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मृत्यु पथ बनते जीवन पथ

सड़कें लोगों का जीवन पथ होती हैं लेकिन जीवन पथ आजकल मृत्यु पथ में…

11:22 AM Apr 10, 2025 IST | Aakash Chopra

सड़कें लोगों का जीवन पथ होती हैं लेकिन जीवन पथ आजकल मृत्यु पथ में…

मृत्यु पथ बनते जीवन पथ

सड़कें लोगों का जीवन पथ होती हैं लेकिन जीवन पथ आजकल मृत्यु पथ में बदलते जा रहे हैं। तीन दिन पहले जयपुर के एक भीड़ भरे बाजार में नशे में सवार एक फैक्टरी मालिक ने 9 लोगों को रौंद दिया, जिनमें से 3 की मृत्यु हो गई और 6 घायल हो गए। राजधानी दिल्ली के ओल्ड राजेन्द्र नगर में तेज रफ्तार बीएमडब्ल्यू कार ने 6 लोगों को अपनी चपेट में लिया, जिसमें 2 छात्रों की हालत गम्भीर है। यह सभी छात्र यूपीएससी की तैयारियां कर रहे हैं। महानगरों और बड़े शहरों में ऐसे हादसे आए दिन होते रहते हैं।

सड़क दुर्घटनाओं में असामयिक मौतों के परिणामस्वरूप न केवल व्यक्तियों का जीवन समाप्त हो जाता है, बल्कि यह समाज और देश की आर्थिक स्थिति पर भी गहरा असर डालता है। असामयिक ही व्यक्ति का जीवन उस उम्र में समाप्त हो जाता है जब वह परिवार का मुख्य आर्थिककर्ता होता है। इस प्रकार की मौतें परिवारों के लिए अत्यधिक मानसिक और आर्थिक नुक्सान का कारण बनती हैं। अर्थशास्त्रियों के अनुसार सड़क दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों और दुर्घटनाओं के कारण होने वाले नुक्सान का मूल्य बहुत बड़ा होता है।

यह सिर्फ मानव जीवन का नुक्सान नहीं होता, बल्कि यह स्वास्थ्य देखभाल, उपचार और बचाव कार्यों पर होने वाले खर्चों में भी वृद्धि करता है। इसके अलावा, दुर्घटनाओं के कारण यातायात में होने वाली देरी, व्यापारिक नुक्सान और उत्पादकता में कमी जैसे आर्थिक नुक्सानों का भी सामना करना पड़ता है। हालांकि, भारत सरकार और राज्य सरकारों की ओर से इन हादसों पर नियंत्रण के लिए कई स्तरों पर प्रयास किए जा रहे हैं। सन् 2001 से पूरे जनवरी के महीने में सड़क सुरक्षा माह भी मनाया जा रहा है लेकिन ये हादसे हैं कि घटने के बजाय बढ़ते जा रहे हैं। देश में हर घंटे 53 सड़क दुर्घटनाएं हो रही हैं और हर चार मिनट में एक मौत होती है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार पिछले एक दशक में भारतीय सड़कों पर 13 लाख लोगों की मौतें हुई हैं और इनके अलावा 50 लाख लोग घायल हुए हैं।

भारत में सड़क दुर्घटनाओं का बढ़ता हुआ आंकड़ा विश्व स्तर पर चिंता का कारण बना हुआ है। राष्ट्रीय सड़क सुरक्षा नीति के बावजूद भारत में सड़क दुर्घटनाओं की संख्या और इनसे होने वाली मौतों में कोई कमी नहीं आई है। वर्ष 2022 में सड़क दुर्घटनाओं के आंकड़े काफी डरावने थे। रिपोर्ट के अनुसार, 4,46,768 सड़क दुर्घटनाओं में 4,23,158 लोग घायल हुए और 1,71,100 लोग अपनी जान गंवा बैठे। बीते कुछ सालों में भारत में ‘रोडरेज’ की घटनाएं बढ़ी हैं। केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने मार्च 2022 में संसद के समक्ष इससे जुड़े आंकड़े पेश किए थे। उनके मुताबिक, साल 2019 में देश में ‘रोडरेज’ और लापरवाही से गाड़ी चलाने के डेढ़ लाख से ज्यादा मामले सामने आए थे। 2020 में इनकी संख्या बढ़कर एक लाख 83 हजार पर पहुंच गई। साल 2021 में इन मामलों की संख्या और ज्यादा बढ़कर दो लाख 15 हजार पर हो गई।

कई बार तो ट्रैफिक पुलिसकर्मी खुद भी ‘रोडरेज’ के शिकार हो जाते हैं। पिछले साल मुंबई में एक ड्राइवर ने जब लाल बत्ती होने पर भी अपनी गाड़ी नहीं रोकी तो वहां मौजूद एक ट्रैफिक कॉन्स्टेबल ने उसे रुकने का इशारा किया। आरोपी ड्राइवर ने गाड़ी रोकने की जगह रफ्तार और बढ़ा दी। गाड़ी के सामने खड़ा कॉन्स्टेबल बोनट पर गिर गया। फिर भी ड्राइवर 2किलोमीटर तक गाड़ी को दौड़ाता रहा। इस दौरान कॉन्स्टेबल ने गाड़ी की विंडशील्ड को मजबूती से पकड़कर अपनी जान बचाई। आसान भाषा में रोडरेज को समझें तो इसका अर्थ सड़क पर हुई छोटी-बड़ी घटनाओं के कारण आने वाले गुस्से, रोष या आक्रोश से है। कभी-कभी यह गुस्सा किसी शख्स पर इस कदर हावी हो जाता है कि वह यह फिक्र भी नहीं करता कि वह सड़क पर चल रहे दूसरे लोगों को कितना और किस हद तक नुक्सान पहुंचा रहा है। रोडरेज की वारदात में कई बार लोगों की जान तक चली जाती है। सड़क दुर्घटनाओं में नशे में और लापरवाही पूर्वक ड्राइविंग एक महत्वपूर्ण जोखिम और कारक के रूप में पहचाना गया है। ध्यान भटकाने वाली लापरवाही पूर्वक ड्राइविंग में मोबाइल फोन का उपयोग, खाना-पीना, सह-यात्रियों के साथ बातचीत, मैसेज पढ़ना, वीडियो देखना, रेडियो या संगीत प्लेयर को चलाना और यहां तक कि गंतव्य स्थानों को नेविगेट करने के लिए जीपीएस सिस्टम का उपयोग करना जैसी गतिविधियां शामिल हो सकती हैं। यद्यपि लापरवाही पूर्वक ड्राइविंग को रोकने और दंडित करने के लिए कानून मौजूद हैं, सड़क पर चलने वाले सभी लोगों को चोटों और मौतों के मामले में इन कानूनों की ताकत को समझना बहुत महत्वपूर्ण है।

हमारे देश में अभिभावक भी अपने नाबालिग बच्चों को महंगी कारें चलाने के लिए दे देते हैं। विदेशों में ड्राइविंग लाइसेंस लेने इतने कठिन हैं कि युवाओं चार-चार बार टैस्ट देने पड़ते हैं। भारत के युवा आज तक ड्राइविंग सेंस नहीं सीख पाए। स्कूलों की छुट्टी के बाद का नजारा ​देखिये कि हर बच्चा स्कूटी लेकर ऐसे दौड़ाता है जैसे वह हवा में उड़ रहा है। बेहतर यही होगा कि स्कूली बच्चों को ड्राइविंग सेंस सिखाई जाए ताकि युवा होते-होते वह अपनी जिम्मेदारी समझें। अभिभावकों को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। सड़क कानूनों का पालन करने के लिए सख्ती भी जरूरी है। अन्यथा लोग सड़कों पर मरते रहेंगे। सड़कों पर इतनी मौतें हो रही हैं उतनी तो आतंकवाद और युद्ध के चलते भी नहीं होती हैं।

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Aakash Chopra

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