनावों में हिंसक वारदातें करने के लिए पाकिस्तानी आतंकवादियों ने बहुत साजिशें रचीं लेकिन सुरक्षाबलों ने आतंकी संगठनों की हर साजिश को विफल बना दिया। आठ चरणों में शांतिपूर्ण मतदान अपने आप में काफी सुखद है। केंद्र शासित राज्य बनने के बाद यह पहला बड़ा चुनाव था। पहले तो मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां पीडीपी, नेशनल कान्फ्रेंस कांग्रेस, माकपा और भाकपा ने पीपल्स एलायंस फॉर गुपकार डिम्लेरेशन यानी पीजीडी गठबंधन के रूप में चुनाव लड़ा। जम्मू-कश्मीर के पूर्व वित्त मंत्री अल्ताफ बुरगरी की ‘अपनी पार्टी’ ने भी चुनाव लड़ा। इस पार्टी ने पीजीडी गठबंधन और भाजपा में चुनाव त्रिकोणीय बना दिया। डीडीसी चुनावों में लोगों की भागीदारी ने यह दिखा दिया कि जम्मू-कश्मीर के लोगों में देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था से जुड़ने का जज्बा है और वे राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ने के लिए लालायित हैं। आतंकवाद अब घाटी के कुछ क्षेत्रों तक सिमट गया है। आतंकी कमांडरों की उम्र अब छह-सात महीनों से ज्यादा नहीं है। आतंकवाद समाप्त करने के लिए सुरक्षाबल लगातार लगे हुए हैं।
जम्मू-कश्मीर में शांति बहाली के लिए सुरक्षाबलों के जनरल लगातार शहादतें दे रहे हैं। खुद को कुछ जमाती के तौर पर पेश करने लगे हुर्रियत के नागों की पोल खुुल चुकी है। हुर्रियत के नागों को पिटारे में बंद किया जा चुका है। हुर्रियत के अलगाववादी नेताओं के वित्त पोषण के नेटवर्क को ध्वस्त किया जा चुका है। घाटी की अवाम उनकी असलियत को पहचान चुकी है। जिन नेताओं ने स्कूल बंद करवाये, स्कूल जलवाये उन सबके बच्चे विदेशों में पढ़ रहे हैं या व्यापार कर रहे हैं। जिन लोगों ने कश्मीरी बच्चों को दिहाड़ीदार पत्थरबाज बनाया उनके वित्त पोषण के सभी स्रोत बंद किये जा चुके हैं। काफी संख्या में कश्मीरी युवकों ने बंदूक उठाकर अपनी जान ही गवांई है। आतंकवाद का चक्रव्यूह ऐसा होता है जिसमें फंसकर कोई बाहर आ जाए तो आ जाए अन्यथा यह चक्रव्यूह अंततः जान ही ले लेता है।
जम्मू-कश्मीर में नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी का ही शासन रहता रहा है। दोनों की दल पारिवारिक राजनीति को प्रोत्साहित करते रहे हैं। रोशनी एक्ट की आड़ में करोड़ों की सरकारी जमीन कौड़ियों के दाम कब्जा ली गई। जम्मू-कश्मीर के राजनीतिज्ञों ने देश-विदेश में सम्पत्तियां बनाईं। जम्मू-कश्मीर क्रिकेट संघ में वित्तीय अनियमितताओं के चलते नेशनल कांफ्रेंस के संरक्षक और पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला की 70 करोड़ की सम्पत्ति प्रवर्तन निदेशालय ने जब्त कर ली। अब फारूक अब्दुल्ला के सामने सबसे बड़ी चुनौती खुद को निर्दोष साबित करने की है। आज तक कश्मीरी अवाम को संतुष्ट करने के लिए पूर्व की केंद्र सरकारों ने कितना धन बहाया है, इसका कोई हिसाब-किताब भी नहीं है। काश यह धन राज्य के विकास पर खर्च किया गया होता तो कश्मीर धरती का जन्नत बन गया होता लेकिन जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी नेताओं ने पाकिस्तान की सेना, आईएसआई और अन्य आतंकी संगठनों से सांठगांठ कर आतंकवाद को बढ़ावा दिया और कश्मीर को दोजख बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती ने अनर्गल बयानबाजी शुरू की थी लेकिन अपनी सियासत की जमीन खोने के डर से डीडीसी चुनावों के बहिष्कार का इरादा छोड़ दिया।
डीडीसी चुनावों ने नई उम्मीद जगा दी है। अनुच्छेद 370 को खत्म किये जाने से पहले राज्य में त्रिस्तरीय पंचायत प्रणाली नहीं थी। हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा पंचायती राज अधिनियम के संशोधन को स्वीकृति देने के बाद इन चुनावों का मार्ग प्रशस्त हुआ। डीडीसी चुनाव जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनावों के लिए जमीन तैयार करेगा। जम्मू-कश्मीर में परिसीमन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही विधानसभा चुनाव कराये जाएंगे। इन चुनावों में विभाजन के बाद देश में लौटे शरणािर्थयों को पहली बार मतदान का अधिकार मिला है। पहले उन्हें सिर्फ लोकसभा चुनावों में ही मतदान करने का अधिकार था। 70 वर्ष बाद उन्हें समतामूलक लोकतंत्र का अहसास हुआ है। जिला विकास परिषदों के माध्यम से विकास का मार्ग प्रशस्त होगा। लोगों को रोजगार के अवसर मिलेंगे। यद्यपि चुनाव परिणाम 22 दिसम्बर को आएंगे। सवाल किसी की हार और जीत का नहीं है बल्कि लोगों को सही अर्थों में लोकतंत्र का अहसास दिलाने का है। उम्मीद है कि कश्मीरी अवाम को लोकतंत्र का अहसास होगा और वह राष्ट्र की मुख्यधारा से खुद को जोड़ लेंगे।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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