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सियासी भूकम्प में फंसे उद्धव

महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र अघाड़ी सरकार सियासी भूकम्प में फंस गई है।

01:26 AM Jun 23, 2022 IST | Aditya Chopra

महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र अघाड़ी सरकार सियासी भूकम्प में फंस गई है।

सियासी भूकम्प में फंसे उद्धव
महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र अघाड़ी सरकार सियासी भूकम्प में फंस गई है। देशभर की निगाहें इस सियासी संकट पर लगी हुई हैं। इससे पहले भी दो बार ऐसे अवसर आए जब यह लगा था कि उद्धव सरकार बचेगी नहीं लेकिन सरकार झटके खाकर चलती रही। दरअसल संकट शिवसेना का है। शिवसेना के कद्दावर नेता एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में 33 पार्टी विधायक बगावत कर चुके हैं और इस गुट को 7 निर्दलियों का समर्थन भी प्राप्त है। राजनीतिक दलों में बगावत होती आई है। इससे पहले भी छगन भुजबल, नारायण राणे, राज ठाकरे की बगावत का अपना इतिहास रहा है। जब से महाराष्ट्र में अघाड़ी सरकार बनी है, तब से ही भाजपा और शिवसेना में तकरार चल रही है। तकरार की पटकथा 24 अक्तूबर, 2019 से ही लिखनी शुुरू हो गई थी, जब विधानसभा चुनावों के परिणाम आए थे। भाजपा और शिवसेना ने गठबंधन का चुनाव लड़ा था और दूसरी ओर कांग्रेस और राकांपा ने मिलकर चुनाव लड़ा था। चुनावों में भाजपा-शिवसेना गठबंधन को बहुमत लायक सीटें मिल गई थीं और भाजपा 106 सीटों के साथ सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी। मुख्यमंत्री कौन होगा, इसे लेकर मामला फंस गया था। उद्धव ठाकरे की महत्वाकांक्षाएं हिलाेरे मार रही थीं। भाजपा और शिवसेना में टकराव बढ़ा तो राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा।
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नवम्बर 2019 में भाजपा नेता देवेन्द्र फडणवीस ने राकांपा के अजित पवार से मिलकर नाटकीय अंदाज में मुख्यमंत्री पद की शपथ ली लेकिन 80 घंटे बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। तब शिवसेना, दिग्गज मराठा क्षत्रप शरद पवार की पार्टी राकांपा और  कांग्रेस ने मिलकर सरकार बनाई, यह भी राजनीतिक विडम्बना ही रही कि सबसे बड़ी पार्टी भाजपा सत्ता से बाहर हो गई। शिवसेना और भाजपा की हिन्दुत्व की विचारधारा एक समान है, इसलिए भाजपा और शिवसेना स्वाभाविक मित्र रहे। शिवसेना का सरकार के लिए और उद्धव ठाकरे का मुख्यमंत्री पद की लालसा में राकांपा और कांग्रेस के साथ हाथ मिलाना सैद्धांतिक रूप से ही गलत था।
महाराष्ट्र और केन्द्र के बीच रस्साकशी की कहानी से कई छोटे-बड़े इंटरबल आते रहे लेकिन  इस बार संकट काफी बढ़ा है। मनी लांड्रिंग के आरोपों में महाराष्ट्र के गृहमंत्री अनिल देशमुख की गिरफ्तारी के बाद बहुत सारे सवाल उठे। मुम्बई के पूर्व पुलिस आयुक्त परमवीर सिंह ने अनिल देशमुख पर पुलिस अधिकारियों के जरिये हर महीने 100 करोड़ रुपए वसूली के आरोप लगाए थे। उसके बाद बाम्बे हाईकोर्ट ने उनके ​खिलाफ  सीबीआई जांच के आदेश दिए थे। इसलिए उन्हें गृहमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था। फिल्म अभिनेता शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान की ड्रग्स मामले में गिरफ्तारी के बाद उद्धव सरकार के मंत्री और राकांपा नेता नवाब मलिक ने एनसीबी के तत्कालीन मुम्बई डिवीजन के डायरेक्टर समीर वानखेड़े पर सनसनीखेज आरोप लगाए थे। उन्होंने यह भी आरोप लगाया था कि समीर वानखेड़े महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस के करीबी हैं और ड्रग्स के फर्जी मामले बनाकर लोगों से उगाही करते हैं। बाद में अंडरवर्ल्ड से संबंध रखने और मनी लांड्रिंग के आरोपों में नवाब मलिक की भी गिरफ्तारी हो गई। अनिल देशमुख और नवाब मलिक इन दिनों दोनों जेल में हैं। महाराष्ट्र के एक और मंत्री अनिल परब अब ईडी के निशाने पर हैं। महाराष्ट्र सरकार और भाजपा एक-दूसरे पर निशाना साधने में कोई मौका नहीं छोड़ रहे लेकिन जनता की नजर में उद्धव सरकार की छवि एक वसूली गिरोह के रूप में स्थापित हो चुकी है। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे भाजपा पर बेवाकी से हमले करते रहे हैं और वे हिन्दुत्व और केन्द्रीय एजैंसियों के कामकाज को मुद्दा बनाते रहे हैं।
एकनाथ शिंदे की बगावत के बाद सरकार की स्थिरता पर गम्भीर प्रश्नचिन्ह लग गया है। यह बगावत शिवसेना का आंतरिक मामला है। आज की राजनीति में जनप्रतिनिधियों के लिए सिर्फ अपने हित सर्वोपरि हो चुके हैं और राजनीति सिद्धांतहीन और विचारधारा विहीन हो चुकी है। यह स्थिति लोकतंत्र के लिए सुखद नहीं कही जा सकती। उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद के ​लिए भाजपा के साथ चुनावपूर्व गठबंधन को तोड़कर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस से हाथ मिलाया था, जबकि शिवसेना की इन राजनीतिक दलों से विचारधारा मेल नहीं खाती। लेकिन  देश में ऐसी राजनीति पनप चुकी है जिसमें सिर्फ सत्ता सुख ही एकमात्र  बन गया है बाकी सब बातें कोई मायने नहीं रखतीं।
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सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि महाराष्ट्र सरकार के मंत्री एकनाथ शिंदे ने आखिर बगावत क्यों की। ढाई साल पहले मुख्यमंत्री पद की दौड़ में एकनाथ शिंदे का नाम था लेकिन राजनीतिक समीकरण बदले और उद्धव ठाकरे खुद सीएम बन गए। यह भी सच है कि शिवसेना में जिस आदमी का राजनीतिक कद बढ़ता है तो उसके पर काट दिए  जाते हैं। आनंद ​दीघे के साथ जो कुछ हुआ वही एकनाथ शिंदे के साथ हुआ। एकनाथ ​शिंदे और उनके साथी विधायकों की शिकायत है कि उन्हें काम के लिए फंड नहीं मिलता और वे अपने काम नहीं करवा पाते। सारे मलाईदार मंत्रालय राष्ट्रवादी कांग्रेस के पास हैं। उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे का हस्तक्षेप ज्यादा है। उनकी यह भी ​शिकायत है कि उद्धव ठाकरे अपनी ही पार्टी के विधायकों से नहीं मिलते। फिलहाल एकनाथ शिंदे ने यह स्टैंड लिया है कि अगर शिवसेना भाजपा के साथ ​मिलकर सरकार बनाए तो पार्टी नहीं टूटेगी। राज्यसभा चुनावों और विधान परिषद चुनावों में पार्टी विधायकों का असंतोष सामने आ चुका है। अगर अपना घर सम्भाल सकती तो फिर भाजपा को दोष देना अर्थहीन है। शिवसेना के​ विधायक टूटे तो इसका सीधा अर्थ है कि पार्टी नेतृत्व का अपने विधायकों के साथ कोई संवाद नहीं था। सिद्धांतहीन राजनीति का विद्रुप चेहरा सामने आ चुका है। उद्धव ठाकरे ने फेसबुक पर अपने सम्बोधन में यह स्पष्ट कर दिया कि वह इस्तीफा देने को तैयार हैं लेकिन बागी विवधायक उनके सामने आकर बात करें। उद्धव सरकार का गिरना कोई आश्चर्यजनक नहीं होगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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