Top NewsIndiaWorldOther StatesBusiness
Sports | CricketOther Games
Bollywood KesariHoroscopeHealth & LifestyleViral NewsTech & AutoGadgetsvastu-tipsExplainer
Advertisement

राज्यों के चुनावों के असली मुद्दे

NULL

08:39 AM Sep 12, 2018 IST | Desk Team

NULL

जिन पांच राज्यों में अगले वर्ष लोकसभा चुनाव से पहले विधानसभा चुनाव होने हैं उनकी राजनीति​क स्थिति पूरी तरह अलग-अलग होने के बावजूद महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इनमें से केवल उत्तर पूर्वी क्षेत्र के राज्य मिजोरम में ही प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस की सरकार है, शेष राज्यों में से किसी भी राज्य में विपक्षी दलों खासकर कांग्रेस की सरकार नहीं है बेशक तेलंगाना में क्षेत्रीय पार्टी तेलंगाना राष्ट्रीय समिति की सरकार ही थी मगर यह पार्टी भी देश की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की मुखर विरोधी पार्टी नहीं कही जा सकती क्योंकि यह केन्द्र में मोदी सरकार का समर्थन करने से भी पीछे नहीं रही है। चार राज्यों मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश व मिजोरम में असली लड़ाई कांग्रेस व भाजपा के बीच रहने की उम्मीद है हालांकि छत्तीसगढ़ में पूर्व मुख्यमन्त्री श्री अजीत जोगी अपनी पृथक पार्टी बनाकर चुनाव लड़ रहे हैं मगर उनकी पत्नी अभी भी कांग्रेस में हैं और वह इसी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ने की घोषणा भी कर चुकी हैं। उत्तर भारत के तीनों राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं। इनमें सबसे रोचक लड़ाई जहां मध्यप्रदेश में होनी है वहीं राजस्थान व छत्तीसगढ़ में भी मुकाबला कम रुचिकर नहीं रहेगा।

इन तीनों में छत्तीसगढ़ की स्थिति इसके आदिवासी बहुल होने की वजह से विशेष हो जाती है मगर इस राज्य के सृजन होने से अब तक 18 वर्ष गुजर जाने के बाद यहां के लोगों को वे अधिकार प्राप्त नहीं हो सके हैं जिनके लिए इसका निर्माण किया गया था। इस राज्य की अमीर धरती के लोग आज भी अपनी उसी पुरानी गरीब स्थिति में हैं जिसमें वे नया राज्य बनने से पहले थे बल्कि इतना जरूर हुआ है कि उनकी खनिज सम्पदा से भरपूर धरती का कार्पोरेट कम्पनियों ने जमकर दोहन किया है और आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन के अधिकार को मात्र दिखावा बनाए रखा है। इस राज्य में किसानों के साथ जिस तरह आधार कार्ड के मुद्दे पर मजाक हो रहा है वह भी विचारणीय विषय है और सभी राजनीतिक दलों को सचेत करता है कि उनकी सजावटी गरीबोन्मुख नीतियां अब दम तोड़ने के मुकाम पर पहुंच चुकी हैं। राज्य का संभ्रान्त व कुलीन समझा जाने वाला नेतृत्व जिस प्रकार से इस राज्य की राजनीति पर नियन्त्रण किए हुए है उसके चलते यहां आदिवासी नेतृत्व उभर ही नहीं सका है। इसकी वजह राजनीति में धन का बढ़ता प्रभाव प्रमुख रहा है। अतःस्वाभाविक है कि इस राज्य में होने वाले चुनावों में आदिवासी अस्मिता का मुद्दा प्रमुख रहना चाहिए।

इससे लगते मध्यप्रदेश की राजनीति के तेवर पूरी तरह दूसरे हैं मगर इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहां की राजनीति में जातिवाद कभी भी मुखर होकर प्रभावी नहीं रहा और यहां के लोगों ने पार्टीगत आधार पर उनकी नीतियों के मुताबिक मतदान करना हमेशा ही श्रेयस्कर समझा है। बेशक इस राज्य में पूर्व राजे-रजवाड़ों का प्रभाव रहा है। इसी वजह से यह राज्य अभी भी कमोबेश अर्द्ध सामन्ती मानसिकता के सामाजिक परिवेश में बन्धा हुआ माना जाता है मगर अब ये बन्धन टूटते से लग रहे हैं क्योंकि राज्य का युवा वर्ग पुरानी लकीर से हट कर अपना नया सपना संजोना चाहता है। इस राज्य में लगातार बन्द होते कल-कारखाने और बढ़ती बेरोजगारी मुख्य चुनावी मुद्दा हो सकते हैं, इसके साथ ही किसानों की फसल की सही कीमत पर बिचौलियों की मुनाफाखोरी राजनीतिक तूफान खड़ा कर सकती है। वाणिज्यिक गतिविधियों के क्षेत्र में यह राज्य पिछड़ा हुआ ही कहा जा सकता है क्योंकि यह किसी भी क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने में असफल रहा है।

राजस्थान राज्य एेसा है जो हर मामले में मध्यप्रदेश से भी पिछड़ा हुआ कहा जा सकता है मगर दोनों में एक गजब की समानता यह है कि दोनों में ही धार्मिक मामलों के लिए मन्त्रालय गठित कर दिये गए हैं। 12वीं सदी के वैज्ञानिक दौर में यह पीछे की तरफ दौड़ने का भी संकेत कहा जा सकता है क्योंकि धर्म एेसा क्षेत्र नहीं है जिसमें भारत के किसी भी राज्य की सरकार का वाजिब तौर पर दखल संभव हो सके। भारत के संविधान में धर्म पूरी तरह निजी मामला है और इसका सरकारों से कोई विशेष लेना-देना नहीं होता। उसका काम केवल यह देखना भर होता है कि हर धर्म के अनुयायी को अपने धर्म का पालन करने में किसी प्रकार की दिक्कत न हो।

पिछले दिनों ही राजस्थान उच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि विधानसभा चुनाव से पहले इस राज्य की मुख्यमन्त्री अपनी गौरव यात्रा नहीं निकाल सकतीं। यह स्वागत योग्य फैसला इसलिए कहा गया क्योंकि एेसी यात्राओं पर जो भारी धन खर्च होता है वह उस सरकारी खजाने से ही होता है जिसका सृजन मतदाताओं की जेब से लिए गए धन से ही होता है। ये सभी मुद्दे एेसे हैं जो विधानसभा चुनावों में उभरने चाहिएं। भारत में राजनीति तभी जनोन्मुखी हो सकती है जबकि जनता से जुड़े मुद्दे ही चुनावी युद्ध का आधार बनें। देखना यह है कि क्या राज्यों में चुनाव राज्यों के मुद्दे पर होंगे या हवाई किले बनाकर जनता को भरमाया जाएगा।

Advertisement
Advertisement
Next Article