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आरक्षण की आग बुझानी होगी

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09:24 AM Jul 29, 2018 IST | Desk Team

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इसमें कोई शक नहीं कि देश के किसी भी हिस्से में अगर जाति के दृष्टिकोण से कोई दबा-कुचला और दलित है तो उसे आरक्षण के नाम पर शिक्षा और नौकरी या जीवन के किसी भी क्षेत्र में कुछ हद तक सुविधाएं अगर प्रदान की गई हैं तो यह व्यवस्था हमारे संविधान ने तय की है तो इस पर हम टिप्पणी नहीं करना चाहेंगे। जब आरक्षण को लेकर देश की अलग-अलग संपन्न जातियों या अन्य वर्ग इसमें खुद को जोड़े जाने की मांग करते हैं तो फिर बवंडर खड़ा हो जाता है। आरक्षण की मांग करने वाले लोग आगजनी पर उतर आते हैं और सामान्य जन-जीवन बुरी तरह ठप्प हो जाता है। ताजा किस्सा महाराष्ट्र का है, जहां मराठों को आरक्षण दिए जाने के लिए एक वर्ग खड़ा हो गया है और पिछले दो-तीन दिन में ही सैकड़ों बसें फूंक दी गई, मुंबई बंद कर दी गई, तीन लोगों की मौत हो गई और परिणाम वही शून्य। सवाल पैदा होता है कि आज के दौर में जब भारत अब दुनिया के नक्शे पर एक शक्ति के रूप में स्थापित हो रहा है तो फिर वहां नौकरियों या शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था क्यों? आज छात्र वर्ग जानता है कि हर तरफ अन्य वर्गों को सुविधाएं मिलती हैं तो आम वर्ग के लिए कुछ नहीं बनता। इसलिए नए-नए संगठन खड़े हो रहे हैं और विरोध के सुर आंदोलनों के रूप में उभरने लगे हैं, जिन्हें रोका जाना चाहिए। आरक्षण को अगर सामाजिक क्षेत्र की बजाए राजनीतिक रूप से जोड़ दिया जाए तो फिर हर कोई अपना नफा-नुकसान सोचता ही है। यह भी सच है कि इस आरक्षण से अनेक नेता भी उभरते हैं, जो आगे चलकर देश की राजनीति को झकझोरने की कोशिश करते हैं।

मंडल कमीशन की इस रिपोर्ट को लेकर जब तत्काल प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने इसे आउट किया तो देश में इस कदर आंदोलन हुए कि अनेक छात्र-छात्राओं ने आत्मदान करने शुरू कर दिए थे। बीच में विराम लगा परंतु अब पिछले चार-पांच वर्ष से जो कुछ देश बड़े राज्यों में सिलसिलेबार हो रहा है, वह सचमुच चिंता की बात है। पहले हरियाणा, फिर राजस्थान, इसके बाद गुजरात और अब महाराष्ट्र में आरक्षण के खिलाफ आंदोलन खड़ा हुआ। राज्य सरकारें कुछ नहीं कर सकती। आरक्षण की मांग उठाने वालों को केवल आश्वासन दिया जा सकता है। हो भी यही रहा है। करोड़ो-अरबों रुपए की संपत्ति आंदोलनों की भेंट चढ़ चुकी है। राज्य सरकारें वायदा करती हैं और असली फैसला सुप्रीम कोर्ट पर केंद्रित है, जो कि केंद्र सरकार की व्यवस्था का पालन करती है।

हम स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि आरक्षण की मांग को लेकर अगर संपन्न वर्ग यह सुविधा चाहते हैं तो फिर समाज में बंटवारा तय है। दुर्भाग्य से ऐसा हो भी रहा है। राजनीतिक दृष्टिकोण से सहिष्णुता और असहिष्णुता को लेकर जो कुछ हम पिछले चार साल से देख रहे हैं, वह एक खतरनाक हालात की तस्वीर दिखा रहा है। ऐसे में अगर आरक्षण सुविधा की मांग को लेकर स्टूडेंट्स के दिलोदिमाग में यह सवाल उठने लगता है कि उसके 80-90 प्रतिशत अंक होने के बावजूद उसकी पसंदीदा स्ट्रीम में दाखिला नहीं मिलेगा तो उसके दिल में विद्रोह उठना स्वाभाविक है। जब स्टूडेंट्स ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन पास करने के बाद यह लगने लगता है कि उसे नौकरी मिलेगी ही नहीं और यह आरक्षण के नाम पर किसी और के हिस्से में चली जाएगी तो उसके दिल में विद्रोह उठना स्वाभाविक है। कई विशेषज्ञों और विश्लेषकों की राय हम सुनते हैं और इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए। यदि सचमुच ऐसा कर लिया जाता है तो हम इसका तहेदिल से स्वागत करते हैं।

हम किसी जाति-बिरादरी का नाम लिए वगैर इतना स्पष्ट करना चाहते हैं कि संपन्न लोगों को इसका लाभ तो कम से कम नहीं मिलना चाहिए और योग्यता को किसी भी सूरत में नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। आगे चलकर सरकारें अगर आरक्षण को लेकर आर्थिक आधार को प्राथमिकता दें तो सचमुच यूथ और स्टूडेंट्स के दिलो-दिमाग में जो विद्रोह फूट रहा है तो यकीनन हालात पर काबू किया जा सकता है। गुजरात, हरियाणा, राजस्थान और महाराष्ट्र की तबाही हमने देखी है। सरकारी संपत्ति का यह नुकसान बहुत जल्द रिकवर नहीं हो पाता। सरकारों से अपेक्षा यही की जाती है कि वो इस दिशा में कोई ठोस पग उठाएं।

अगर व्यवस्थाएं आरक्षण को लेकर संविधान से जोड़कर स्थापित की जा सकती हैं तो समय-समय पर बदलाव भी किया जा सकता है। देश में कितने ऐसे पुराने कानून हैं जिनमें समय-समय पर संशोधन किए जाते रहे हैं। हम समझते हैं कि आरक्षण को लेकर भी कोई न कोई संशोधन कानूनविदों से विचार-विमर्श के बाद किया तो जा ही सकता है। अगर किसी कायदे-कानून को लेकर यदि सम्बद्ध पक्षों से आपत्तियां दर्ज की जाती हैं तो इस मामले में संविधान विशेषज्ञों और सामाजिक तथा अन्य नेताओं के विचार-विमर्श भी आमंत्रित किए जाने चाहिए। देश के यूथ और स्टूडेंट्स का 40 प्रतिशत होना और उनका विद्रोह कोई न कोई अहमियत तो रखता ही है। शांतिपूर्वक इसका भी हल निकाला जाना चाहिए। आग कहीं भी लगे वह नफरत बढ़ाती है और आरक्षण के केस में हम इस अग्निकांड को देख रहे हैं और झेल रहे हैं। यह चुप रहने का नहीं, आग की ज्वाला को ठंडा करने का समय है। इस पहल का हमें और राष्ट्र को इंतजार रहेगा।

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