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वन्दे मातरम्

04:00 AM Nov 21, 2025 IST | Kumkum Chaddha
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वन्दे मातरम्
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यह मायने नहीं रखता कि आग भड़काने का काम सत्ताधारी दल ने किया या फिर नेता प्रतिपक्ष ने, यह भी गौण है कि मामला भाजपा का है या कांग्रेस का। महत्वपूर्ण यह है कि राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् को लेकर विवाद एक बार फिर भड़क उठा है।
यह अलग बात है कि वर्षों, बल्कि दशकों तक बंगालियों को छोड़कर लगभग सभी ने ‘वंदे मातरम्’ को ‘वंदे मातरम्’ ही उच्चारित किया, यह सहज ही भूलते हुए कि बंगला भाषा में ‘V’ ध्वनि होती ही नहीं लेकिन ‘वंदे मातरम्’ चलन में आया और आज तक उसी रूप में बना हुआ है। परंतु ‘ब’ और ‘व’ के इस अंतर से परे, इस आदरणीय गीत में एक सांप्रदायिक कोण भी जुड़ा है। यह गीत 1875 में लिखा गया था और सात वर्ष बाद प्रकाशित हुआ। इसके रचनाकार थे बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय, जो उस समय डिप्टी मजिस्ट्रेट और डिप्टी कलैक्टर के पद पर कार्यरत थे।
आज बंकिम चंद्र अपनी कब्र में करवटें बदल रहे होंगे, यह देखकर कि किस तरह देशभक्ति और राष्ट्रवाद को राजनीतिक हितों के लिए तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है। यह भी कह देना आवश्यक है कि इसके लिए केवल वर्तमान शासन को दोषी ठहराना न तो सही है और न ही न्याय संगत। वह तो सिर्फ इतिहास के उन्हीं पन्नों को पलट रहा है, जिन्हें बहुत कम लोगों ने पढ़ा है और अधिकांश ने कभी देखा ही नहीं। सच्चाई यह है कि वंदे मातरम् स्वतंत्रता सेनानियों के लिए किसी युद्ध-नाद से कम नहीं था। ब्रिटिश सरकार ने इसे प्रतिबंधित कर दिया था लेकिन स्वतंत्रता के बाद इसे भारत के राष्ट्रीय गीत के रूप में अपनाया गया, राष्ट्रीय गान जन गण मन के समकक्ष स्थान देकर। बंगाली और संस्कृत के मेल वाला यह गीत कुल छह पदों का था, जिसे बंकिम चंद्र ने अपने गांव में एक आम के पेड़ के नीचे बैठकर लिखा था। बाद में उन्होंने इसे अपने उपन्यास आनंदमठ में भी स्थान दिया किंतु यह गीत उस समय सुर्खियों में आया जब तत्कालीन कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे गाया। चूंकि कुछ पदों में देवी के संदर्भ थे, मुस्लिम समाज के एक वर्ग ने इसे धार्मिक स्वरूप वाला माना और कहा कि यह राष्ट्रवादी कम, धार्मिक अधिक है तथा इस्लाम के अनुरूप नहीं।
मुस्लिम लीग ने तो यहां तक कहा कि “इसके हृदय में निराशा और हताशा भरी हुई है” और “राष्ट्रवाद की आड़ में भारत में हिंदू राष्ट्रवाद का प्रचार किया जा रहा है।” मुहम्मद अली जिन्ना ने स्पष्ट कहा कि मुसलमान वंदे मातरम् को राष्ट्रीय गीत मानने से इंकार करते हैं। जवाहरलाल नेहरू भी उन लोगों में थे जिन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को लिखा कि वंदे मातरम् मुस्लिम समुदाय को “कष्ट पहुंचा सकता है।” उन्होंने रवीन्द्रनाथ टैगोर को भी इसी आशय का पत्र भेजा था। बाद में कांग्रेस ने समावेशिता के आधार पर गीत के केवल पहले दो पद अपनाए, यह कहते हुए कि केवल वे ही हिस्से स्वीकार्य हैं “जिन पर धार्मिक या अन्य किसी आधार पर आपत्ति नहीं की जा सकती।” गीत की रचना के 150 वर्ष बाद, इसके बोल एक बार फिर विवादों में घिर गए हैं।
राष्ट्रीय गीत की 150वीं वर्षगांठ के वर्षभर चलने वाले समारोहों की शुरुआत करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने देश को याद दिलाया कि कांग्रेस ने वंदे मातरम् के महत्वपूर्ण पद हटा दिए थे। उन्होंने कहा, “1937 में वंदे मातरम् के महत्वपूर्ण चरण, इसकी आत्मा के हिस्से को काट दिया गया। वंदे मातरम् को तोड़ दिया गया, टुकड़ों में बांट दिया गया। इसी विभाजन ने देश के बंटवारे के बीज भी बोए।” साथ ही उन्होंने कहा कि नई पीढ़ी को यह जानना चाहिए कि “इस गीत के साथ ऐसा अन्याय क्यों हुआ।” कांग्रेस भी पीछे हटने वालों में नहीं है। उसका कहना है कि पहले दो अनुच्छेद अपनाने का सुझाव स्वयं रवीन्द्रनाथ टैगोर ने दिया था। उसने प्रधानमंत्री मोदी से माफी की भी मांग की है, टैगोर का “अपमान करने” और “गुरुदेव पर विभाजनकारी विचारधारा का आरोप लगाने” के लिए। खड़गे ने एक कदम आगे बढ़कर कहा कि भाजपा और आरएसएस ने न तो अपनी शाखाओं में और न ही दफ्तरों में वंदे मातरम् या जन गण मन कभी गाया, “इसके बजाय वे अब भी नमस्ते सदा वत्सले गाते हैं, एक गीत जो राष्ट्र की नहीं, उनके संगठन की महिमा करता है,” कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा। विवाद से इतर, यह स्वीकार करना होगा कि भाजपा ने राष्ट्रवाद को राजनीतिक विमर्श के केंद्र में लाने और इतिहास की विकृतियों को उजागर करने, कभी-कभी सुधारने का काम किया है।
वंदे मातरम् विवादों में घिरा है, यह सर्वविदित है लेकिन कितनों को पता था कि जिस राष्ट्रीय गीत को भारतीय गर्व से गाते आए हैं, वह अधूरा है? या यह कि कुछ पद हटाए गए किसी एक वर्ग को खुश करने के लिए, दूसरे की कीमत पर? भाजपा पर यह आरोप लगाया जा सकता है कि उसने एक पुराना विवाद फिर जगा दिया, पर हर भारतीय का अधिकार है कि वह तथ्य जाने और चाहे तो भाजपा की व्याख्या से सहमत हो या असहमत। देश के हर नागरिक का अधिकार है कि इतिहास को उसी रूप में जाने, न कि उस संस्करण में जिसे कांग्रेस या कोई भी राजनीतिक दल युवाओं को परोसना चाहता है, खासकर उस पीढ़ी को जो सोशल मीडिया पर पलती है और अक्सर आधी-अधूरी बातों से प्रभावित होती है। उदाहरण के तौर पर हमारे स्वतंत्रता सेनानियों को ही लें, वे जिन्होंने देश के लिए खून बहाया, फांसी पर चढ़े और वे भी जो गुमनाम रह गए। भारत की स्वतंत्रता की बात आते ही नेहरू, मोतीलाल और जवाहरलाल और महात्मा गांधी ही सबसे ऊपर दिखते हैं। कांग्रेस द्वारा प्रस्तुत इतिहास में सुभाष चंद्र बोस और सरदार पटेल जैसे नायक, नेहरू या गांधी की तुलना में छोटे प्रतीत होते हैं। अहिंसा का नारा सुविधाजनक है, पर यह मान लेना भोलापन होगा कि स्वतंत्रता, सरदार भगत सिंह और बोस जैसे क्रांतिकारियों के बलिदान के बिना मिल गई। इसलिए जब भाजपा नेतृत्व पटेल को केंद्र में लाया चाहे एक भव्य स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के माध्यम से या उनकी 150वीं जयंती के दो-वर्षीय आयोजनों के जरिये तो इसे सराहना ही मिलनी चाहिए। वर्षों तक 31 अक्तूबर को शोक-दिवस के रूप में मनाया जाता रहा है। यह वह दिन है जब देश भारत की लौह-महिला इंदिरा गांधी को याद करता है, एक ऐसी प्रधानमंत्री जिन्हें उतना ही प्रेम मिला जितनी आलोचना, और जिन्हें 1984 में उनके ही सुरक्षा कर्मियों ने गोली मार दी थी। कांग्रेस ने अपने “परिवार ही पार्टी” वाले अलिखित सिद्धांत के अनुरूप, 31 अक्तूबर को इंदिरा गांधी के स्मरण-दिवस के रूप में ही प्रस्तुत किया। यदि भाजपा सरकार न होती तो गुजरात के बाहर बहुत कम लोगों को याद रहता कि 31 अक्तूबर सरदार पटेल का जन्मदिन भी है। मोदी सरकार ने यह परिदृश्य बदल दिया, इंदिरा गांधी की मृत्यु-तिथि को पृष्ठभूमि में धकेलते हुए और पटेल को पुनः राष्ट्रीय स्मृति में अग्रस्थ किया। इसी कारण इस वर्ष पटेल की 150वीं जयंती के समारोहों ने वह इतिहास फिर जीवित किया जिसे कांग्रेस ने अपने शासनकाल में लगभग आत्मसात कर लिया था।
भाजपा ने भारतीयों में एक नया राष्ट्रभक्तिपूर्ण उत्साह जगाया है। आज आम नागरिक तिरंगे से जुड़ाव महसूस करता है, 15 अगस्त को बाजारों में हर प्रकार और हर आकार के राष्ट्रीय ध्वज की कमी पड़ जाती है। दरअसल बड़े पैमाने पर पहली तिरंगा यात्रा भी भाजपा ने ही निकाली थी। और स्वतंत्रता के 75 वर्षों के उपलक्ष्य में शुरू किया गया राष्ट्रव्यापी हर घर तिरंगा अभियान, जो सरकारी पहल होते हुए भी जल्दी ही जनांदोलन में बदल गया, कालोनियों, बाज़ारों और घर-घर तक फैल गया।
जहां तक वंदे मातरम् का प्रश्न है वहां भगवा दल राष्ट्रवाद की भावना को तो प्रमुखता देता है।

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