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बिहार में चुनावी विमर्श का ‘खेला’ शुरू

04:00 AM Oct 18, 2025 IST | Rakesh Kapoor

बिहार में अगले महीने होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए राजनीतिक शतरंज की बाजी अब पूरी तरह बिछ चुकी है । असली मुकाबला सत्तारूढ़ राजग या एनडीए गठबन्धन व विपक्षी इंडिया गठबन्धन के बीच होने जा रहा है। तीसरी नई पार्टी जनसुराज भी मैदान में वैसे तो अपने प्रत्याशी उतार रही है मगर इसकी हैसियत वोट कटवा से अधिक की नहीं है। दोनों ही गठबन्धनों मंे सीटों के बंटवारे को लेकर बेचैनी भी देखी जा रही है और भावी मुख्यमन्त्री के नाम पर समझौता न होने की दिक्कत भी है। इसके बावजूद राज्य में एक तरफ युवा नेतृत्व राष्ट्रीय जनता दल के नेता पूर्व उप-मुख्यमन्त्री तेजस्वी यादव के रूप में बिहार के मतदाताओं के सामने हंै जबकि दूसरी तरफ मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार का अनुभवी व प्रौढ़ नेतृत्व है। बिहार मंे सत्तारूढ़ राजग गढबन्धन का अस्तित्व नीतीश कुमार की पार्टी जद(यू) की उपलब्धियों पर ही कमोबेश रूप से निर्भर करता है।
इस मामले में जद(यू) नेता व पूर्व राष्ट्रीय प्रवक्ता के.सी. त्यागी का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि नीतीश बाबू की तुलना महाराष्ट्र के शिवसेना नेता एकनाथ शिन्दे से नहीं की जानी चाहिए। सभी को ज्ञात है कि महाराष्ट्र चुनाव श्री शिन्दे के नेतृत्व में भाजपा ने लड़ा था मगर विजय के बाद भाजपा ने अपना मुख्यमन्त्री देवेन्द्र फड़णवीस को बनाया जबकि चुनाव से पहले श्री शिन्दे मुख्यमन्त्री थे। बेशक वह असली शिवसेना के नेता उद्धव ठाकरे से विद्रोह करके मुख्यमन्त्री बने थे। भाजपा ने तब राज्य की महाविकास अघाड़ी सरकार को पटखनी इसलिए दे दी थी क्योंकि श्री शिन्दे ने उस सरकार से विद्रोह करते हुए अपनी अलग शिवसेना पार्टी बना ली थी , जिससे वह सरकार अल्पमत में आ गई थी। यह सरकार किसी और की नहीं बल्कि उद्धव ठाकरे की थी जिसमे शरद पंवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस व कांग्रेस पार्टी शामिल थी। बिहार में भी हालांकि कुछ इस तरह की घटना दो वर्ष पहले घटी थी जब नीतीश बाबू भाजपा का साथ छोड़ कर लालू जी के राष्ट्रीय जनता दल के पाले में आ गये थे और उन्होंने भाजपा की शिरकत वाली राजग गठबन्धन की सरकार को गिरा दिया था। मगर यह सरकार केवल 17 महीने चली जिसमें लालू पुत्र तेजस्वी यादव उप- मुख्यमन्त्री थे । इससे पूर्व भी नीतीश बाबू दो बार पलटी मार कर इधर से उधर हो चुके थे। जिसकी वजह से उनका नाम पल्टू चाचा पड़ गया।
इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि नीतीश बाबू ने ही अपने दम खम पर बिहार में जनता दल(यू) पार्टी को खड़ा किया है और अपनी सुशासन बाबू की छवि के साथ पिछले बीस वर्षों से बिहार पर राज किया है। मगर लगता है कि अब राज्य की राजनीति मंे उनकी वह पकड़ नहीं रही जो बीस साल पहले थी। नीतीश बाबू ने विगत वर्ष हुए लोकसभा चुनावों से पहले ही जद(यू)- राजग- कांग्रेस सरकार तोड़ी और भाजपा का दामन थामा था। अतः उनकी तुलना महाराष्ट्र के श्री शिन्दे से करना तर्कसंगत नहीं है। श्री त्यागी के इस कथन से सहमत हुआ जा सकता है मगर इससे सहमत नहीं हुआ जा सकता कि जद(यू) व भाजपा के बीच सब कुछ ठीकठाक है क्योंकि इससे पहले 2005 से लेकर अब तक जितने भी विधानसभा चुनाव बिहार मंे हुए उन सभी मंे भाजपा के लिए नीतीश बाबू ने ही सीटों की संख्या निर्धारित की ( 2015 के चुनावों को छोड़ कर क्योंकि ये चुनाव राजद के साथ मिल कर नीतीश बाबू ने लड़े थे।) सभी चुनावों में जद(य़ू) की भूमिका बड़े भाई की रही। परन्तु आसन्न चुनावों में यह भूमिका भाजपा के पास चली गई है क्योंकि दोनों पार्टियां बराबर–बराबर सीटों पर ही चुनाव लङ रही हैं। जबकि अन्य छोटे –छोटे क्षेत्रीय दलों के साथ बातचीत भी भाजपा ने ही की और उन्हें सीटों का आवंटन भी इसी पार्टी ने किया। इस आवंटन में स्व. रामविलास पासवान के सुपुत्र चिराग पासवान ने बाजी मारी और 29 सीटे कब्जा लीं जबकि जीतन राम मांझी की पार्टी हम को व उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी रालपा को पांच- पांच सीटें ही मिलीं। अतः त्यागी जी को इस बात पर कोई शंका नहीं होनी चाहिए कि नीतीश बाबू की हैसियत अब वह नहीं है जो पहले हुआ करती थी। जहां तक बिहार की जनता का सवाल है तो वह उसे कोई भी पार्टी झांसे में नहीं रख सकती है। उसके राजनीतिक चातुर्य पर किसी भी पार्टी के किसी भी नेता को किसी प्रकार का सन्देह नहीं होना चाहिए। बेशक जातिवाद बिहार की सच्चाई है मगर जब बात जनता से जुड़े मुद्दों की आती है तो वह जातिवाद को भी ताक पर रख देती है। एसा हमने 2010 के विधानसभा चुनावों में देखा था। इन चुनावों मे बिहारी जनता ने नीतीश बाबू को पारितोषक दिया था और उनकी पार्टी जद(यू) को 115 सीटें दी थीं। इसकी वजह कुछ और नहीं बल्कि यह थी कि 2005 से लेकर 2010 तक जनता को नीतीश राज में सुकून मिला था और राज्य में बुनियादी विकास के साथ–साथ कानून–व्यवस्था की स्थिति भी सुधरी थी। लोगों ने ही नीतीश बाबू को तब सुशासन बाबू का नाम दिया था। मगर आज हालात पूरी बदले हुए हैं । बिहार की युवा पीढ़ी बदलाव के पक्ष में मानी जा रही है क्योंकि बिहार में बेरोजगारी का आलम बयांन के काबिल नहीं है और कानून व्यवस्था पर भी नीतीश बाबू की पकड़ वह नहीं है जो पहले हुआ करती थी। इसके बावजूद पिछले साल के लोकसभा चुनावों में राजग को 40 सीटों में से 30 सीटें मिली थी और इंडिया गठबन्धन को दस सीटे ही मिल पाई थीं (एक निर्दलीय पप्पू यादव की सीट को मिला कर)। इसकी वजह यह थी कि ये राष्ट्रीय चुनाव थे और बिहार की जनता में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की छवि एक लोकप्रिय नेता की थी। भाजपा वर्तमान विधानसभा चुनावों में भी श्री मोदी की लोकप्रियता पर ही खेल रही है और उम्मीद कर रही है कि उसे लोकसभा चुनावों जैसी ही सफलता मिलेगी। परन्तु ये विधानसभा चुनाव हैं जिनमंे राजनीतिक गणित पूरी तरह बदला हुआ लग रहा है। लोकसभा चुनावों में भाजपा को 68 विधानसभाई क्षेत्रों में बढत मिली थी जबकि जद(यू) को 72 सीटों पर बढ़त प्राप्त थी। राजगगठबन्धन के अन्य छोटे दलों में सबसे अच्छी स्थिति स्व. पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी की थी जिसे 29 क्षेत्रों में बढ़त प्राप्त हुई थी। जबकि हम ( स) को पांच व उपेन्द्र कुशवाह की पार्टी किसी भी सीट पर बढ़त नहीं ले सकी थी। अतः लोकजनशक्ति पार्टी को वर्तमान विधानसभा चुनावों में इतनी ही सीटें भाजपा ने आवंटित कर दी हैं। दूसरी तरफ इंडिया गठबन्धन का लेखा- जोखा करें तो लोकसभा चुनावों में राजद को 36, कांग्रेस को 12 व वामपंथी दलों को 12 भाकपा को एक, मुकेश सहनी की पार्टी विकासशील इंसान को केवल एक तथा निर्दलीयों को पांच व ओवेसी की पार्टी इत्तेहादे मुसलमीन को दो सीटों पर बढ़त हांसिल हुई थी। इस प्रकार राजग को कुल 174 सीटों पर व इंडिया गठबन्धन को मात्र 62 सीटों पर बढ़त मिली थी जबकि सात सीटें अन्य के खाते मे गई थीं। मगर इन आंकड़ों को देख कर राजग या भाजपा खुशी से फूल कर छत पर चढ़ कर ढोल नहीं बजा ससकते हैं क्योंकि यह बिहार है और यहां के मतदाता राष्ट्रीय व क्षेत्रीय मुद्दों के गहन विश्लेषक हैं ।
तेजस्वी यादव ने बेरोजगारी के मुद्दे को जिस अन्दाज से उठाया है उससे यह विमर्श यदि कहीं चुनावी सागर में तैर गया तो बिहार के चुनावों के परिणाम निश्चित रूप से लोकसभा चुनाव परिणामों से बहुत अलग होंगे और यदि भाजपा का नारी आर्थिक सशक्तीकरण का विमर्श तैर गया तो यह राजग की वापसी का एेलान होगा। इसलिए देखने वाली बात यह होगी किस गठबन्धन के विमर्श को लोग स्वीकार करके विरोधी गठबन्धन की जिम्मेदारी तय करते हैं। इस खेल मंे जो भी गठबन्धन बचाव की मुद्रा में आ गया उसका ही पलड़ा हल्का हो जायेगा।

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