उर्दू को जबानी जमा-खर्च नहीं, मुहब्बत चाहिए!
इस बात की मुहर कि भारत साझा विरासत और गंगा-जमुनी तहज़ीब का प्रतीक…
इस बात की मुहर कि भारत साझा विरासत और गंगा-जमुनी तहज़ीब का प्रतीक रहा है, हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने लगा दी है, जिसमें अकोला, महाराष्ट्र की एक पूर्व काउंसलर द्वारा एक केस आया था कि एक सरकारी भवन पर मराठी के साथ उर्दू का साइन बोर्ड अनुचित है। शाबाशी देनी होगी उच्चतम न्यायालय को कि न्यायाधीश, सुधांशु धूलिया और के. विनोद चंद्रन ने ऐतिहासिक निर्णय दिया कि महाराष्ट्र भाषा परिषद के कानून के अनुसार उर्दू मराठी के साथ साइन बोर्ड पर लिखी जा सकती है। यह निर्णय हिंदू-मुस्लिम सद्भावना व समरसता का भी प्रतीक है।
मजे की बात यह है कि भारत में उर्दू के संरक्षण के लिए मुस्लिम नहीं, बल्कि हिंदू अग्रसर हैं, जो इस बात का प्रतीक है कि उर्दू साझा विरासत की भाषा है। उर्दू भाषा का विकास शुरू में भारतीय उपमहाद्वीप की प्रकृति पर प्रमुख आक्रमण के दौरान अरबी संदर्भ से विकसित होना शुरू हुआ। उर्दू भाषा मुख्य रूप से मुगल साम्राज्य (1526-1878) की अवधि के दौरान उत्पन्न हुई, दिल्ली स्थित सल्तनत (1206 से 1526)। उर्दू शायरी का स्वर्णिम काल 18वीं से 19वीं शताब्दी में चला। सुप्रीम कोर्ट का कहना था, “भाषा कोई मजहब नहीं होती और ना ही यह किसी मजहब का प्रतिनिधित्व करती है। भाषा एक समुदाय, क्षेत्र और लोगों की होती है, ना कि किसी मजहब की भाषा संस्कृति है और सभ्यता की प्रगति को मापने का पैमाना है।”
सच्चाई यह है कि उर्दू भाषा का जन्म भारत में हुआ और अलग-अलग इलाकों में इसका अपने तरीके से विकास हुआ। शायरी, साहित्य और अकादमिक भाषा तो ये है ही, सरकारी कामकाज की भी भाषा रह चुकी है और सबसे खास बात यह कि उर्दू आम जनजीवन की भाषा रही है। हिन्दी और उर्दू का विकास भी एक-दूसरे के समानांतर होता है और इनमें तमाम समानताएं भी हैं।
भारत सरकार ने उर्दू को बढ़ावा देने के लिए कई प्रयास किए हैं, जैसे कि “राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद” की स्थापना की जो कि उर्दू को प्रोत्साहन देने के लिए है और जो विश्व का सबसे बड़ा सरकारी संगठन है जैसा कि इसके मौजूदा अध्यक्ष शम्स इकबाल ने बताया। यह आए दिन मुशायरों, संगोष्ठियों, पुस्तक विमोचनों आदि द्वारा उर्दू का उत्थान किया जाता है। इसकी वेबसाइट आदि द्वारा उर्दू की नई बस्तियां भी बसाई जा रही हैं। कुछ निजी संगठन भी उर्दू के उपयोग और संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए कार्य करते हैं। जिस प्रकार से फिरंगियों ने 1857 और 1947 में भारत-पाक और हिंदू-मुस्लिम को विभाजित किया था, उसी प्रकार से उन्होंने उर्दू व हिंदी को भी विभाजित कर दिया। बक़ौल रविश सिद्दीकी:
“उर्दू जिसे कहते हैं तहज़ीब का चश्मा है,
वो शख्स मोहज्जब है जिस को ये ज़बां आई!”
यह राष्ट्र भक्ति और राष्ट्र ज्योति की भाषा है, क्योंकि इसमें लिखने और शायरी करने वालों की एक बड़ी संख्या गैर मुस्लिम लेखकों और शायरों की भी है, जिनमें से बहुतसों ने अपने नाम में उर्दू “तखल्लुस” (उप नाम) जोड़ लिया था, जैसे, राम प्रसाद “बिस्मिल” हो गए, रघुपति सहाय “फिराक गोरखपुरी” बन गए, पंडित आनंद मोहन जुत्शी “गुलज़ार देहलवी” बन गए, बृज मोहन दत्तात्रेय “कैफ़ी” हो गए, बृज नारायण “चकबस्त” बन गए, दया चंद “नसीम” हो गए, हरि चंद “अख्तर” बन गए, राजेंद्र सिंह बेदी “सहर” हो गए, जगन्नाथ “आज़ाद” हो गए, तिलोक चंद “महरूम” हो गए, आनंद नारायण ” मल्ला” हो गए, संपूर्ण सिंह “गुलज़ार” बन गए, कृष्ण बिहारी “नूर” हो गए तो उपेंद्र नाथ “अश्क” बन गए। इस प्रकार के और भी कई उदाहरण हैं।
चाहे वह पूर्व राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद हों या शंकर दयाल शर्मा हों दोनों ने उर्दू मदरसे या उर्दू के उस्तादों से सीखी थी। समाज सुधारक राजा राममोहन राय ने तो उर्दू, फ़ारसी और अरबी भी सीखी थी और अपना फ़ारसी अख़बार, “मिरात-उल-अख़बार” फ़ारसी में प्रकाशित करते थे, जिसे अंग्रेजों ने झूठे आरोप लगा कर बंद कर दिया था, जैसे भारत रत्न, मौलाना आज़ाद के “अल-हिलाल” और “अल-बलाग़” की जमानत ज़ब्त कर ली गई थी।
बगैर उर्दू के ना साहित्य लिखा जा सकता है ना फिल्मों की कहानियां लिखी जा सकती हैं। उर्दू के बिना कोई चार शब्द बोलकर दिखाए। वैसे भी भारत की संसद में पंडित जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह, मौलाना आज़ाद, महमूद बनतवाला, सुषमा स्वराज, कपिल सिब्बल, सैयद सलाहुद्दीन ओवैसी, इमरान प्रतापगढ़ी, इकरा हसन आदि अपने अनोखे शायराना अंदाज़ में आपसी नोकझोंक करते रहे हैं।
यूं तो भारत की सभी 23 भाषाएं बराबरी से प्यारी हैं, मगर कहा जाता है कि यदि आपको इश्क करना है तो उर्दू सीखिए और अगर उर्दू सीखनी है तो इश्क़ कीजिए, जैसा कि नौशा मियां, मिर्ज़ा ग़ालिब ने भी कहा था कि “इश्क़ पर जोर नहीं, है यह वह आतिश ग़ालिब।
इश्क-ओ- मुआशिके से बढ़ कर ऊर्दू अंतर्धर्म समभाव, सद्भावना व सदाचार की भाषा भी है, जिसमें योगीराज, श्री कृष्ण पर, होली, दीवाली, दशहरे पर नामचीन उर्दू शायरों ने कविताएं और ग़ज़लें लिखी हैं। बहादुरशाह ज़फ़र के दौर में दिल्ली के रामलीला मैदान में दशहरे की चौपाईयां फ़ारसी में बोली जाती थीं और साझा विरासत की थीम के अंतर्गत होली के समय लाल किले के पीछे दिल्ली और बाहर से टुकड़ियां शहंशाह के होली-ठिठोली कंपीटिशन में भाग लेकर इनाम जीता करती थीं।
आज उर्दू इसलिए पिछड़ रही है कि स्वयं ऊर्दू वाले ही इसका साथ नहीं दे रहे क्योंकि प्रथम तो यह कि वे स्वयं ही यह कहते नहीं थकते कि उर्दू समाप्त हो रही है।
वे यह भी कहते हैं कि उर्दू मुस्लिमों की ज़बान है, जो ठीक नहीं, क्योंकि यह साझा विरासत की भाषा है। इसके अतिरिक्त वे उर्दू के प्रोफेसर जो बड़ी-संगोष्ठियों में चिल्लाते हैं कि उर्दू ऑक्सीजन पर है और मर रही है, उन सबके बच्चे मिशनरियों, अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ते हैं और मीर व ग़ालिब की उर्दू के लिए मगरमच्छी आंसू बहाते हैं। आज आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का दौर है और उर्दू को इससे व आधुनिक तकनीक जोड़ना अत्यंत आवश्यक है। उर्दू के साथ कुछ ऐसा ही हुआ, जैसे मशहूर शायर साहिर लुधियानवी ने कहा था:
“वो अफ्साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन,
उसे इक ख़ूबसूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा!”