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किसी भी विद्या की सार्थकता तभी है जब कि उसका व्यवहारिक उपयोग हो सके। उपयोग ही किसी कला के महत्व को व्यक्त करता है। वैसे भी आधुनिक युग में उपयोगिता ही मूल है। शेष निरर्थक ही कहा जायेगा। फिर वह चाहे कोई व्यक्ति हो साधन हो या फिर कोई विद्या। सभी का महत्व उपयोगिता में ही निहित है। वास्तु शास्त्र और ज्योतिष जैसे विषय भी इसी श्रेणी में आते हैं। वास्तु शास्त्र भारत में कोई पांच हजार वर्षों से अनवरत जारी है। यह अलग बात है कि जब संचार के क्षेत्र में क्रांति नहीं हुई थी, तो इसका प्रसार सीमित लोगों के मध्य ही था। लेकिन जैसे ही प्रचार-प्रसार के माध्यमों में प्रगति हुई तो साधारण लोग भी वास्तु के साधारण नियमों से रू-ब-रू हुए। कालांतर में लोगों ने जाना कि उनके घर या व्यवसायिक परिसर की बनावट में भी कोई ऐसा पेच हो सकता है जो कि उनके लिए समस्याओं का मूल है। और इसका निवारण ही किस्मत का ताला खौल सकता है। एक पश्चिमी विद्वान का समझना है कि जब हम किसी वस्तु का चाहे वह कोई मकान ही क्यों न हो, उसका अपने जीवन में अधिकतम समय तक उपयोग करते हैं तो उसका हमारे जीवन पर प्रभाव होना स्वभाविक प्रक्रिया है।
हालांकि जनमानस में ज्योतिष और वास्तु दोनों विद्याएं ही पर्याप्त लोकप्रिय है लेकिन वास्तु की सुगमता ने लोगों को ज्यादा आकर्षित किया और वह लोकप्रियता के शिखर को छूने लगा। प्रायः यह देखने में आता है कि यदि घर का वास्तु सही स्थिति में नहीं हो तो उसमें निवास करने वालों के सबसे कमजोर पक्ष को ही वास्तु अपना शिकार बनाता है। जैसे जिन लोगों को स्वास्थ्य संबंधी परेशानी हों उनके लिए चिन्ताएं बढ जायेंगी। जो लोग घर में किसी मांगलिक कार्य के प्रति आशान्वित हों उनके लिए शीघ्रता से कोई शुभ समाचार नहीं प्राप्त होगा। इसी प्रकार से जो लोग आर्थिक रूप से कमजोर हों वे मुख्यतः रूपये-पैसों की कमी को अनुभव करेंगे।
वर्तमान अर्थ प्रधान समाज है। निरंतर हो रही भौतिक प्रगति के कारण अर्थ का महत्व तीव्र गति से बढ रहा है। अर्थ से सभी जरूरी काम साधे जा सकते हैं। इसके विपरीत कुछ लोगों को अर्थ प्राप्ति में अनेक प्रकार के संकटों को सामना करना होता है। वे लोग तमाम कोशिशों के बावजूद अपनी आवश्यकताओं से कम ही कमा पाते हैं जिसके फलस्वरूप आकस्मिक खर्चों की पूर्ति के लिए समय-समय पर ऋण की आवश्यकता होती है। धीरे-धीरे ऋण का चक्र इस प्रकार से करवट लेता है कि व्यक्ति को पुराने ऋण के ब्याज को चुकाने के लिए नया ऋण लेना पड़ सकता है। यह बहुत ही विकट स्थिति होती है। यदि इस स्थिति से समय रहते काबू न पाया जाए तो व्यक्ति इस कदर ऋण ग्रस्त हो जाता है कि उसे इस ऋण से मुक्ति का कोई मार्ग दिखाई नहीं देता है। मैंने ऋणग्रस्त लोगों के बहुत से आवासों का निरिक्षण किया है। वहां मुझे बहुत सी समान बाते दिखाई दीं। जिससे स्पष्ट हो जाता है कि काफी हद तक यदि घर का वास्तु ठीक नहीं हो तो वह जातक को ऋणी बना सकता है। और ऋणी भी इस श्रेणी को कि सभी रास्ते बंद हो जाएं।
- जब ईशान कोण में अशुभ निर्माण हो तो घर स्वामी थोड़े ही समय में ऋणग्रस्त हो जाता है। और जब तक वह इस दोषों को दूर नहीं कर ले तब तक उसका ऋण से मुक्त होना संभव नहीं होता है।
- जब अग्नि कोण में जल का स्थान हो तो भी घर स्वामी ऋण ग्रस्त हो जाता है।
- जब नैर्ऋत्य कोण में गहरा गड्ढ़ा हो तो भी घर स्वामी को ऋणी होने से कोई रोक नहीं सकता है।
- जब ब्रह्म स्थान पर कोई अशुभ निर्माण हो तो भी घर स्वामी ऋणी हो जाता है।
जब दक्षिण-पश्चिम कोण अर्थात् नैर्ऋत्य कोण में मुख्य द्वार हो तो घर स्वामी नित नई समस्या से ग्रस्त रहता है।
- जब मुख्य सड़क मार्ग की तुलना में घर का लेवल नीचा हो तो भी घर में गरीबी आती है।
- जब घर में कुबेरजी के स्थान पर कोई अशुभ निर्माण हो जाए तो धन संबंधी समस्या हमेशा बनी रहेगी और घर स्वामी को खाने के लिए भी ऋण लेना पड़ेगा।