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‘राष्ट्रीयता’ का अर्थ समझें ‘स्याहपोश जरनैल’ से

04:15 AM Jul 28, 2025 IST | Dr. Chander Trikha
‘राष्ट्रीयता’ का अर्थ समझें ‘स्याहपोश जरनैल’ से

हमें न जाने ‘राष्ट्रीयता’ या ‘भारत माता की जय’ पर मचे अनावश्यक बवाल से फुर्सत कब मिले, मगर इसे सही अर्थों में समझना हो तो दिल्ली के एक भूले-बिसरे ‘स्याहपोश जरनैल’ को याद कर लें। लगभग 26 वर्ष ब्रिटिश शासकों की जेल में कटे। पूरी उम्र काले वस्त्र पहने, पहले ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध रोष के लिए और बाद में साम्प्रदायिकता के खिलाफ अपना विरोध व्यक्त करने के लिए। यानि पूरी जि़न्दगी व्यवस्था के खिलाफ जंग में ही गुजार दी।
जी हां! शायद विश्व के स्वाधीनता-संग्रामों के इतिहास में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता। आप शायद आसानी से यकीन न करें मगर यह तथ्य है कि स्वाधीनता सेनानियों की फहरिस्त में एक ऐसा नाम भी शामिल है जिसने अपनी सारी जि़न्दगी में सिर्फ काले वस्त्र ही पहने। उस व्यक्ति ने अपनी जवानी का एक लम्बा हिस्सा ब्रिटिश साम्राज्य की जेलों में बिताया मगर अपने वस्त्रों का रंग नहीं बदला। शहीदे आजम भगत सिंह उन्हें ‘स्याह जरनैल भी कहा करते थे।’
गत दिवस हरियाणा विधानसभा की एक गैलरी से गुजरा तो नजर एक फोटो पर टिक गई। यह फोटो भारत-पाक विभाजन के समय दिल्ली में आकर बसे लाला केदारनाथ सहगल की थी। इस चित्र का अनावरण डेढ़ दशक पूर्व उस समय के मुख्यमंत्री ने किया था। चित्र देखते ही उस शख्स का व्यक्तित्व ज़ेहन में कौंध गया। हम अक्सर कुछेक ऐसे स्वाधीनता सेनानियों को भी भुला बैठते हैं, जिनकी जि़न्दगी का एक-एक लम्हा प्रेरक बिन्दु बन जाता है। लाला केदारनाथ सहगल स्वाधीनता संग्राम के मध्य 1911 से लेकर 1947 तक 26 वर्ष जेल रहे। एक बार तो जेल में रहते हुए ही 1945 में उन्होंने लाहौर से पंजाब विधानसभा का चुनाव भी जीता था। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद वह फरीदाबाद से विधायक चुने गए थे।
उनकी स्वाभिमानी एवं जुझारू ​जिन्दगी की अनेक घटनाएं विलक्षण हैं। वह अपने संकल्पों के लिए कितने समर्पित थे, इस बात का अनुमान उनके जीवन से जुड़ी अनेक घटनाओं से लगाया जा सकता है। उनके व्यक्तित्व की एक विलक्षण बात यह भी थी कि उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ अपना विरोध प्रकट करने के लिए पूरी जुझारू जिन्दगी काले वस्त्र पहने। लाला लाजपत राय ने उन्हें अपने अखबार वन्दे मातरम का प्रकाशक एवं महाप्रबंधक बनाया था। अक्तूबर 1899 में लाहौर में जन्मे इस विलक्षण स्वाधीनता सेनानी ने 25 फरवरी 1963 को दिल्ली में अंतिम सांस ली थी।
लाला केदारनाथ भी शहीदे आजम भगत सिंह के साथियों में शुमार थे। वह उन दिनों शहीदे आजम द्वारा स्थापित नौजवान भारत सभा की पहली पंक्ति में थे। यह सभा 12 अप्रैल, 1928 को गठित की गई थी। इसकी गतिविधियां लाहौर व मेरठ से संचालित होती थी। उन्हीं दिनों ‘लाहौर-षड्यंत्र केस’ के साथ-साथ ‘मेरठ षड्यंत्र केस’ भी ब्रिटिश हुकूमत ने गढ़ा था। ‘गढ़ा’ शब्द का प्रयोग सिर्फ इसलिए कर रहा हूं क्योंकि ऐसे मामलों में गवाह भी झूठे होते थे और पूरा इस्तगासा भी झूठ पर आधारित होता था। यहां तक कि शहीदे आजम भगत सिंह को जिस ‘केस’ में फांसी हुई थी, वह भी ‘गढ़ा’ गया था। उनके खिलाफ एक मुकदमा अब भी लाहौर में विचाराधीन है।
मार्च 1929 में वहां ‘मेरठ-षड्यंत्र केस’ के तहत जिन क्रांतिकारियों को गिरफ्तार किया गया था उनमें लाला केदारनाथ सहगल, सोहन सिंह जोशी और अब्दुल मजीद प्रमुख थे। शहीदे आजम ने स्वयं उनकी गिरफ्तारी की कड़े शब्दों में निंदा की थी। शहीदे आजम वैसे भी केदारनाथ सहगल को अपना भाई मानते थे और जब भी मिलते, उनसे गले मिलते। उनका नाम ‘लाहौर-षड्यंत्र केस’ में भी शामिल था। उनके अन्य सहयोगियों व समकालीनों में रास बिहारी बोस, विष्णु गणेश पिंगले, चंद्र शेखर आजाद, सूफी अम्बा प्रसाद और भाई परमानंद भी शामिल थे। उनके घनिष्ट सहयोगियों में ‘पंजाब केसरी’ के संस्थापक लाला जगत नारायण और पूर्व उपप्रधान मंत्री चौधरी देवीलाल भी शामिल थे। यह विचित्र विसंगति ही है कि पंजाब या हरियाणा में ऐसे विलक्षण स्वतंत्रता सेनानी का कोई उपयुक्त स्मारक भी नहीं है।
उनके एक सहयोगी कामरेड क्रांति कुमार भी थे जो नौजवान भारत सभा के दूसरे महासचिव बने थे। क्रांति कुमार बाद में पानीपत में जा बसे थे, वहां 1966 में उन्हें एक उन्मादी भीड़ ने जीवित जला दिया था। क्रांति कुमार बताते थे कि यद्यपि सभा के संस्थापक स्वयं भगत सिंह थे, मगर 1928 में सभा के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता लाला केदारनाथ से ही कराई गई थी। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी वह 15 वर्ष तक काले वस्त्र ही पहनते रहे। उन्हें इस बात का गहरा दुख था कि जिस स्वाधीनता के लिए हिन्दू, मुस्लिम मिलकर जूझे थे, उसकी प्राप्ति के समय दोनों ही एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए। अगस्त 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में तीन वर्ष के लिए नज़रबंद कर लिए गए थे। सन् 1945 में जब लाहौर जेल में थे तो उनको साथियों ने पंजाब विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए मजबूर किया और वह 8000 मतों से जीत गए।
सन् 1952 से 1957 तक वह फरीदाबाद से पंजाब विधानसभा के सदस्य थे। कुछ समय तक पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री भीम सेन सच्चर के मंत्रिमण्डल में उप-मंत्री के पद पर भी रहे।
उस समय भी यह जन-कल्याण के लिए और गुलामी से थकी-हारी हुई जनता के उत्थान के लिए कार्य करते रहे, विशेष तौर पर शिक्षा के क्षेत्र में। अंत में 1963 मेें हृदय गति रुक जाने के कारण देहांत हो गया और इस स्याह पोश जरनैल का कफन भी काले रंग का ही था। उनके पोते राजीव सहगल व अन्य परिवार-सदस्य इस समय दिल्ली में ही रहते हैं और सिविल लाइंस की जिस कॉलोनी में रहते हैं वह ‘सहगल कॉलोनी’ के नाम से ही जानी जाती है। लाला केदारनाथ सहगल की स्मृतियों को उनके परिवार ने तो अब तक सम्भाला हुआ है, मगर पंजाब-हरियाणा की सरकारों को उनकी याद ज्यादा नहीं आती। वैसे भी हमारा परिवेश अब उतना संवेदनशील कहां है?

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