बाढ़ों ने रैडक्लिफ-रेखा का कोई निशान नहीं छोड़ा
बाढ़ ने इस बार रैडक्लिफ द्वारा 78 वर्ष पूर्व खींची गई विभाजन रेखाओं को पूरी तरह अपनी लपेट में ले लिया। लगता था कि क्षुब्ध लहरें उस विभाजन को पूरी तरह नकार रही थी। न कोई ‘एलओसी’ न कोई ‘एलएसी’। आंधियों, तूफानों व बाढ़ों के अपने तौर-तरीके हैं। यदि ‘लूटपाट’ खून व सत्ता के प्यासे लोगों ने 78 वर्ष पहले अराजकता दिखाई थी तो आंधी, तूफान व बाढ़ क्यों न अराजक हो जाएं। हुसैनीवाला-सीमा फिरोजपुर व फाजिल्का-सीमा पर स्थित सादगी की ‘रिट्रीट-सैरेमनी’ वाले मंच भी बाढ़ ने इस बार बहा दिए। इस समय भारत-पाक के सैकड़ों गांवों के खेत बाढ़ के पानी में डूबे हैं। आज रैडक्लिफ जीवित होता तो 113 वर्ष का होता। अगर रूहें कब्रों के आसपास वाकई भटकती हैं तो रैडक्लिफ की रूह भी सिर धुनने पर विवश हो जाती। भारत-पाक सीमा के पार वे लगभग सभी गांव पानी में डूबे हैं जिनका प्रयोग आतंकी संगठन अपने प्रशिक्षण केंद्र स्थापित करने और ‘लांचिंग पैड’ बनाने के लिए करते आ रहे थे। वहां 700 वर्ग किलोमीटर का पूरा क्षेत्र प्रभावित है और 33 लाख लोग बुरी तरह प्रभावित हैं।
रैडक्लिफ भारत विभाजन की विभीषिका का संभवत: सर्वाधिक चर्चित व अभिशप्त पात्र था। उसके अंतिम दिन अच्छे नहीं बीते। वह सदैव उदास रहता। उसे यही लगता कि वह ‘विश्व के सबसे बड़े माइग्रेशन’ का अपराधी था। ये हादसों के दिन थे। पूरे घटनाक्रम की कमोबेश हर घटना हादसों की मानिंद घट रही थी। चारों तरफ विसंगतियां, विरोधाभास भरे पड़े थे। यह एक ऐतिहासिक विरोधाभास था कि जिस तारीख को पाकिस्तान अस्तित्व में आया, इस दिन तक उस देश की सीमाएं तय नहीं हो पाई थीं। लगभग साढ़े चार लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को लगभग आठ करोड़ लोगों के लिए आवंटित किया जाना था। स्वतंत्र पाकिस्तान 14 अगस्त को अस्तित्व में आ गया था। 15 अगस्त को लाल किले पर तिरंगा फहरा। मगर दोनों देशों के बीच सीमा रेखा एक दिन बाद 16 अगस्त को ही खींची जा सकी। यानि आज़ादी पहले मिल गई, सीमाएं बाद में तय हुईं। इन सीमा रेखाओं की निशानदेही जिस सीमा आयोग ने की, उसके अध्यक्ष एक आर्किटैक्ट सर सिरिल रैडक्लिफ थे। यह भी शायद उस काल की सबसे बड़ी विसंगति थी कि एक ऐसे शख्स को इस ऐतिहासिक निशानदेही का काम सौंपा गया जो इससे पहले एक पर्यटक के रूप में भी कभी भारत नहीं आया था। उसने यहां की संस्कृति, भूगोल, धर्म, जातियों के बारे में जो कुछ भी जाना यहां आकर जाना।
अब थोड़ा पीछे लौटें। ब्रिटिश पॉर्लियामेंट ने 15 जुलाई, 1947 को ‘इंडियन इंडिपैंडेंस एक्ट 1947’ पारित किया। इन कानून के तहत सिर्फ एक माह बाद अर्थात 15 अगस्त, 1947 को ‘ब्रिटिश भारत के प्रांतों’ को दो सार्वभौम प्रभुसत्ता सम्पन्न देशों के बीच विभाजित किया जाना था। एक का प्रस्तावित नाम ‘यूनियन ऑफ इंडिया’ और दूसरे का ‘डौमिनियन ऑफ पाकिस्तान’ था। विभाजन से पहले भारत का लगभग 40 प्रतिशत भाग छोटे-बड़े राजाओं, महाराजाओं, नवाबों के अधिकार में था। कोई भी रेखा, सड़क तंत्र, रेल तंत्र, संचार तंत्र, सिंचाई तंत्र और बिजली तंत्र को तहस-नहस किए बिना मुमकिन नहीं थी। खेतों की स्थिति भी यही थी। मगर दलीलों, सामान्य बुद्धि और तकनीकी एवं ऐतिहासिक व भौगोलिक मजबूरियों को एक तरफ हाशिए पर सरका दिया गया। बस विभाजन रेखाएं खींच दी गईं। इस सारी कवायद के लिए दो सीमा आयोग गठित हुए थे। एक बंगाल के लिए और दूसरा पंजाब के लिए। दोनों का ही अध्यक्ष सर सिरिल रैडक्लिफ को बनाया गया। रैडक्लिफ 8 जुलाई, 1947 को पहली बार भारत पहुंचे थे। उन्हें अपने समूचे कार्य के लिए 5 सप्ताह का नपा तुला समय दिया गया।
दोनों आयोगों में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के दो-दो प्रतिनिधि शामिल थे लेकिन किसी नुक्ते पर दोनों पक्षों के बीच मतभेद की स्थिति में अंतिम फैसला रैडक्लिफ का होता था। रैडक्लिफ को समय बेहद नाकाफी लग रहा था। मगर इस बारे में वायसराय, कांग्रेस व मुस्लिम लीग के नेता अडिग थे। वे समय सीमा को बढ़ाने के कतई पक्ष में नहीं थे। इस आयोग में रैडक्लिफ के अलावा शेष सभी सदस्य पेशे से वकील थे। जिन्ना व नेहरू का सम्बन्ध भी वकालत से ही था। किसी भी सदस्य के पास ऐसा कोई अनुभव नहीं था। कोई भी नहीं जानता था कि विभाजन सीमा कैसे तैयार होती है। रैडक्लिफ को सिर्फ इस बात की सन्तुष्टि थी कि उनका प्राइवेट सैक्रेटरी क्रिस्टोफर ब्यूमैंट पंजाब की हर स्थिति से पूरी तरह वाकिफ था। पंजाब की प्रशासनिक व्यवस्था व वहां की जि़न्दगी के बारे में लगभग पूरी जानकारी उसे थी। अब इतिहासज्ञ व विशेषज्ञ इस बात को स्वीकारते हैं कि यदि थोड़ी सावधानी और सजगता से काम लिया जाता तो विभाजन की अकल्पनीय विभीषिका से बचा जा सकता था। ऐसे अनेक मंज़र सामने आए जबकि किसी एक गांव को बीच में से बांटना पड़ा। एक गांव का कुछ भाग पाकिस्तान को मिला, शेष हिन्दुस्तान को। रैडक्लिफ घनी आबादी वाले क्षेत्रों के बीच विभाजक रेखा के हक में था। मगर इससे कई ऐसे घर भी बंटे जिनके कुछ कमरे भारत में गए, कुछ पाकिस्तान में।
रैडक्लिफ बार-बार एक ही दलील देता ‘हम कुछ भी कर लें लोग बर्बादी तो झेलेंगे ही।’ रैडक्लिफ ने ऐसा क्यों कहा, यह शायद स्पष्ट नहीं हो पाएगा, क्योंकि भारत छोड़ने से पहले उसने सारे नोट्स (अंतिम रपट के अलावा) नष्ट कर दिए थे ताकि बाद में विवादों के मुद्दे न उठें। वैसे भी उसे भारत की आबोहवा रास नहीं आ रही थी। वह जल्दी से जल्दी स्वदेश लौटना चाहता था। समूची विभाजक कार्यवाही यथासम्भव गुप्त रखी गई। अंतिम रपट (अवार्ड) 9 अगस्त, 1947 को तैयार हो गई थी, मगर उसे विभाजन से दो दिन बाद 17 अगस्त को ही सार्वजनिक किया गया। रैडक्लिफ की उम्र उस समय सिर्फ 48 वर्ष थी। उन दिनों 8 जुलाई, 1947 से लेकर 9 अगस्त तक उसने किसी भी सामाजिक समारोह या गतिविधि में शिरकत नहीं की। वह सिर्फ अपने काम में ही व्यस्त रहता। थोड़ी सी अवधि में बहुत बड़े काम को अन्जाम देना आसान नहीं था। ज्यादातर मुसलमान तब भी यही मानते थे कि पाकिस्तान बनने के बाद भी हिन्दुस्तान में आने जाने की सहूलियत कायम रहेगी। अनेक समृद्ध मुसलमानों ने अपनी कई सम्पत्तियां बम्बई व दिल्ली में बदस्तूर बनाए रखीं। जिन्ना ने मालाबार हिल बम्बई (अब मुम्बई) स्थित अपनी कोठी बेची नहीं थी हालांकि दिल्ली वाली कोठी उन्होंने बेच दी थी। बम्बई से जिन्ना अनेक मामलों में जुड़े हुए थे। इनमें से एक कारण, अपनी बेगम रत्ती की स्मृतियां भी थीं।
प्रॉपर्टी का बंटवारे में रैडक्लिफ व्यावहारिक मामलों में कोरा था। अपनी नियुक्ति से पहले उसने वेतन भत्तों, परिवार-खर्च, नि:शुल्क यात्रा, नि:शुल्क रहन-सहन जैसी छोटी-छोटी शर्तें भी अपनी सरकार से लिखित में मनवाईं। ज़ाहिर है वह न तो राजनीतिज्ञ था, न ब्यूरोक्रेट। उसकी नियुक्ति उसकी पेशेवराना योग्यताओं के मद्देनजर ही हुई थी। मगर उसके महत्व का अंदाज़ा सबको तब लगा जब कांग्रेस व मुस्लिम लीग के शिखर नेताओं को अपना-अपना मांग पत्र उसे देने के लिए स्वयं जाना पड़ा। उसे एक पंजाबी अंगरक्षक दिया गया जो सदा कमर में दो पिस्तौलें रखता था। उसके एक हाथ में बंदूक होती थी मगर वह पुलिस यूनिफार्म में नहीं होता था। वह छाया की तरह रैडक्लिफ के साथ चिपका रहता।
रैडक्लिफ 17 अगस्त को ही वापिस लौट गया। वह जानता था, बहुत सी दुखद घटनाओं के लिए उसे जि़म्मेदार ठहराया जाएगा। स्वदेश वापसी पर उसे ‘लॉ-लार्ड’ का पद दिया गया। एक बार उससे एक पत्रकार ने पूछा था कि क्या वह फिर भारत जाना चाहेगा? उसका जवाब था, ‘यदि कोई राजकीय हुक्म मिला, तब भी नहीं। मुझे लगता है कि यदि गया तो वहां दोनों पक्षों के लोग मुझे गोलियों से भून डालेंगे।’ रैडक्लिफ के करीबी लोगों के अनुसार विभाजन के रक्तपात की खबरों से वह बेहद तनाव में से गुज़रता रहा। मगर उसे सरकारी एवं राजकीय सम्मान मिलते रहे। वर्ष 1977 में एक ‘विस्काउंट’ के रूप में उसने आखिरी सांस ली। उसे शायद जीते जी इस बात का अहसास नहीं था कि सिर्फ छह सप्ताहों की नौकरी उसे भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में एक दागदार पृष्ठ दे डालेगी।