परमाणु समझौते का सुफल
भारत-अमेरिका के बीच 2008 में हुए 1-2-3 परमाणु करार का सुफल अब मिलना शुरू…
भारत-अमेरिका के बीच 2008 में हुए 1-2-3 परमाणु करार का सुफल अब मिलना शुरू हुआ है। इस समझौते के तहत अमेरिका ने भारत को एक वैध परमाणु शक्ति सम्पन्न देश मानकर शान्ति पूर्ण कार्यों के लिए आपसी परमाणु सहयोग करना स्वीकार किया था। इसके तहत भारत व अमेरिका आपसी परमाणु व्यापार करने के लिए स्वतन्त्र हो गये थे। इससे भारत में परमाणु ऊर्जा उत्पादन करना सरल हो गया था। समझौता उस समय की मनमोहन सिंह सरकार के शासन के दौरान किया गया था जिसकी बागडोर विदेश मन्त्री के रूप में भारत रत्न स्व. प्रणव मुखर्जी के हाथ में थी। यह एक एेसा एेतिहासिक समझौता था जिसके होने से भारत की भावी पीढि़यों का भविष्य भी सुरक्षित हुआ था क्योंकि भारत की परमाणु सम्पन्नता को पूरे विश्व ने स्वीकार किया था। इससे भारत व अमेरिका के बीच आधुनिकतम टैक्नोलॉजी स्थानान्तरण का रास्ता खुला था। इस समझौते के बाद भारत दुनिया के पांच परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों के साथ छठा देश बन गया था। भारत ने यह समझौता अपनी शर्तों पर किया था और भविष्य में परमाणु परीक्षण करने का अधिकार भी अपने पास रखा था। परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में विभिन्न देशों के साथ द्विपक्षीय कारोबार करने का रास्ता भी भारत के लिए इस समझौते के बाद खुला था।
परमाणु ऊर्जा कारोबार बहुत ही संवेदनशील मामला समझा जाता है जो कि केवल वैध रूप से परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों के साथ ही हो सकता है। अतः भारत व अमेरिका के बीच जो समझौता 2008 में हुआ उसे क्रियान्वित करते समय भारत ने अपनी तरफ से एेसे कानून बनाये जिनसे किसी भी प्रकार के जोखिम की भरपाई ऊर्जा उत्पादन करने वाली कम्पनियों द्वारा की जा सके। 2010 में सरकार ने यह कानून बनाया कि किसी दुर्घटना के घटने पर उत्पादनलीन कम्पनी से मुआवजा लिया जा सके। यहां यह भी बहुत महत्वपूर्ण है कि भारत के साथ परमाणु करार करते समय अमेरिका को अपने संविधान में संशोधन करना पड़ा था। भारत की दृष्टि से यह समझौता इतना महत्वपूर्ण था कि जुलाई 2008 में तत्कालीन मनमोहन सरकार ने इसकी इजाजत लोकसभा का एक विशेष दो दिवसीय सत्र बुलाकर ली थी। इस संक्षिप्त सत्र में मनमोहन सरकार ने अपनी तरफ से विश्वास मत लिया था। हालांकि एेसा करना संविधानतः जरूरी नहीं था क्योंकि यह दो देशों के बीच एक समझौता मात्र ही था मगर यह समझौता भारत की विदेश नीति की दिशा बदलने वाला था जिसमें अमेरिका के साथ परमाणु सहयोग करने का रास्ता खुलता था। अब इस समझौते के क्रियान्वयन के लिए अमेरिका के ऊर्जा विभाग ने अपने देश की एक निजी कम्पनी होल्टेक इंटरनेशनल को भारत में निजी क्षेत्र की कम्पनियों के साथ मिलकर कम क्षमता के न्यूक्लियर रियेक्टर उत्पादित करने की इजाजत कुछ शर्तों के साथ दे दी है। इसके तहत होल्टेक कम्पनी भारत की तीन निजी क्षेत्र की कम्पनियों के साथ सहयोग करके कम क्षमता के परमाणु रियेक्टर बनाने की टैक्नोलॉजी साझा करेगी।
भारत की जो तीन कम्पनियां हैं उनके नाम टाटा कंसलटेंसी इंजीनियर्स लि., लार्सन एंड टुब्रो व होल्टेक एशिया हैं। होल्टेक एशिया अमेरिकी कम्पनी होल्टेक इंटरनेशनल की ही क्षेत्रीय सहायक कम्पनी है। यह कम्पनी भारतीय मूल के अमेरिकी उद्योगपति श्री क्रिस पी. सिंह की है। इसकी भारतीय सहायक कम्पनी होल्टेक एशिया 2010 से भारत के पुणे शहर में कार्यरत है। होल्टेक इंटरनेशनल ने मूलरूप से भारत की सरकारी क्षेत्र की तीन कम्पनियों परमाणु ऊर्जा निगम लि., थर्मल यूटिलिटी एनटीपीसी लि. व एटोमिक एनर्जी रिव्यू बोर्ड के साथ साझा उपक्रम स्थापित करने की इजाजत चाही थी। मगर भारत सरकार ने इसके लिए राष्ट्र हित को देखते हुए फिलहाल इजाजत नहीं दी है और भविष्य में इसका रास्ता भी बन्द नहीं किया है। होल्टेक इंटरनेशनल को तीन निजी क्षेत्र की कम्पनियों के साथ कारोबार करने की इजाजत अगले दस वर्षों के लिए दी गई है जिसकी पांच साल बाद समीक्षा की जायेगी। इन तीनों कम्पनियों को यह सहमति भारत सरकार ने दी है कि वे होल्टेक कम्पनी द्वारा स्थानान्तित टैक्नोलॉजी व जानकारी का उपयोग करेंगी मगर यह सहयोग केवल शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए ही होगा। इन कम्पनियों को अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के नियामकों के अन्तर्गत ही काम करना होगा। अत: परमाणु ऊर्जा टैक्नोलॉजी का स्थानान्तरण किसी भी प्रकार के एेसे परमाणु शस्त्रों के निर्माण के लिए नहीं होगा जिनका उपयोग सेनाएं कर सकें। इससे साफ होता है कि भारत की नीयत केवल शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए ही परमाणु ऊर्जा का प्रयोग करने की है।
भारत 1974 व 1998 में दो परमाणु परीक्षण कर चुका है और यह सिद्ध कर चुका है कि उसका लक्ष्य कभी भी परमाणु ऊर्जा के विध्वंसकारी उपयोग का नहीं रहा। वह हमेशा इस बात का समर्थक रहा कि इस ऊर्जा का उपयोग केवल शान्तिपूर्ण उद्देशाें के लिए ही मानवता की सेवा में किया जाये। अतः निजी क्षेत्र में अमेरिकी कम्पनियों के साथ जो भी साझा उद्यम स्थापित होंगे वे केवल परमाणु ऊर्जा का उत्पादन करके भारत की बिजली उत्पादन क्षमता को बढ़ायेंगे और सबसे महत्वपूर्ण यह है कि किसी प्रकार की परमाणु दुर्घटना होने पर पीड़ितों को मुआवजा देने की जिम्मेदारी संयन्त्र को उपकरण सप्लाई करने वाली कम्पनी पर होगी। भारत अमेरिका से 18 साल पहले हुए समझौते के बाद पहली बार निजी क्षेत्र में परमाणु रियेक्टर उत्पादित करने के संयन्त्र स्थापित करेगा जिससे इसकी ऊर्जा क्षमता में गुणात्मक वृद्धि होगी। 2008 में जब 1-2-3 परमाणु करार किया जा रहा था तो विभिन्न प्रकार की आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं और अमेरिका की ओर से परमाणु दुर्घटना जिम्मेदारी कानून बनाने की मांग की जा रही थी जिसे 2010 में ही भारत की सरकार ने बना दिया था लेकिन इस पर अमल अब 15 साल बाद हो रहा है। इससे अमेरिका की ट्रम्प सरकार की नीति का भी पता चलता है और भारत की सदाशयता का भी।