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अर्थव्यवस्था में गांवों की ताकत

रिजर्व बैंक के आंकलन के अनुसार भारत की अर्थव्यवस्था में सुधार के लक्षण अब शुरू होने चाहिएं और चालू वित्त वर्ष की अन्तिम तिमाही (जनवरी से मार्च 2021) में विकास वृद्धि की दर ऊपर की तरफ 4 प्रतिशत होनी चाहिए या ज्यादा से ज्यादा नीचे की तरफ दो प्रतिशत होनी चाहिए

12:48 AM Oct 10, 2020 IST | Aditya Chopra

रिजर्व बैंक के आंकलन के अनुसार भारत की अर्थव्यवस्था में सुधार के लक्षण अब शुरू होने चाहिएं और चालू वित्त वर्ष की अन्तिम तिमाही (जनवरी से मार्च 2021) में विकास वृद्धि की दर ऊपर की तरफ 4 प्रतिशत होनी चाहिए या ज्यादा से ज्यादा नीचे की तरफ दो प्रतिशत होनी चाहिए

रिजर्व बैंक के आंकलन के अनुसार भारत की अर्थव्यवस्था में सुधार के लक्षण अब शुरू होने चाहिएं और चालू वित्त वर्ष की अन्तिम तिमाही (जनवरी से मार्च 2021) में विकास वृद्धि की दर ऊपर की तरफ 4 प्रतिशत होनी चाहिए या ज्यादा से ज्यादा नीचे की तरफ दो प्रतिशत होनी चाहिए मगर चालू वित्त वर्ष की सकल विकास वृद्धि दर नकारात्मक ही रहेगी जो 9.5 प्रतिशत तक हो सकती है। इसका सीधा मतलब है कि देश इस समय मन्दी के दौर से गुजर रहा है जिसमें मुद्रा स्फीति की दर 6.5 प्रतिशत है जो चालू बैंक ब्याज दरों से काफी नीचे है। अभी बेरोजगारी का चक्र चलता रहेगा। हालांकि सरकार इसे दूर करने के प्रयासों में लगी है। औद्योगिक उत्पादन में  वृद्धि नाम मात्र की होगी और बाजार में माल की मांग अपेक्षाकृत स्थिर जैसी ही रहेगी (आने वाले त्योहारी मौसम को छोड़ कर) मगर बैंक के गवर्नर शक्ति कान्त दास ने एक तथ्य की तरफ इशारा किया है कि कोरोना महामारी के दौर में ग्रामीण अर्थव्यवस्था ने गजब का प्रतिरोध दिखाया है जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में माल की मांग में इजाफा हो रहा है। इसका मतलब यह है कि असंगठित क्षेत्र में तमाम आर्थिक अड़चनों के बावजूद स्थानीय स्तर पर उत्पादन में वृद्धि​ हो रही है।
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 इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि ग्रामीण व अर्ध शहरी क्षेत्रों में तो  जैसे-तैसे लोग अपने काम-धंधों को चालू रखने की कोशिश में लगे हुए हैं। इसका सम्बन्ध कोरोना के प्रभाव से सीधा जाकर जुड़ता है। इससे उपजे लाॅकडाऊन ने दैनिक मजदूरों से लेकर छोटा-मोटा धंधा व मध्यम व लघु क्षेत्र की उत्पादन इकाइयों को ठप्प कर दिया था। लाॅकडाऊन समाप्त होने के बाद इनकी जमा-पूंजी सूखने के बाद लोगों ने निजी स्तर पर ही छोटी-मोटी पूंजी का जुगाड़ करके अपने कामों को चालू करने का प्रयास किया है और इसके साथ ही  शहरों से गांवों में लौटे श्रमिकों ने पुनः शहरों की तरफ लौटना शुरू कर दिया है। इससे ग्रामीण स्तर पर चहल-पहल लौटनी शुरू हुई है मगर कोरोना के मामले भी गांवों के इलाके में बहुत कम पाये गये हैं जिससे लोगों को अपना काम-धंधा पुनः शुरू करने में आसानी हुई है।
भारत की यह जमीनी हकीकत है जिसे कोई भी विशेषज्ञ नकार नहीं सकता है। दस्ती पूंजी से अपना घर-बार चलाने वाले लोगों के लिए कोरोना के डर को भगाने की मजबूरी थी जिसके चलते यह परिवर्तन हम देख रहे हैं। इसमें सरकार का योगदान केवल इतना ही है कि इसने रेहड़ी-पटरी लगाने वालों से लेकर ठेला चलाने या फेरी लगा कर सामान बेचने वालों के लिए दस हजार रुपए का बैंक ऋण देने की घोषणा की। जिसके लिए अभी तक 20 लाख लोग अर्जी दे चुके हैं। अब देखना यह है कि इनमें से कितनों को यह ब्याज मुक्त कर्ज बिना किसी गारंटी के बैंक देते हैं। इन कम पढ़े-लिखे मेहनतकश लोगों के लिए सुलभ की जाने वाली यह सुविधा किस तरह सरकारी कागजी बाधाओं को दूर करती है इसे समाज का गरीब तबका बहुत ध्यान से देख रहा है, लेकिन कल्पना कीजिये यदि कोरोना महामारी शुरू होने पर लाॅकडाऊन घोषित होने के बाद सरकार द्वारा यदि देश के 13 करोड़ गरीब परिवारों को दस हजार रुपए प्रत्येक की मदद दी जाती तो आज ग्रामीण अर्थव्यवस्था की हालत क्या होती? निश्चित रूप से ही इस कदम से असंगठित क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को जबर्दस्त आक्सीजन मिलती और ग्रामीण क्षेत्रों के साथ ही इसका असर संगठित क्षेत्र पर भी पड़ता। इसके साथ ही मध्यम व छोटी औद्योगिक इकाइयों को भी अगर नकद रोकड़ा से उनके बिजली बिलों की ही भरपाई की जाती तो बेरोजगारी को बढ़ने से पहले ही थामा जा सकता था, परन्तु हमने वह रास्ता लिया जो सामान्य मन्दी के दौर में लिया जाता है अर्थात पूंजी सुलभता का। इसका मतलब होता है कि आसान ब्याज दरों पर बैंक ऋण सुलभ कराना। यही वजह रही कि अधिकतर मध्यम व छोटी इकाइयों ने एेसे ऋण लेने से परहेज किया। अतः ग्रामीण क्षेत्रों में जो आर्थिक सुगमता का वातावरण बन रहा है उसके पीछे इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की उद्यमशीलता ही है। इसके अलावा किसानों ने जिस तरह अपनी मेहनत से पैदावार बढ़ा कर कोरोना को चुनौती दी है वह अनुकरणीय है।
 किसानों ने कोरोना के दुष्प्रभावों की परवाह न करते हुए हिम्मत के साथ अपने खेतों में कार्य किया और इस देश के भंडार अनाज से भर डाले। अतः उनकी उपज के मूल्य का निर्धारण हमें इसके अनुरूप ही करना चाहिए था। यह समय किसानों को ‘कोरोना बोनस’ देने का था जिसमें हम चूक गये। यदि एेसा होता तो इसके परिणाम बहुआयामी होते जिनका असर समूची अर्थव्यवस्था पर पड़ता। हमें नहीं भूलना चाहिए कि सकल उत्पादन में बेशक कृषि क्षेत्र का हिस्सा घट कर 18 प्रतिशत रह गया हो मगर कृषि पर निर्भर करने वाली आबादी की संख्या आज भी 60 प्रतिशत है। किसान जिस तरह अपनी फसल उगा कर उसे समाज में बांट देता है उसी प्रकार उसकी आर्थिक आमदनी भी समाज के विभिन्न वर्गों में बंट जाती है जिनमें भूमिहीन मजदूर से लेकर गरीब दस्तकार व कारीगर तक शामिल होते हैं। इसी वजह से ग्रामीण अर्थव्यवस्था सीधी खेतों से जुड़ी होती है। देश के आर्थिक पंडितों को यह तथ्य हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि कृषि सम्पन्नता ही औद्योगीकरण की रफ्तार को तेज करती है।  अतः चालू वित्त वर्ष में जो भी आर्थिक सुधार दर्ज होता है उसका श्रेय केवल इस देश के सामान्य आदमी को ही दिया जा सकता है। अतः दूसरी तिमाही में जिस तरह सकल विकास वृद्धि दर नकारात्मक खांचे मे 24 प्रतिशत तक पहुंची थी वह 9.5 प्रतिशत पर खेती, किसान और छोटे दुकानदार से लेकर लघु उत्पादन इकाइयों के बूते पर ही पहुंचेगी। बड़े कार्पोरेट घराने तो कोरोना के बहाने सरकार से ज्यादा से ज्यादा छूट लेने के चक्कर में ही रहे।
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