ट्रम्प का शुल्क ‘राग’ जारी
भारत के गांवों में आज भी एक कहावत प्रचिलित है कि ‘पल में तोला–पल में माशा’। यह कहावत ऐसे लोगों के बारे में है जो बात-बात पर अपना रुख बदलते हैं और अपनी कही किसी बात पर टिके नहीं रह पाते। अमेरिका के राष्ट्रपति श्री डोनाल्ड पर यह कहावत पूरी तरह खरी उतरती है क्योंकि वह हर 24 घंटे में अपने बयान बदल देते हैं जिससे दुनिया अचम्भे में आ जाती है। भारत के बारे में श्री ट्रम्प की स्थिति यही है। कभी वह यह कहकर कि भारत-पाकिस्तान के बीच विगत मई महीने में युद्ध विराम उन्होंने कराया, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के सारे मानदंडों को धत्ता बताते हैं तो कभी प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के साथ अपनी दोस्ती का उल्लेख करते हैं। कभी भारतीय माल के आयात पर 25 प्रतिशत अतिरिक्त जुर्माना शुल्क इसलिए लगा देते हैं कि भारत रूस से कच्चे तेल का आयात करता है।
कभी कहते हैं कि भारत व चीन रूस से तेल आयात करके यूक्रेन युद्ध में रूस की मदद कर रहे हैं। कभी वह भारत से दुश्मनी मानने वाले पाकिस्तान के वजीरे आजम शहबाज शरीफ को महान बता देते हैं और पाकिस्तान को एक महान देश। हालांकि उन्होंने भारत को भी महान बताया मगर पाकिस्तान के साथ रख कर। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि उनकी सोच किसी भी विषय के बारे में कितनी टिकाऊ है? मगर ट्रम्प शासन की व्यापारिक नीतियों ने वे सारी मर्यादाएं तोड़ दी हैं जो नब्बे के दशक में विश्व व्यापार संगठन ने विश्व के देशों के लिए आपसी कारोबार हेतु बनाई थीं। ट्रम्प सीधे विश्व व्यापार संगठन की नियमावली को ठेंगे पर रख कर विभिन्न देशों के साथ द्विपक्षीय आधार पर वाणिज्य समझौते इस प्रकार कर रहे हैं जिनसे व्यापार संगठन के नियमों का उल्लंघन होता है। वह दूसरे देश के साथ अपनी शर्तों पर ही कारोबार करना चाहते हैं । इसके लिए वह अपने देश की दुनिया की सबसे बड़ी अर्थ व्यवस्था होने का लाभ उठाते हैं। बेशक ट्रम्प आर्थिक संरक्षणवाद का पोषण करके अपने देश की जनता का मन मोह लेना चाहते हैं मगर इससे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अन्ततः नुक्सान अमेरिका का ही होता है क्योंकि अभी तक अमेरिका पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का पूरी दुनिया में एक माडल या आदर्श नमूना रहा है। उनकी वाणिज्यिक नीतियों से पूरी दुनिया एक एेसा बाजार बनती जा रही है जिसमें केवल शक्तिशाली राष्ट्र ही फल-फूल सकते हैं। यदि विश्व इस ओर चल पड़ेगा तो अविकसित देशों का विकास बन्द हो जायेगा और विकसित देश पुनः 19वीं व 20वीं सदी की मानिन्द गरीब मुल्कों पर अपना हक जमाने की तरफ चल निकलेंगे। 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद राष्ट्रसंघ का निर्माण इसीलिए हुआ था कि पूरी दुनिया के देश समानुपाती विकास की तरफ अग्रसर हों जिसमें अमीर देश गरीब देशों के विकास के लिए अपना अंश दान दें। विश्व व्यापार संगठन का लक्ष्य भी यही था कि पृथ्वी के प्राकृतिक स्रोतों का इस्तेमाल समूची दुनिया के विकास में इस प्रकार किया जाये कि गरीब देशों में उपलब्ध इन स्रोतों का उपयोग उनके विकास में हो सके। मगर ट्रम्प हैं कि अमेरिका को पुनः महान बनाने के नाम पर आर्थिक नीतियों का फलक लगातार सीमित कर रहे हैं। ताजा घटना क्रम में उन्होंने अमेरिका में आयात होने वाली पेटेंट दवाइयों व मुहबन्द औषधियों (फार्मूलेशंस) पर 100 प्रतिशत शुल्क लगा दिया है। बस इतनी कृपा जरूर की है कि उन्होंने मूल आषधियों ( जेनरिक) के आयात पर कोई शुल्क नहीं बढ़ाया।
पहले जब उन्होंने आयात शुल्क में परिवर्तन किये थे तो औषध उद्योग को इस दायरे से बाहर रखा था। ट्रम्प के इस फैसले से भारत पर ज्यादा असर इसलिए नहीं पड़ेगा क्योंकि भारत अमेरिका को जो दवाइयां निर्यात करता है उनमें जेनरिक दवाओं का हिस्सा 90 प्रतिशत से अधिक माना जाता है। इसमें उन्होंने एक शर्त यह भी लगा दी है कि जो दवा कम्पनियां अमेरिका को ब्रांडेड या पेटेंट दवाइयां निर्यात करती हैं यदि वे अपने संयन्त्र अमेरिका में लगा रही हैं तो उन्हें 100 प्रतिशत शुल्क से छूट मिलेगी। इससे ट्रम्प को अपने घरेलू दवा बाजार को सुरक्षित व संरक्षित रखने में सफलता मिलेगी। मगर अमेरिकी नागरिकों का औषधि खर्चा जरूर बढ़ेगा। जहां तक भारत का सवाल है तो वह अमेरिका को अपने कुल औषधि निर्यात का 40 प्रतिशत हिस्सा निर्यात करता है जो लगभग 9.8 अरब डालर का है। कुल अमेरिकी औषधि आयात में यह हिस्सा 6 प्रतिशत के करीब है। जहां तक ब्रांडेड औषधियों का प्रश्न है तो एक समस्या यह आ सकती है कि क्रोसिन जैसी ब्रांडेड दवा को अमेरिका जेनरिक की श्रेणी में रखेगा या ब्रांडेड की। भारत की प्रमुख एक दर्जन से अधिक दवा कम्पनियां ही अमेरिका को दवाओं का निर्यात करती हैं । कुल निर्यात मंे इनका हिस्सा 70 प्रतिशत से भी अधिक का है। इन कम्पनियों मे जायडस से लेकर सिपला व सनफार्मा तथा अलेम्बिक तक शामिल हैं। इन सभी कम्पनियों में से सन फार्मा सर्वाधिक ब्रांडेड या पेटेंट दवाएं अमेरिका को निर्यात करती है। अतः शुल्क बढ़ने का असर उसके कारोबार पर भी पड़ेगा। मगर अगले महीने अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय से शुल्क सम्बन्धी फैसला आने की उम्मीद है। सर्वोच्च अदालत में ट्रम्प के शुल्क बढ़ाने के अख्तियारों को चुनौती दी गई है। वर्ष 2024 में अमेरिका ने कुल 212,82 अरब डालर मूल्य की औषधियां आयात की थी जिनमें भारत का हिस्सा 12.73 अरब डालर का था। अमेरिका सबसे ज्यादा दवा आयात यूरोपीय देशों से करता है जिनमें सबसे बड़ा हिस्सा आयरलैंड जैसे छोटे से देश का है। इसने 2024 में अमेरिका को 50 अरब डालर से अधिक की दवाएं निर्यात की थीं। इसके बाद स्विटजरलैंड,व जर्मनी आते हैं। ये सभी देश अमेरीका को ऊंची गुणवत्ता वाली दवाएं निर्यात करते हैं। अतः शुल्क वृद्धि का सबसे ज्यादा असर भी इन देशों पर ही पड़ेगा।