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समान नागरिक आचार संहिता और मुसलमान

राजधानी दिल्ली की कालोनी जहांगीरपुरी में बुधवार को अवैध निर्माण को हटाये जाने के बाद और सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप पर उसे रोक दिये जाने के बाद भारत में जिस तरह राजनैतिक बावेला मचाया जा रहा है उसका मन्तव्य केवल एक ही है कि कुछ लोगों को कानूनी कार्रवाई पर ही भरोसा नहीं है

12:42 AM Apr 22, 2022 IST | Aditya Chopra

राजधानी दिल्ली की कालोनी जहांगीरपुरी में बुधवार को अवैध निर्माण को हटाये जाने के बाद और सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप पर उसे रोक दिये जाने के बाद भारत में जिस तरह राजनैतिक बावेला मचाया जा रहा है उसका मन्तव्य केवल एक ही है कि कुछ लोगों को कानूनी कार्रवाई पर ही भरोसा नहीं है

समान नागरिक आचार संहिता और मुसलमान
राजधानी दिल्ली की कालोनी जहांगीरपुरी में बुधवार को अवैध निर्माण को हटाये जाने के बाद और सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप पर उसे रोक दिये जाने के बाद भारत में जिस तरह राजनैतिक बावेला मचाया जा रहा है उसका मन्तव्य केवल एक ही है कि कुछ लोगों को कानूनी कार्रवाई पर ही भरोसा नहीं है और वे इस पूरे मामले को हिन्दू-मुस्लिम नजरिये से देख रहे हैं। यह हिन्दू-मुस्लिम नजरिया उस मुहम्मद अली जिन्ना की देन है जिसने भारत के दो टुकड़े कराये थे और मुसलमानों के लिए अंग्रेजों से अलग पाकिस्तान बनवाया था। जिन्ना ने न केवल धर्म के आधार पर बल्कि सामाजिक व आर्थिक आधार पर भी मुसलमानों को हिन्दुओं से अलग दिखाने की कोशिश की और ‘इस्लामी अर्थव्यवस्था’ तक का नजरिया उन हिन्दोस्तानी मुसलमानों को दिया जिनकी पुरानी पीढि़यों ने इसी धरती पर आंखें खोली थीं। आजादी का आन्दोलन जब महात्मा गांधी ने इस देश में कांग्रेस के नेतृत्व में चलाया तो उन्होंने भारत के मुसलमानों को भी इस मुहीम में शामिल करना चाहा और इस पार्टी के दरवाजे भारत के सभी धर्मों के लोगों के लिए खोले। इसी वजह से हम देखते हैं कि 1947 तक इस पार्टी के अध्यक्ष पद पर विभिन्न धर्मों के धुरंधर नेता रहे जिनमें मुसलमान भी थे और पारसी भी थे और यहां तक कि एंग्लो इंडियन (श्रीमती एनी बेसेंट) भी थे। मगर इससे पहले ही 1906 में भारत में मुस्लिम लीग की नींव पड़ चुकी थी और 1909 में अंग्रेजों ने मुसलमानों के लिए पृथक चुनाव मंडल का इन्तजाम कर दिया था जिससे वे कांग्रेस के देश के आजादी के आन्दोलन से अलग-थलग रह सकें किन्तु इसके बाद जब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत आये और उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारत के मुसलमानों की मांग पर तुर्की में ‘मुस्लिम खलीफा’ के समर्थन में चल रहे ‘खिलाफत आन्दोलन’ का पक्ष लिया तो भारत के विभिन्न इलाकों के मुस्लिम नेताओं ने कांग्रेस की सदस्यता ली और इसकी आजादी की मुहीम का समर्थन किया और मुस्लिम लीग को कोई तवज्जों नहीं दी।
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इसके बाद 1919 में जब अंग्रेजों ने प्रथम विश्व युद्ध जीतने के बाद ‘रालेट एक्ट’ लागू किया तो महात्मा गांधी ने असहयोग आन्दोलन शुरू किया और कांग्रेस की सदस्यता के लिए चवन्नी (चार आने) की फीस रख दी। हालांकि यह आन्दोलन हिंसा भड़क जाने पर महात्मा गांधी ने वापस ले लिया परन्तु कांग्रेस पार्टी इस देश के लोगों की आजादी का जन आन्दोलन बन गई। इस जन आन्दोलन में हिन्दू और मुसलमान मिल कर शिरकत करने लगे परन्तु मुस्लिम लीग अंग्रेजों की शह पर भारत के भीतर ही मुस्लिम बहुल पृथक स्वतन्त्र मुस्लिम राज्य की मांग को आगे बढ़ाने लगी। 1930 में प्रयागराज (इलाहाबाद) में मुस्लिम लीग का सम्मेलन हुआ जिसकी अध्यक्षता ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ लिखने वाले मशहूर शायर अल्लामा इकबाल ने की और उसमें उत्तर-पश्चिम के मुस्लिम बहुल इलाके में पृथक मुस्लिम राज्य स्थापना का नारा दिया । उस समय तक मुस्लिम लीग के सदस्य केवल कुछ बड़े- बड़े जागीरदार या जमींदार थे जिनकी कुल संख्या दो हजार से भी कम थी।
  हद तो यह थी कि इलाहाबाद के लीगी सम्मेलन में कोरम( नियमाचार) पूरा करने के लिए आवश्यक मुस्लिम सदस्यों की संख्या भी नहीं थी जो कुल 75 थी। इस कोरम को पूरा करने के लिए इलाहाबाद के मुस्लिम दुकानदारों को उनकी दूकानें बन्द करा कर बुलाया गया और किसी तरह प्रस्ताव पारित कराया गया। इसके बाद 1931 में कराची में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ जिसकी सदारत सरदार वल्लभ भाई पटेल ने की और उसमें भारतीय नागरिकों को मौलिक अधिकार (फंडामेटल राइट्स) देने का प्रस्ताव पारित हुआ। मगर इसी सम्मेलन में मुसलमानों की मजहबी रवायतों को देखते हुए यह छूट दी गई कि मुसलमान नागरिकों के लिए अपने घरेलू मामलों में शरीयत या धार्मिक कानूनों पर चलने की छूट होगी। मौलिक अधिकारों में प्रत्येक स्त्री व पुरुष के अधिकार हर क्षेत्र में बराबर होते हैं और ‘व्यक्ति की हैसियत’ सर्वोपरि होती है जिन्हें हम मानवाधिकार भी कहते हैं। केवल उस समय तक ही नहीं बल्कि 1936 तक कांग्रेस पार्टी मुसलमानों में बहुत लोकप्रिय थी और हालत यह थी कि 1930 में जिन मुस्लिम बहुल उत्तर-पश्चिम प्रान्तों पंजाब, सिन्ध व सीमा प्रान्त आदि को मिला कर इकबाल ने मुस्लिम राज्य का फलसफा दिया था उन सभी में 1936 में ही हुए प्रान्तीय एसैम्बली के चुनावों में मुस्लिम लीग का सूपड़ा साफ हो गया था।
 संयुक्त पंजाब में इसे मुस्लिमों के लिए आरक्षित 75 के लगभग सीटों में से केवल दो सीटें ही मिली थीं और सिन्ध में इसे एक भी सीट नहीं मिली थी तथा उत्तर पचिम सीमान्त राज्य में सरहदी गांधी  खान अब्दुल गफ्फार खान की खुदाई खिदमतगार पार्टी ने कांग्रेस के साथ मिल कर मुस्लिम लीग को धूल चटा दी थी। केवल बंगाल में मुस्लिम लीग कुछ अच्छी सीटें जीत पाई थी लेकिन तब यीपी, सीपी, बिहार में मुस्लिम लीग को कुछ सीटें मिली थी। अतः बाद में आगे 1947 में चल कर इन्हीं राज्यों के मुसलमानों ने पाकिस्तान के निर्माण में सबसे ज्यादा तास्सुबी भूमिका निभाई और पंजाब जैसे हिन्दू-मुस्लिम सांस्कृतिक समागम को खून से नहला दिया।
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 यह पूरा वृत्तान्त लिखने का मन्तव्य यह है कि 1947 में भारत के स्वतन्त्र व धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बन जाने के बाद कांग्रेस का 1931 का कराची सम्मेलन का प्रस्ताव मर चुका था क्योंकि भारत के मुसलमानों के लिए जिन्ना ने अलग देश पाकिस्तान ले लिया था। अतः भारत में रहने वाले हर नागरिक के लिए मौलिक अधिकारों की समानता हेतु एक समान नागरिक आचार संहिता जरूरी थी। मगर प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू इस मुद्दे पर चूक गये और उन्होंने संविधान में कांग्रेस के 1931 के कराची प्रस्ताव को ही जिन्दा बनाये रखा और एक समान नागरिक आचार संहिता को मुसलमानों पर ही छोड़ दिया। यह भारत के साथ ज्यादती हो गई क्योंकि आजाद भारत में रहने वाला हर मजहब का व्यक्ति केवल भारतीय था। किसी मजहब के लोगों के लिए  विशेषाधिकारों की दरकार स्वतन्त्र भारत नहीं मांग रहा था। यह बराबरी के सिद्धान्त और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने की बात कर रहा था। अतः आजादी के 75वें साल में हम सोचें कि एक समान नागरिक आचार संहिता को लागू करके क्या हम भारत से हिन्दू-मुस्लिम विभेद को खत्म कर सकते हैं।
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