आर्थिक मंदी की ओर बढ़ता विश्व
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के मनमाने टैरिफ से दुनियाभर के शेयर बाजार…
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के मनमाने टैरिफ से दुनियाभर के शेयर बाजार लहूलुहान हो चुके हैं। चीन और कुछ अन्य देशों द्वारा जवाबी शुल्क लगाने की घोषणा से न केवल भारतीय शेयर बाजार बल्कि डाउजोन्स, एस एंड पी, नेस्डैक के बाजार डगमगा चुके हैं। भारतीय शेयर बाजार में सोमवार का दिन निवेशकों के लिए ब्लैक साबित हुआ, जब एक ही झटके में 16 लाख करोड़ डूब गए। टैरिफ वॉर शुरू होने से वैश्विक अर्थव्यवस्था पर असर पड़ना तय है। वैश्विक मंदी की आशंका ने सभी के हौसले परस्त कर दिए हैं। वैश्विक मंदी के साथ-साथ महंगाई का खतरा भी बढ़ चुका है। दुनिया में आर्थिक मंदी का आना कोई नई बात नहीं है। 1930 के दशक में भी मंदी आई थी, जिसे द ग्रेट डिप्रैशन कहा गया था। 2008 में आर्थिक संकट को ग्लोबल फाईनैंशियल क्राइसिस कहा गया। तब अमेरिकी बैंक एक के बाद एक ढहने शुरू हो गए थे।
2020 में कोिवड महामारी के चलते दुनियाभर के देशों का पहिया जाम हो गया था। लॉकडाऊन के दौरान सप्लाई चेन अवरुद्ध होने से महंगाई का सामना करना पड़ा था। जिस तरह से अन्तर्राष्ट्रीय बाजर में कच्चे तेल की कीमतें गिर रही हैं उस पर विशेषज्ञों का मत है कि आर्थिक मंदी आहत हो चुकी है। आर्थिक अनिश्चितता के चलते कच्चे तेल की कीमत 60 डॉलर प्रति बैरल लुुढ़क चुकी है। शेयरों की कीमतों में गिरावट का मतलब हमेशा आर्थिक संकट नहीं होता लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि कम्पनियों के स्टॉक मार्किट वेल्यू में गिरावट का अनुमान लगाया जाता है। ऐसा ही अब हो रहा है। कम्पनियों को लग रहा है कि अमेरिकी टैरिफ बढ़ने के बाद चीजों की लागत बढ़ेगी और उनका मुनाफा कम होगा। इसलिए बाजार में हताशा का माहौल है।
भारत के लिए अमेरिकी टैरिफ अपने आप में बड़ी चुनौती है। भले ही निर्यात में हमारा प्रदर्शन कमजोर है लेकिन इससे मौजूदा निर्यातकों को कोई मदद नहीं मिलने वाली। ऐसी रिपोर्टें अब सामने आ रही हैं कि भारतीय निर्यातकों का माल गोदामों में डम्प होकर रह गया है और अमेरिकी कम्पनियां उन्हें कीमतें घटाने के लिए कह रही हैं ताकि बढ़े हुए टैरिफ के असर को कम किया जा सके। मौजूदा निर्यातक कीमतें कम करने से प्रबंधन कैसे करेंगे। उनका माल कितना बिकेगा, यह सब अभी अमेरिका से द्विपक्षीय व्यापार समझौते के लिए चल रही बातचीत के बाद ही तय होगा। भारतीय निवेशकों का बाजार में भरोसा कमजोर हो रहा है। उधर अमेरिका में भी हजारों लोगों ने ट्रम्प की नीतियों के खिलाफ प्रदर्शन करना शुरू कर दिया है। अमेरिका कई चीजों के उत्पादन में अभी भी दूसरे देशों पर निर्भर है। इसलिए उन पर शुल्क बढ़ेगा तो कीमतें भी बढ़ेंगी। महंगाई बढ़ते ही लोग अपने खर्च घटाएंगे। पूंजी का प्रवाह रुकेगा तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था भी लड़खड़ाने लगेगी।
बाजार ने चीन के मजबूत और तत्काल प्रतिरोध को लेकर गहरी चिंता प्रदर्शित की है क्योंकि ऐसे विवाद व्यापारिक कदमों पर क्या असर डालते हैं, यह सबको पता है। अर्थशास्त्री चार्ल्स किंडलबर्गर ने एक सुप्रसिद्ध ग्राफ बनाया है जिसे किंडलबर्गर स्पाइरल’ कहा जाता है। यह ग्राफ बताता है कि 1929 में शेयर बाजार के पतन और उसके चलते उठाए गए संरक्षणवादी उपायों के बाद के सालों में माह दर माह वैश्विक व्यापार में किस तरह गिरावट आई। विश्व व्यापार का करीब दो तिहाई हिस्सा समाप्त हो जाने के बाद तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट ने घोषणा की थी कि अमेरिका हर उस कारोबारी साझेदार पर टैरिफ कम करेगा जो वापस ऐसा करने का इच्छुक हो। अभी यह नहीं कहा जा सकता है कि विश्व व्यापार में उतनी ही गिरावट आएगी या नहीं लेकिन इसमें तेज गिरावट का खतरा तो है ही। इससे जुड़ी अनिश्चितता को भी नकारा नहीं जा सकता है। काफी कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि अन्य बड़ी कारोबारी शक्तियां मसलन यूरोपीय संघ आदि कैसी प्रतिक्रिया देती हैं। अगर वे अपनी प्रतिक्रिया को जवाबी शुल्क या वस्तु व्यापार तक सीमित न रखकर सेवा क्षेत्र में भी प्रतिक्रिया देती हैं तो अतिरिक्त तनाव उत्पन्न हो सकता है। अमेरिका को यूरोपीय संघ के साथ सेवा व्यापार में 100 अरब यूरो का अधिशेष हासिल है। फिलहाल ट्रम्प को शुल्क बढ़ाना फायदे का सौदा लग रहा है लेकिन हो सकता है कि अमेरिका खुद अपने हाथ न जला बैठे। काेरोना काल के बाद अभी तक कई देशों की अर्थव्यवस्थाएं पटरी पर लौटने के लिए संघर्ष कर रही हैं। अब दुनिया एक बार फिर ऐसे मोड़ पर है जिससे हाहाकार ही मचेगा।