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देशद्रोह कानून : बहस तो होनी चाहिए

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10:14 AM Apr 06, 2019 IST | Desk Team

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कांग्रेस द्वारा जारी चुनावी घोषणा पत्र में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124-ए यानी देशद्रोह के कानून को खत्म करने के वायदे पर बवाल मचा हुआ है। भाजपा इस मुद्दे पर कांग्रेस को ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ का समर्थक बता रही है। चुनावों के दौरान जमकर बयानबाजी की जाती है, शोर-शराबे में असली मुद्दे गौण हो जाते हैं। देशद्रोह कानून को लेकर बहस कोई नई नहीं है। जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी से शुरू हुए इस विवाद ने भयानक रूप ले लिया था और देशद्रोह कानून को खत्म करने की आवाजें उठी थीं। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124-ए के तहत देशद्रोह को परिभाषित करते हुए मौखिक अथवा लिखित शब्दों, चिन्हों अथवा अन्य प्रकार से भारत में विधि सम्पन्न रूप से स्थापित सरकारों के विरुद्ध नफरत, अवमानना अथवा असंतोष भड़काने का प्रयास करता है, उसे उम्रकैद और जुर्माना अथवा 3 वर्ष की कैद की सजा सुनाई जा सकती है। इस परिभाषा के साथ तीन व्याख्याएं जोड़ी गई हैं।

इस संदर्भ में केदार नाथ सिंह बनाम स्टेट ऑफ बिहार मामले में 20 जनवरी 1962 को दिया गया सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ का निर्णय मील का पत्थर है। इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने तथ्यों पर कानून से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर इस कानून की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ पूरे प्रावधान की विस्तृत व्याख्या की। साथ ही यह निर्णय दिया कि शब्दों या भाषणों को राजद्रोह के लिए तभी आपराधिक माना जा सकता है जब भीड़ को हिंसक कार्रवाई के लिए उकसाया गया हो। साथ ही उकसावे के कारण भीड़ हिंसा पर उतर आई हो। मात्र शब्द या वाक्य कितने भी कड़वे क्यों न हों। यदि वाक्यों से हिंसा नहीं हुई तो देशद्रोह का आधार नहीं बनेगा। सुप्रीम कोर्ट ने इसी मामले में यह भी स्पष्ट किया कि नागरिकों को सरकार के बारे में या उसके द्वारा किए गए कामों के बारे में अपनी पसन्द के अनुसार बोलने, लिखने का अधिकार है और जब तक कि उनकी आलोचना या टिप्पणी द्वारा लोगों को विधि सम्मत सरकार के विरुद्ध हिंसा करने को नहीं भड़काया गया हो अथवा सार्वजनिक अव्यवस्था फैलाने की नीयत न हो।

एक अन्य मामला बलवन्त सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब में वर्ष 1995 में यह निर्णय दिया​ कि दो व्यक्तियों द्वारा एक या दो बार यूं ही नारे लगा दिए जाने मात्र से ही देशद्रोह का मामला नहीं बनता क्योंकि दो व्यक्तियों द्वारा कैजुअली यूं ही नारे लगाए जाने मात्र से ही सरकार के विरुद्ध नफरत या असंतोष फैलाने या उसके प्रयास की ओर संलिप्त नहीं माना जा सकता। केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा अक्सर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, विरोधियों, लेखकों और यहां तक कि कार्टूनिस्टों के खिलाफ इस धारा के इस्तेमाल की खबरें लगातार आती रहती हैं। देशद्रोह पर प्रावधान के लिए सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि इसकी परिभाषा बहुत व्यापक है। अतः दुरुपयोग की घटनाएं भी कम नहीं। भारत में मीसा कानून, पोटा कानून का दुरुपयोग भी कम नहीं हुआ, उसी तरह देशद्रोह के कानून का भी दुरुपयोग हुआ। तमिलनाडु के कुंडनकुलम में एक पूरे गांव पर देशद्रोह का कानून थोप दिया गया था क्योंकि वे वहां परमाणु संयंत्र बनाए जाने के पक्ष में नहीं थे। वर्ष 2014 में झारखंड में तो विस्थापन का विरोध कर रहे आदिव​ासियों पर भी देशद्रोह कानून लगाया गया।

जब-जब कोई मानवाधिकार कार्यकर्ता या सामाजिक कार्यकर्ता सरकार विरोधी बयान देता है तो उसी पर सरकारी गाज गिरती है। प्रसिद्ध लेखिका अरुंधति राय आैर विनायक सेन पर भी देशद्रोही का आरोप लग चुका है। विनायक सेन को तो देशद्रोह के आरोप में उम्रकैद की सजा सुना दी गई थी जिसके खिलाफ उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में केस लड़ा आैर बरी हुए। कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को कार्टून के आधार पर गिरफ्तार किया गया और देशद्रोह की धारा लगा दी गई। इस वर्ष जनवरी में असम राज्य के 80 वर्षीय लेखक हिरेन गोगोई, सामाजिक कार्यकर्ता अखिल गोगोई और पत्रकार मंजीत महंत को देशद्रोह के अपराध में गिरफ्तार किया गया था। उनकी गिरफ्तारी का कारण नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध करना बताया गया था। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देशद्रोह को भारतीय दण्ड संहिता के राजकुमार की तरह माना था लेकिन दुर्भाग्यवश आज इसे दण्ड संहिता का राजा बना दिया गया है। ब्रिटिश राज के दौरान इस कानून का दुरुपयोग स्वतंत्रता ​आंदोलन को दबाने के लिए समय-समय पर किया गया।

अंग्रेज तो कब के भारत छोड़कर चले गए लेकिन यह कानून अब भी लागू है। 2003 में सुप्रीम कोर्ट ने नजीर खान बनाम दिल्ली सरकार के मामले में स्पष्ट किया था कि राजनीतिक विचारधाराएं और सिद्धांत रखना एवं उनका प्रचार करना नागरिकों का मौलिक अधिकार है। किसी के शब्दों के चलते उसे समाज को भड़काने वाली घटना से नहीं जोड़ा जा सकता। वैसे भी देश की जड़ें बहुत मजबूत हैं और इसे ​किसी विकृत दिमाग के कटु नारों से हिलाया नहीं जा सकता। पिछले वर्ष विधि आयोग ने भी 124-ए की समीक्षा करने की प्रक्रिया शुरू की थी और उसने अपने परामर्श पत्र में इस विषय पर पुनर्विचार की बात कही थी। हमें यह देखना होगा कि कानून का दुरुपयोग कैसे रोका जाए? सरकारें आती-जाती रहती हैं जबकि राज्य बना रहता है। राज्य संविधान और कानून से चलता है जबकि राष्ट्र अथवा देश एक भावना है, जिसके मूल में राष्ट्रीयता का भाव होता है। सरकार की आलोचना नागरिकों का अधिकार है अतः संबंधित कानूनों का सावधानीपूर्वक इस्तेमाल किया जाना चाहिए। अगर इसके लिए कुछ संशोधन भी करने पड़ें तो करने चाहिए। लोकतंत्र में विमर्श बहुत जरूरी है और विमर्श को राष्ट्रविरोधी नहीं ठहराया जाना चाहिए। बहस तो होनी ही चाहिए।

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