कुदरत की मार या इंसान की बेवकूफी
हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के पांच गांव, तानीपारी, शाला नल, जल नल, तनहल और थलोट जो किरतपुर-मनाली हाईवे पर पड़ते हैं, के लोगों ने ऊंची शिकायत की है कि एनएचएआई द्वारा सड़क को चौड़ा करने के लिए जो अवैज्ञानिक और लापरवाह तरीका अपनाया गया है उसके कारण उनका अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। चार साल पहले इस सड़क को चौड़ा करने का काम शुरू हुआ था तब से मकानों में दरारें पड़नी शुरू हो गई हैं और अब कृषि भूमि ने नीचे की तरफ फिसलना शुरू कर दिया है। एक रिपोर्ट के अनुसार जल नल गांव के शोभा राम भारद्वाज का कहना है कि उनके विरोध के बावजूद कम्पनी ने पहाड़ को सीधा काटा है। विस्फोटक लगा कर सड़क बन रही है और यह परवाह नहीं की गई कि ऊपर बसे गांवों का क्या होगा? परिणाम है कि कई गांववासियों को घर छोड़ना पड़ रहा है। यह भी शिकायत है कि एनएचएआई उनकी हालत के प्रति बिल्कुल असंवेदनशील है। न राहत दी गई और न ही पुनर्वास का ही प्रबंध किया गया और न ही हिमाचल सरकार ने ही मामले का संज्ञान लिया है।
पिछले कुछ सप्ताह में हिमाचल में मंडी, उत्तराखंड में धराली और जम्मू-कश्मीर में किश्तवाड़ में भारी वर्षा, भूस्खलन और बाढ़ से भारी तबाही हुई है। हिमाचल में पिछले कुछ सप्ताह में तीन दर्जन जगह बादल फटने की खबर है। 200 से अधिक मौतें हो चुकी हैं। 400 सड़कें टूट चुकी हैं। 2017 के बाद किए गए कई सर्वेक्षण बताते हैं कि पश्चिमी हिमालय में बादल फटने और भूस्खलन की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। बढ़ते तापमान को भी इसके लिए ज़िम्मेवार ठहराया जा रहा है। धराली में 5 अगस्त को ऊपर से अचानक आया पानी रास्ते में सब कुछ बहा ले गया। कई लोग अभी भी लापता हैं। 150 से अधिक घरों वाला गांव मलबे में दफन हो गया और नक्शे से ही गायब हो गया। पूरी हर्षिल घाटी में तबाही का मंजर नजर आ रहा है। उत्तरकाशी-गंगोत्री हाईवे कई जगहों से धंस गया है। धराली के नौ दिन बाद किश्तवाड़ में बादल फटने से भारी तबाही हुई है। चोसिती गांव पहाड़ की ढलान पर बसा हुआ है। यह मचैल माता मंदिर की यात्रा का पहला पड़ाव भी है। बहुत से यात्रियों को भी पानी बहा ले गया। यहां 1800 से 3900 मीटर ऊंचे पहाड़ हैं। जब भी बादल फटता है तो पानी तेज़ी से सब बहा कर ले जाता है। अब धराली में भी और किश्तवाड़ में भी राहत के काम जोर- शोर से चल रहे हैं, पर सवाल है कि क्या इस तबाही से बचा जा सकता था? क्या यह केवल प्राकृतिक आपदा ही है या इंसान की बेवकूफी का भी परिणाम है?
पहाड़ी प्रदेशों में बरसात में बाढ़ और भूस्खलन की शिकायतें पुराने समय से आ रही हैं। जब सड़कें नहीं बनती थी या परियोजनाएं नहीं बनती थी तब भी पहाड़ियां गिरती थी, रास्ते बंद होते थे। पर जिस तरह आज हम तबाही देख रहे हैं कि गांवों के गांव ही बह रहे हैं, ऐसा पहले नहीं होता था। बड़ी चेतावनी जून 2013 में केदारनाथ में मिली थी जब विनाशकारी बाढ़ और भूस्खलन से कई सौ गांव प्रभावित हुए थे और 6000 लोग मारे गए थे। इस भयानक त्रासदी ने तो क्षेत्र का भूगोल ही बदल दिया था। इस त्रासदी को 12 वर्ष हो गए, पर क्या हमने कुछ सबक सीखा है? पर्यावरणविद वर्षों से चेतावनी दे रहे हैं कि हम पहाड़ों की सीमाएं लांघ रहे हैं। इतना निर्माण हो रहा और बहुत अनियंत्रित है, कि ऐसे हादसों को रोका नहीं जा सकता। हिमाचल के बारे तो सुप्रीम कोर्ट ने तल्ख़ टिप्पणी की है कि अगर इसी तरह अनियंत्रित विकास होता गया तो ‘प्रदेश हवा में गायब हो जाएगी।’
बड़ी अदालत चेतावनी दे रही है कि विकास के नाम पर जो वहां हो रहा है उससे तबाही हो रही है लेकिन प्रशासन की चाल और मानसिकता नहीं बदली। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि पहाड़ों के भूस्खलन, मकानों के गिरने, सड़कों के धंसने के लिए कुदरत नहीं इंसान दोषी है। नालों और निकास नालियों पर निर्माण के कारण पानी का प्राकृतिक बहाव रुक जाता है और जब ऊपर से ज़ोर पड़ता है तो सब बहा कर ले जाता है। शिमला इसकी प्रमुख मिसाल है। ढलानों पर ऊंची इमारतें बनाई जाती हैं जो ताश के पत्तों की तरह ढह जाती हैं। हर साल दो-तीन इमारतें गिरती हैं। लोग भी बिना अनुमति के नदी- नालों के पास निर्माण कर लेते हैं जो बाढ़ में बह जाते हैं। मनाली में बिजली बोर्ड ने ब्यास नदी के तट पर बहुत खूबसूरत गेस्ट हाउस बनाया था, पर यह बाढ़ में बह गया। जगह का चयन ही गलत था। बढ़ती जनसंख्या, विकास और टूरिज़्म की मजबूरी के लिए निर्माण करना पड़ता है, पर कुछ तो नियम होने चाहिए और जो नियम हैं उनका पालन भी करवाना चाहिए। दोनों, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की सरकारें इस मामले में कमजोर हैं। उन्होंने अवैध निर्माण के आगे समर्पण कर दिया है। आख़िर में लोगों को सजा भुगतनी पड़ती है।
विशेषज्ञों का अनुमान है कि शिमला में सुबह के समय आए भूचाल से 16000 मौतें और रात के समय 24000 लोग मारे जाएंगे क्योंकि असुरक्षित इमारतें गिर जाएंगी और लोगों के पास भागने के लिए जगह नहीं रहेगी। शिमला उस क्षेत्र में स्थित है जो भूचाल का हाई-रिस्क एरिया है। वैज्ञानिक विक्रम गुप्ता ने कहा है, “मैं उस दिन की कल्पना कर कांप जाता हूं जब कभी शिमला में बड़ा भूचाल आएगा”। हिमाचल सरकार टूरिस्ट संख्या 2 करोड़ से बढ़ा कर 5 करोड़ करना चाहती है। पर जब कंक्रीट की इतनी इमारतें बनेंगी और धुआं उड़ाती लाखों गाड़ियां आएंगी जिनके लिए पार्किंग नहीं होगी तो क्या होगा? विशेषज्ञ बहुत बार चेतावनी दे चुके हैं कि पहाड़ और बोझ नहीं उठा सकते। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के पूर्व डायरेक्टर और विशेषज्ञ ओम नारायण भार्गव ने लिखा है, “हिमाचल में अधिकतर जगह पानी की निकासी का प्रबंध नहीं है और पानी मकानों के इर्द-गिर्द इकट्ठा हो जाता है...ऐसी स्थिति में जब भारी वर्षा होती है तो जमीन धंसने लगती है और इमारतों में दरारें आ जाती हैं”।
यही स्थिति दूसरे पहाड़ी राज्यों की भी है। विशेषज्ञ जी.के. भट्ट ने लिखा है, “इमारत जो 10 से 20 डिग्री ढलान पर बनाई जाती है उसे सुरक्षित समझा जाता है। पर अगर इमारतें 45 से 70 डिग्री ढलान पर लटकेंगी तो यह विनाश आमंत्रित करेगा”। इन दोनों विशेषज्ञों के यह विचार दो वर्ष पहले छपे थे, पर बार-बार हो रहे हादसे बताते हैं कि कोई सबक नहीं सीखा गया। बदलते मौसम और जिसे ग्लोबल वार्मिंग कहा जाता है, से भी स्थिति नाजुक बन रही है। दुनिया का कोई न कोई बड़ा शहर बाढ़ में डूबा रहता है। इस समय तो मुम्बई डूबा हुआ है। गढ़वाल विश्वविद्यालय के प्रो. सुन्दरियाल के अनुसार “शिवालिक हिल्स जो जम्मू से लेकर उत्तराखंड तक फैले हुए हैं हिमालय का सबसे युवा और नाजुक हिस्सा है। इसकी चट्टानें और पत्थर सबसे कमजोर हैं जो भारी पानी के दबाव को सह नहीं सकते”। यही कारण है लगातार भूस्खलन की घटनाऐं घट रह् हैं। ऊपर से धड़ाधड़ पेड़ काटने से समस्या और विकराल हो गई है। जो वैज्ञानिक पहाड़ों का अध्ययन करते हैं वह दशकों से चेतावनी दे रहे हैं कि दूसरे क्षेत्रों को छोड़ कर हिमालय का क्षेत्र मौसम के बदलाव में अधिक असुरक्षित और कमजोर है।
केदारनाथ त्रासदी और चारधाम परियोजना की जांच करने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई दो कमेटियों के अध्यक्ष रहे रवि चोपड़ा का कहना है कि इंसानी बस्तियां उन नदियों से दूर होनी चाहिए जिनमें बाढ़ आती है, पर जो फ़ैसले करते हैं वह चेतावनी की घंटियों की अनदेखी कर देते हैं और पर्यावरण और भूगर्भीय संवेदनशील क्षेत्र में अस्थिर और नाजुक इंफ्ट्रास्क्चर को धकेल देते हैं। कड़वी सच्चाई है कि हम हिमालय के नाजुक क्षेत्रों में अनियंत्रित निर्माण के घातक और भयंकर परिणाम भुगत रहे हैं। अगर हम सचेत न हुए तो जो मंडी में हुआ है, या धराली में हुआ है या किश्तवाड़ में हुआ है वह कहीं और भी दोहराया जाएगा। हिमाचल में ही 2000 करोड़ रुपए का नुक्सान हो चुका है।
हमें विकास चाहिए, सड़कें चाहिए, टूरिस्ट चाहिए, बिजली परियोजना चाहिए, पर अब पहाड़ बता रहे हैं कि अगर समझदारी से आगे नहीं बढ़े तो इसकी कीमत भी अदा करनी पड़ेगी। पहाड़ बेहतर बर्ताव की पुकार लगा रहे हैं। हिमालय को केवल प्राकृतिक संसाधनों के भंडार या पर्यटक क्षेत्र की तरह ही नहीं देखा जाना चाहिए। उन्हें सुरक्षित भी रखना है। बाबुओं की मानसिकता क्या है वह मंडी के पांच गांववासियों की दुर्गत से पता चलता है। जिनकी लापरवाही के कारण यह पांच ग्राम वासी रिफ्यूजी बन गए हैं, उनके ख़िलाफ क्या कोई कार्रवाई हुई? अगर नहीं हुई तो क्यों नहीं हुई? ‘सब चलता है’ की संस्कृति कब बदलेगी? चाहिए यह कि संसद में पार्टी लाईन से ऊपर उठ कर इस बात पर बहस हो कि हिमालय के नाजुक पर्यावरण को कैसे बचाया जाए? पर सांसद तो शोर-शराबे में लगे रहते हैं। असली मुद्दों के लिए समय नहीं है, जबकि बदलता पर्यावरण बहुत बड़ी मुसीबत बनता जा रहा है।