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किसान की उपज की कीमत ?

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09:08 AM Sep 15, 2018 IST | Desk Team

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केन्द्र की मोदी सरकार ने किसानों को उनकी उपज की लागत से डेढ़ गुना मूल्य देने की जो नई योजना खरीफ की फसल से देने की घोषणा की है उसमें प्रणालीगत सुधार की जरूरत है ताकि किसानों को अपनी फसल बेचने के लिए निजी आढ़तियों के पैर पकड़ने को मजबूर न होना पड़े। नई प्रधानमन्त्री अन्नदाता आय संगक्षण अभियान के तहत पहले से ही चालू दो अन्य फसल खरीद स्कीमों को भी मिला दिया गया है। इनमें पहली तो चालू वह स्कीम है जिसमें केन्द्रीय एजेंसियां (नेफेड) आदि किसानों की उपज समर्थन मूल्य पर खरीदती हैं। दूसरी वह स्कीम है जिसमें राज्य सरकारें फसल की खरीद चिन्हित केंद्रों पर करके किसानों को समर्थन मूल्य व खरीद मूल्य के अंतर का भुगतान करती हैं। तीसरी नई स्कीम यह है कि जिसमें सरकार निजी आढ़तियों को भी समर्थन मूल्य पर खरीद करने के लिए प्राधिकृत करेगी और ये निजी स्टाकिस्ट या आढ़ती किसान की उपज का भुगतान समर्थन मूल्य पर करके बाद में उसकी वसूली रखरखाव या भंडारण पर हुए खर्च को मिला कर उसे सरकार से वसूलेंगे।

मूल्यांतर स्कीम मध्यप्रदेश में जिस तरीके से लागू की गई उसने किसानों का तो दम तोड़ दिया मगर ​िबचौलिये व्यापारियों की चांदी कर डाली। इस स्कीम में इस कदर भ्रष्टाचार का बोल-बाला हुआ कि मध्यप्रदेश में किसानों की आत्महत्याएं सामान्य घटना हो गईं। इसकी मुख्य वजह रही कि मूल्यांतर का लाभ पाने के लिए किसानों को व्यापारियों की बेजा शर्तों को स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा वरना उन्हें अपनी फसल औने–पौने दामों पर ही बेच कर प्राप्त रोकड़ा से सन्तोष करना पड़ा। सामान्य छोटा किसान जब फसल बाजार में ले जाता है तो वह जेब से पूरी तरह खाली होता है और उसे रकम की जरूरत होती है जिसका लाभ व्यापारी जम कर उठाते हैं और उसकी खून-पसीने की कमाई पर ऐश करने का जुगाड़ बिठाते हैं। दूसरी तरफ केन्द्र की खरीद एजेंसी नेफेड की भंडारण क्षमता इतनी नहीं है कि वह देश भर के किसानों की उपज की खरीद किसी भी फसल में पूरी की पूरी कर सके।

नेफेड के पास पिछली खरीफ फसल की खरीदी गई दालें आदि अभी तक उसके भंडारों में पड़ी हुई हैं। लगभग 65 लाख टन दलहन व तिलहन की खरीद नेफेड ने पिछले वर्ष की थी। इसका उठान अभी तक पूरा नहीं हुआ है जबकि ताजा खरीफ की फसल की उपज बाजारों व मंडियों में आने लगी है और इसका भाव समर्थन मूल्य से कम पर चल रहा है। अगले महीने इस फसल की उपज का पूरा जोर इस तरह होगा कि दलहन व तिलहन के अलावा मोटा अनाज जैसे बाजरा और मक्का भी मंडियों में आ जाएंगे। दरअसल बाजार में जब किसान अपनी फसल लेकर जाता है तब बाजार के मांग व सप्लाई के नियम का कोई अर्थ नहीं रहता क्योंकि सप्लाई का रास्ता ही खुला रहता है और मांग पूरे साल भर चलती है। जिसकी वजह से सरकार ने उसकी उपज का डेढ़ गुना दाम देने की नीति को चालू खरीफ फसल से लागू करने का फैसला किया परन्तु देश में भंडारण क्षमता बढ़ती कृषि उपज के मुकाबले 35 प्रतिशत के करीब ही है जिसकी वजह से किसानों की उपज मंडियों में ही पड़ी रहने के बाद ठिकाने लग पाती है और इस स्थिति का लाभ उठाने से व्यापारी वर्ग नहीं चूकता है।

बेशक इसी व्यापारी वर्ग को सरकार ने अपनी स्कीम में भागीदार बनाने का रास्ता निकाला है मगर उसके भुगतान की गारंटी भी व्यापारी वर्ग पर ही छोड़ दी है। बेहतर होता कि इस खरीद स्कीम को हम बैंकिंग व्यवस्था से जोड़ पाते और निजी आढ़ती या व्यापारी की ‘क्रेडिट लाइन’ को जवाबदेह बनाते। इसके साथ ही दलहन व अनाज के व्यापार पर लगे हुए राज्य मूलक प्रतिबन्धों की समीक्षा करके राज्य सरकारों की इस प्रकार न्यूनतम जिम्मेदारी तय करते कि किसी भी राज्य में आवश्यक खाद्य वस्तुओं की कमी न होने पाए। किसान की उपज के लिए करीब की मंडी के अलावा अन्य किसी भी मंडी में जाना संभव नहीं हो पाता है इसी वजह से सरकार सुनिश्चित खरीद केंद्रों का चयन करके उसे सुविधा प्रदान करती है किन्तु भंडारण क्षेत्र में जिस तरह निजी निवेश को खोलने की नीति तैयार की थी वह जमीन पर उतने का नाम ही नहीं ले रही है जबकि पिछली मनमोहन सरकार में वित्त मंत्री के रूप में पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने 2011-12 के बजट में निजी भंडार गृह स्थापित करने के लिए विशेष छूट देने का एेलान भी किया था। इससे कृषि क्षेत्र की खस्ता हालत का अन्दाजा लगाया जा सकता है क्यों​िक जब तक इस क्षेत्र में पूंजी निर्माण ( केपिटल फार्मेशन) नहीं होता है तब कर भारत की विकास गाथा अधूरी ही रहेगी। हमने खुदरा व्यापार में शत–प्रतिशत विदेशी निवेश की इजाजत तक दे डाली मगर नतीजा कुछ नहीं निकला। उलटे हमारा आयात बिल ही बढ़ गया।

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