मतदाता की महत्ता का प्रश्न
भारत में नागरिकों को जो अधिकार दिये गये हैं उनमें मौलिक या मूलभूत अधिकारों के अलावा संवैधानिक अधिकार भी शामिल हैं। संवैधानिक अधिकारों में सम्पत्ति का अधिकार और वोट देने का अधिकार सबसे अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी अधिकार का प्रयोग करके भारत का मतदाता सत्ता में सीधे अपनी भागीदारी अपने द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों की मार्फत करता है। भारत के लोकतन्त्र का मूलाधार यही वोट का अधिकार है। हकीकत यह है कि इस वोट के अधिकार की बात आजादी के आन्दोलन के दौरान ही जमकर होने लगी थी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी चाहते थे कि भारत के प्रत्येक वयस्क मतदाता को वोट देने का अधिकार बिना किसी भेदभाव के दिया जाये। 1931 में कराची में हुए कांग्रेस पार्टी के अधिवेशन में नागरिकों को मौलिक अधिकार देने का प्रस्ताव पारित हुआ। मगर इससे भी पहले 1928 में श्री मोती लाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने भारत का संविधान लिखने के लिए एक समिति बनाई। इस समिति में भारत के सभी वर्गों व व्यवसायों के प्रतिनिधियों को भी शामिल करने का निर्णय किया गया मगर जिन्ना की मुस्लिम लीग ने इसका विरोध किया। इस समिति में पं. जवाहर लाल नेहरू व नेताजी सुभाष चन्द्र बोस भी शामिल थे।
समिति ने अपनी जो रिपोर्ट तैयार की उसमें देश के सभी वर्गों, जातियों, व्यवसायियों व सम्प्रदायों के वयस्कों को एक वोट का अधिकार देने की सिफारिश की गई। इससे पहले अंग्रेजों ने केवल चुनीन्दा लोगों को ही वोट देने का अधिकार दिया हुआ था। इसमें उच्च शिक्षित व जमींदार तबके के लोग ही शामिल थे। यह वोट प्रतिशत दो से तीन प्रतिशत के करीब ही था जिसे 1935 में बढ़ा कर 11 प्रतिशत के करीब किया गया था। मगर मोती लाल समिति ने सर्वसम्मति से इसे 100 प्रतिशत वयस्क आधार पर देने की सिफारिश की। वास्तव में इस समिति ने भारत के संविधान का मोटा प्रारूप तैयार कर लिया था। इसमें केन्द्र व राज्यों के सम्बन्ध व भाषा जैसे विषय भी शामिल थे। केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के अधिकार भी इस समिति ने तय कर दिये थे। 1931 में कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता सरदार वल्लभ भाई पटेल ने की थी और उन्हीं की अध्यक्षता में नागरिकों को मौलिक अधिकार देने का प्रस्ताव पारित किया था। भारत को पूर्ण स्वतन्त्रता देने के प्रस्ताव के साथ ही नागरिकों को सत्ता के विरुद्ध मौलिक अधिकार देने का वचन इस अधिवेशन में दिया गया था। मगर मुसलमानों के लिए विशेष प्रावधान यह किया गया था कि उनके घरेलू मामलों के नियमों में सत्ता किसी प्रकार का दखल नहीं देगी। इसकी वजह यह थी कि 1930 में इलाहाबाद में मुस्लिम लीग का अधिवेशन हुआ था जिसमें मुसलमानों के लिए अलग से राज्य बनाने की मांग की गई थी।
इस लीग अधिवेशन की सदारत प्रख्यात शायर अल्लामा इकबाल ने की थी। उनकी सदारत में ही लीग ने मुसलमानों के लिए पृथक राज्य या देश बनाने की मांग की थी। कांग्रेस को तब मुहम्मद अली जिन्ना हिन्दू पार्टी बताता था और मौलाना अब्दुल कलाम आजाद को इसका पिट्ठू या दिखावे का व्यक्ति (शो ब्वाय) बताता था। अतः कांग्रेस ने मुसलमानों की राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए विशेष छूट दी थी। परन्तु धर्म के आधार पर ही जब हिन्दुस्तान दो टुकड़ों में बंट गया तो उन्हें दी गई विशेष छूट को तुष्टीकरण कहा गया। उस समय तक संविधान बनाने की प्रक्रिया बाबा साहेब अम्बेडकर के नेतृत्व में चल रही थी। अतः बाबा साहेब ने संविधान लिखते हुए मोती लाल नेहरू समिति की सिफारिशों को केन्द्र में रखा और स्वतन्त्र भारत में प्रत्येक जाति धर्म के लोगों को एक वोट का अधिकार दिया। मोती लाल नेहरू समिति ने इसकी अनुशंसा अपनी रिपोर्ट में पहले ही कर दी थी। यह इतिहास लिखने की जरूरत इस लिए पड़ी जिससे देश की नई पीढ़ी के लोग यह जान सकें कि उन्हें मिला एक वोट का अधिकार कितने संघर्षों व प्रक्रियाओं के गुजरने के बाद मिला है। अतः चुनाव आयोग बिहार में यदि 65 लाख लोगों के नाम मतदाता सूची से बाहर कर देता है तो उसके परिणाम क्या होंगे। सर्वोच्च न्यायालय में बिहार में हो रहे सघन मतदाता पुनरीक्षण का मामला चल रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया है कि वह इतनी बड़ी संख्या में काटे गये मतदाताओं के नामों की वजह बताये तथा जिन मतदाताओं के नाम काटे गये हैं उनके नामों की सूची जारी करे और उन्हें अच्छी तरह प्रचारित व प्रसारित करे। प्रत्येक ब्लाक (प्रखंड) स्तर पर लोगों को यह पता होना चाहिए कि किसका नाम किस वजह से काटा गया है।
चुनाव आयोग के अनुसार 2003 से लेकर अब तक लगभग 22 लाख मतदाता मर चुके हैं जिन्हें लेकर भारी विवाद हो रहा है। आयोग द्वारा घोषित मृत लोगों में से कुछ जीवित पाये जा रहे हैं। इसी प्रकार आयोग ने कहा है कि 30 लाख से ऊपर मतदाता बिहार छोड़ कर अन्यत्र जा चुके हैं और वहीं बस गये हैं। पहले चुनाव आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय में ही यह कहा था कि काटे गये मतदाता नामों की वजह बताना उसके लिए जरूरी नहीं है। इसे सर्वोच्च न्यायालय ने अनुचित मानते हुए ही नये आदेश जारी किये। जाहिर है कि चुनाव आयोग ऊंची मसनद पर बैठकर इस प्रकार की दलील नहीं दे सकता क्योंकि उसका मुख्य कार्य मतदाताओं को जोड़ने का है। बेशक बिहार में कुछ लोग एेसे जरूर होंगे जिनकी पिछले 28-30 सालों में मृत्यु हो चुकी होगी और लाखों लोग अन्य राज्यों को पलायन भी कर गये होंगे मगर उनके नाम की सूची न जारी करने का आयोग का फैसला पूरी तरह इकतरफा व मनमाना था जबकि चुनाव आयोग ही भारत के मतदाताओं का संरक्षक है और त्रुटिहीन मतदाता सूची बनाना उसका परम कर्त्तव्य है। अतः सर्वोच्च न्यायालय ने सूची प्रकाशन का आदेश जारी कर भारत के लोकतन्त्र को मजबूत किया है और इसमें आम आदमी की भागीदारी को प्रथम कर्त्तव्य माना है।