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इमरजेंसी के वे काले दिन !

07:17 AM Jun 27, 2025 IST | Aditya Chopra
इमरजेंसी के वे काले दिन

स्वतन्त्र भारत के इतिहास में 21 महीने का इमरजेंसी काल ऐसा कलंक है जिसकी याद समय-समय पर करके हम अपने लोकतन्त्र को मजबूत बनाये रख सकते हैं। यह समय 25 जून, 1975 से लेकर मार्च 1977 तक का था जब तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने अपनी गद्दी बचाये रखने के लिए पूरे देश पर आन्तरिक इमरजेंसी लागू कर दी थी और नागरिकों के मौलिक या मूलभूत अधिकारों को समाप्त कर दिया था। उस समय पूरे देश पर ऐसा काला घना अंधेरा छाया था जिसका कोई दूसरा उदाहरण भारत के इतिहास में नहीं था। यह इमरजेंसी समय कांग्रेस पार्टी के इतिहास पर भी कलंक के समान था क्योंकि कांग्रेस पार्टी ने ही आजादी की लड़ाई लड़ते हुए भारत के नागरिकों को मूलभूत अधिकार प्रदान करने का आश्वासन दिया था।

इस दौरान देश के सभी संवैधानिक संस्थानों को अधिकार विहीन व दन्त विहीन कर दिया गया और यहां तक कि स्वतन्त्र न्यायपालिका के अधिकार भी छीन लिये गये। इस दौरान न कोई दलील थी और न कोई अपील थी और न कोई वकील था। पूरे देश को जेलखाने में तब्दील कर दिया था। सभी विपक्षी राजनेताओं व कार्यकर्ताओं तक को जेलों में ठूंस दिया गया था। इनमें मजदूर नेता तक शामिल थे। किसी भी नागरिक के पास अपनी जायज मांग उठाने का कोई जरिया नहीं था और आवाज उठाने पर उसे जेल में डाल दिया जाता था। आजाद भारत ऐसा नजारा पहली बार देख रहा था। अखबारों पर सेंसरशिप लागू कर दी गई थी। पत्रकारों की आजादी पूरी तरह छीन ली गई थी। अखबारों में वही छपता था जिस पर सरकार की सहमति होती थी।

यह सब केवल एक व्यक्ति श्रीमती इन्दिरा गांधी की सत्ता को कायम रखने के लिए किया गया था क्योंकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 12 जून, 1975 को उनका रायबरेली सीट से लड़ा गया लोकसभा चुनाव अवैध घोषित कर दिया था। इसके बाद इन्दिरा गांधी को सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर करने के लिए 40 दिन का समय दिया गया था। मगर इस दौरान वह लोकसभा या संसद में किसी मतदान में भाग नहीं ले सकती थीं। इसकी वजह यह थी कि उनकी लोकसभा सदस्यता खत्म कर दी गई थी। इन्दिरा गांधी के पास उस समय कई विकल्प थे। लोकसभा में कांग्रेस पार्टी के पास भारी बहुमत था। वह कांग्रेस के ही किसी अन्य नेता को प्रधानमन्त्री बना सकती थी। इसमें सबसे ऊपर नाम उस समय दलित नेता बाबू जगजीवनराम का चल रहा था क्योंकि वह सबसे वरिष्ठ नेता थे और नेहरू काल से ही मन्त्रिमंडल में शामिल थे। परन्तु इन्दिरा गांधी ने यह उचित नहीं समझा और इमरजेंसी लगाने का ठीकरा जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन पर फोड़ते हुए देश में तानाशाही लागू कर दी।

इसके लिए संविधान का प्रावधान ढूंढने में तत्कालीन कांग्रेस नेता स्व. सिद्धार्थ शंकर राय ने बहुत मेहनत की, जिसे इन्दिरा जी के छोटे बेटे स्व. संजय गांधी ने पूरा समर्थन दिया। इस प्रकार पूरे देश में इमरजेंसी लागू कर दी गई और सभी आन्दोलनकारी नेताओं को जेलों में ठूंस दिया गया। अब आज की मोदी सरकार यदि इस दिन की याद को ताजा रखने के लिए पूरे साल भर कार्यक्रम आयोजित करना चाहती है तो इसमें कोई बुराई नहीं है क्योंकि ऐसा करने से देशवासी लोकतान्त्रिक अधिकारों के प्रति सजग होंगे और लोकतन्त्र बचाये रखने का जज्बा उनमें जागृत रहेगा। परन्तु कांग्रेस अध्यक्ष श्री मल्लिकार्जुन खड़गे को इस पर ऐतराज है। उनका कहना है कि ऐसा करके मोदी सरकार अपनी पिछले 11 साल की विफलताओं को छिपाना चाहती है और आम लोगों को गफलत में रखना चाहती है।

श्री खड़गे का तर्क है कि यदि इमरजेंसी लगाने का फैसला इन्दिरा गांधी ने लिया था तो इसे 21 महीने बाद हटाने और निष्पक्ष व स्वतन्त्र चुनाव कराने का फैसला भी उन्होंने लिया था। ये चुनाव 1977 की पहली तिमाही में हुए थे जिसमें कांग्रेस पार्टी बुरी तरह परास्त हो गई थी और पूरे उत्तर भारत में उसका सफाया हो गया था। केवल दक्षिण भारत के चार राज्यों व अन्य छिटपुट सीटों से कांग्रेस को सफलता मिली थी और इसकी 153 सीटें आयी थीं। यहां तक कि रायबरेली से ही इन्दिरा गांधी अपना चुनाव तक हार गई थीं और उनके पुत्र संजय गांधी भी चुनाव में परास्त रहे थे। श्री खड़गे का तर्क है कि 1977 में जब केन्द्र में कांग्रेस को हराकर जनता पार्टी की सरकार बनी तो वह अधिक समय तक नहीं चल सकी और 1980 में पुनः लोकसभा चुनाव हुए जिसमें इन्दिरा गांधी पुनः भारी बहुमत से विजयी हुई और कांग्रेस पार्टी को दो तिहाई बहुमत से कुछ ही कम सीटें ​मिलीं।

इसका मतलब उनकी नजर में यह निकलता है कि इमरजेंसी की गलती के लिए भारत के लोगों ने इन्दिरा गांधी को केवल तीन साल बाद ही माफ कर दिया था और उनके नेतृत्व में पूर्ण विश्वास व्यक्त किया था। बेशक श्री खड़गे के तर्क को लोकतन्त्र में हार-जीत की तराजू पर रखकर देखा जा सकता है मगर इमरजेंसी को किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता। इमरजेंसी भारत के इतिहास का एक काला अध्याय ही रहेगा जिसे किसी भी तर्क से सफेद नहीं किया जा सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि लोकतन्त्र में आम जनता ही इस व्यवस्था की सजग प्रहरी होती है अतः यदि मोदी सरकार जनता को इस ओर सजग बनाये रखना चाहती है तो इसका विरोध किस प्रकार किया जा सकता है।

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