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भागवत का विजयदशमी सन्देश

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन भागवत ने विजयदशमी के अपने सम्बोधन में उन राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों की ओर ध्यान खींचा है जो सामान्य जन की चर्चा में रहे हैं

12:54 AM Oct 26, 2020 IST | Aditya Chopra

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन भागवत ने विजयदशमी के अपने सम्बोधन में उन राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों की ओर ध्यान खींचा है जो सामान्य जन की चर्चा में रहे हैं

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन भागवत ने विजयदशमी के अपने सम्बोधन में उन राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों की ओर ध्यान खींचा है जो सामान्य जन की चर्चा में रहे हैं और जिन पर जमकर राजनीतिक विवाद भी होता रहा है। चीन के अतिक्रमण के सन्दर्भ में संघ प्रमुख का यह कहना कि उसने कोरोना काल में यह दुस्साहस किया जिससे उसकी विस्तारवादी प्रवृत्ति का पता चलता है। संघ प्रमुख चीन को दिये गये भारतीय उत्तर से सन्तुष्ट दिखते हैं और मानते हैं कि भारत की सरकार की तरफ से चीनी अतिक्रमण का जवाब जिस तरह से दिया गया उससे चीन ही सकते में आ गया। वास्तव में चीन की हेकड़ी ढीली करने के लिए भारत ने कई मोर्चों पर काम किया, इनमें  सैनिक व आर्थिक मंच प्रमुख कहे जा सकते हैं। इसके साथ ही उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि चीन का मुकाबला करने के लिए भारत को और सशक्त होना पड़ेगा जिससे उसे यह समझ में आ सके कि सभी के साथ मित्रता की नीति हमारी कोई कमजोरी नहीं है। संघ प्रमुख ने एक बार फिर हिन्दुत्व के बारे में अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए कहा कि हिन्दू शब्द से ही स्वराष्ट्र का बोध होता है जो कि हिन्दू संस्कृति के वृहद स्वरूप का ही सौपान है।
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 हिन्दू राष्ट्र होने का अर्थ धर्म से न होकर  हिन्दू संस्कृति के सर्वग्राही भाव से है। इस बारे में निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हिन्दू संस्कृति उदारता का अन्तर्निहित शंखनाद है क्योंकि पूरे विश्व में यह अकेली संस्कृति है जो बहुविचारवाद के साथ ही असहमति को भी बराबर का स्थान देती है। यही वजह है कि चारवाक जैसे भौतिक वादी विचारक को भी ऋषि की उपाधि दी गई जिसने कहा था कि ‘ऋणं कृत्व घृतं पीवेत’ अर्थात जो भी है वह आज है, कल किसने देखा है इसलिए आज को भरपूर ढंग से जीना चाहिए और कर्जा लेकर भी अगर यह करना पड़े तो करना चाहिए। इसके साथ ही हमारे ऋषियों ने हमें यह उपदेश भी दिया कि ‘सत्यं बूर्यात न बूर्यात सत्यं अप्रियं’ अर्थात सच बोलो मगर कड़वा सच मत बोलो। हिन्दू संस्कृति की यही महानता और विशेषता रही है कि प्रिय सत्य की वकालत तो करती है मगर इसके कटु होने पर निषेध करने को भी कहती है। इसकी वजह यही है कि यह मूलतः लोक समन्वय की पोषक है। यह समन्वय सभी विचारधाराओं और मान्यताओं व मतों का एक-दूसरे के प्रति सम्मान भाव से ही संभव हो सकता है। यह गुण हिन्दू संस्कृति का आधारभाव है।  इसके साथ यह भी समझना जरूरी है कि संघ हिन्दू महासभा की तरह भारत की ‘राजनीति का हिन्दूकरण और हिन्दुओं का सैनिकीकरण’ करने का पक्षधर अपने जन्मकाल से ही नहीं रहा है। वह भारतीयों के पुरखों की वंशानुगत  परंपरा और उसमें आये परिवर्तन का अनुमोदन करता है, इस वजह से भारत को हिन्दू राष्ट्र की संज्ञा देता है।
 भारत जैसे लोकतान्त्रिक और विविधता वाले देश में यह संभव नहीं है कि सभी इस परिभाषा से सहमत हों। अतः हिन्दुत्व को लेकर अक्सर वाद-विवाद होता रहता है। श्री भागवत ने  संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) के बारे में भी इस अवसर पर अपने विचार प्रकट किये और कहा कि इससे भारतीयों को डरने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि इसका प्रभाव उन पर लेशमात्र भी नहीं पड़ेगा। यह उन देशों के नागरिकों के लिए है जिनके साथ साम्प्रदायिक आधार पर भेदभाव होता है और उन्हें उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। इस मामले को हमें मानवीय और भारतीय दृष्टि से देखना होगा। 
एक पक्ष वह है जो इसे भारतीय संविधान के आधारभूत ढांचे के विरुद्ध मानता है और दूसरा पक्ष वह है जो इसे भारतीय राष्ट्रवाद के दायरे में देखता है। श्री भागवत राष्ट्रवादी विचारों के संवाहक हैं। अतः उनके कथन को हमें बिना संकोच के राष्ट्रवाद की कसौटी पर ही कसना होगा, इसके पीछे छिपे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को भी हम नजर अन्दाज नहीं कर सकते हैं क्योंकि 1947 में भारत का बंटवारा विशुद्ध धार्मिक आधार पर ही हुआ था। इसमें पाकिस्तान के इस्लामी राष्ट्र घोषित हो जाने के बाद वहीं बसे अल्पसंख्यकों के नागरिक अधिकारों का विषय शुरू से ही विवादों में रहा है जबकि दूसरी ओर भारत में एेसी कोई समस्या नहीं रही बल्कि उल्टे सरकारों पर अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के आरोप लगते रहे। इसे देखते हुए व्यावहारिक रूप में संशोधित नागरिकता कानून का समर्थन राष्ट्रवादी शक्तियां कर रही हैं परन्तु यह विषय सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन भी है जिसे देखते हुए मतभिन्नता का वातावरण बना हुआ है। लोकतान्त्रिक देश भारत की यह भी एक सहज प्रक्रिया है।
 संघ प्रमुख ने जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को हटाये जाने का जिक्र भी अपने सम्बोधन में किया। इस मुद्दे पर संघ की राय सर्व विदित है। यह एक राष्ट्र, एक संविधान का प्रबल समर्थक रहा है जो कि अधिसंख्य भारतवासियों की भावना रही है। यह भावना राष्ट्र प्रेम के सापेक्ष है क्योंकि आम भारतवासी इस विषय को राष्ट्रीय एकात्मता के दायरे में रख कर देखता है। यह एकात्मता समानता की इच्छा से जुड़ी हुई है जिसका सबसे बड़ा संपोषक हमारा संविधान ही है। इसी संविधान में धारा 370 एक अस्थायी प्रावधान के रूप में जुड़ी हुई थी। अतः संघ प्रमुख के उद्गार सामान्य भारतीय के विचार से ही मिलते-जुलते हैं।  राम मन्दिर निर्माण को भी संघ प्रमुख ने पिछले एक वर्ष में घटित प्रमुख घटनाओं में शामिल किया है और इस पर प्रसन्नता व्यक्त की है। यह कार्य सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद हुआ और सामाजिक सद्भाव के माहौल में हुआ।  यह भारत के लोगों की विशाल हृदयता और सहिष्णुता का ही परिचायक कहा जायेगा।
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