राजनीतिज्ञों की हिंसक प्रवृत्ति!
स्वतन्त्र भारत की राजनीति में जिस प्रकार का नैतिक पतन हम देख रहे हैं उसे कई प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है। यदि समाज के नजरिये से देखें तो जैसा समाज होगा वैसे ही लोग राजनीति में आकर उसका चरित्र बनायेंगे और यदि राजनैतिक नजरिये से देखें तो जो राजनीति का चरित्र होगा वैसा ही समाज बनेगा परन्तु भारतीय दृष्टि कहती है कि ‘यथा राजा-तथा प्रजा’। इसका अर्थ यही है कि जैसे लोग राजनीति में आयेंगे वैसा ही वे समाज भी बनाने का प्रयास करेंगे। भारत दुनिया का सबसे बड़ा संसदीय लोकतन्त्र है और यहां हर पांच साल बाद लोगों के हाथों में सत्ता परिवर्तन की चाबी रहती है। इसका मतलब यही है कि राजा जनता के बीच से ही उठकर आता है न कि किसी महारानी के पेट से जन्म लेकर किन्तु भारत की राजनीति में जिस प्रकार परिवारवाद प्रभावी है उसने लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए ही चुनौती खड़ी कर रखी है क्योंकि परिवार की विरासत संभालने वाले राजनीतिज्ञ तर्क देते हैं कि जब डाक्टर का बेटा डाक्टर हो सकता है और इंजीनियर का बेटा इंजीनियर हो सकता है तो राजनीतिज्ञ का बेटा राजनीतिज्ञ क्यों नहीं हो सकता, जबकि लोकतन्त्र में जनता ही किसी राजनैतिक परिवार की विरासत संभाले व्यक्ति को बहुमत से चुनकर विधानसभा या लोकसभा में भेजती है। एेसे तर्क हम उन नेताओं से ही प्रायः सुनते हैं जो विशिष्ट जातियों के नेता होते हैं अर्थात जातिवादी दलों की कमान संभाले होते हैं।
इस जातिगत राजनैतिक व्यवस्था के चलते भारत का लोकतन्त्र एेसे राजतन्त्र में बदल जाता है जिसमें राजा का मुंह देखकर ही आम जनता स्वयं को धन्य समझने लगती है और यह भूल जाती है कि उसे एक वोट का अधिकार दुनिया की एेसी नियामत है जिसके प्रयोग से वह खुद भी राजा बन सकता है। सौभाग्य से भारत का प्रधानमन्त्री आज एक एेसा व्यक्ति है जो बचपन में कभी चाय बेचा करता था। श्री नरेन्द्र मोदी का प्रधानमन्त्री बनना ही भारत के लोकतन्त्र की असलियत है जिसे परिवारवादी दल पचा नहीं पा रहे हैं । मगर आज असली सवाल राजनीति में आये नैतिक पतन का है। पतन इस हद तक आ चुका है कि मन्त्री खुद सरकारी अफसरों को पीट रहे हैं और लहूलुहान कर रहे हैं। जो मन्त्री जनता द्वारा चुना गया होता है वह अपनी कलम की जगह हाथों से काम ले रहा है।
हिमाचल प्रदेश में मन्त्री अनिरुद्ध सिंह के खिलाफ थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई गई है कि उन्होंने राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के दो अधिकारियों की पिटाई की जिनमें से एक तो अभी तक अस्पताल में दाखिल है। मन्त्री के खिलाफ प्राधिकरण की एक सड़क परियोजना के प्रबन्धक श्री अचल जिन्दल ने रिपोर्ट दर्ज कराई है कि श्री अनिरुद्ध सिंह ने अपने चुनाव क्षेत्र में सड़क परियोजना के चलते उसके किनारे बने मकान के ढह जाने पर आक्रोशित होकर उनके साथ ही इलाके के 27 वर्षीय इंजीनियर योगेश वर्मा की भी पिटाई की और दोनों को बुरी तरह जख्मी कर दिया। दूसरी घटना ओडिशा की है जहां कुछ राजनैतिक कार्यकर्ताओं ने प्रादेशिक नागरिक सेवा के अधिकारी श्री रत्नाकर साहू के कार्यालय में घुसकर उन्हें दफ्तर से बाहर घसीट कर बुरी तरह पीटा। यह घटना भुवनेश्वर की है। अधिकारी रत्नाकर साहू भुवनेश्वर महानगर पालिका में अतिरिक्त आयुक्त पद पर आसीन हैं। यह कार्य भाजपा के कार्यकर्ताओं ने किया जबकि जिस मन्त्री अनिरुद्ध सिंह के खिलाफ शिमला में पुलिस रिपोर्ट दर्ज कराई गई वह कांग्रेस पार्टी के हैं। भारतीय राजनीति में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है क्योंकि हिंसक तरीके अपनाने का दम भरने वाली कोई भी राजनैतिक पार्टी चुनावों में भाग नहीं ले सकती। श्री साहू ने थाने में छह अज्ञात लोगों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई जिसमें कहा गया है कि इन लोगों ने उनसे यह कहा कि क्या उन्होंने भाजपा नेता जग्गनाथ प्रधान से माफी मांगी या नहीं। प्रधान भुवनेश्वर भाजपा के नेता हैं। उपरोक्त दोनों घटनाएं बताती हैं कि राजनीति में हिंसक प्रवृत्ति के लोग बढ़ते जा रहे हैं और वे मन्त्री तक बन रहे हैं। जिस समय श्री साहू को दफ्तर से घसीट कर बाहर लाया गया उस समय वह आम लोगों की शिकायतें सुन रहे थे।
आम जनता के सामने इस प्रकार की घटना को अंजाम देकर आखिरकार राजनैतिक कार्यकर्ता क्या पैगाम देना चाहते हैं? असली पैगाम यही है कि राजनीति गुंडा तत्वों का शरण स्थल बन रही है। इस बारे में पश्चिमी विचारक को उद्घृत किया जा सकता है। भारत में इस प्रकार की हिंसक राजनैतिक प्रवृत्ति को रोकना होगा क्योंकि सरकारी अफसर भी हमारे लोकतन्त्र का एक स्तम्भ होते हैं। चुने हुए प्रतिनिधि इन्हीं के माध्यम से विकास व प्रगति के कार्यों को कराते हैं। भारत के लोकतन्त्र की कार्यपालिका एक मजबूत खम्भा है जो अपना कार्य संविधान की शपथ लेकर ही करती है। मगर इस स्तम्भ को क्षुद्र राजनीति का शिकार प्रायः बनाया जाता है और जबरन उससे राजनीतिज्ञ अपने मनमाने फैसले लागू करने की जिद करते हैं। इसका सीधा असर समाज पर पड़ता है और उसका चरित्र भी इसी सांचे में ढलता चला जाता है। जबकि लोकतान्त्रिक राजनीति में शालीनता इसका गहना होती है। जो भी व्यक्ति राजनीति के सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करता है उसका जीवन एक खुली किताब बन जाता है। यह इसीलिए है जिससे जनता राजनीतिज्ञों के जीवन से प्रेरणा ले सके और सभ्य व सुसंस्कृत समाज का निर्माण हो सके। महात्मा गांधी की दृष्टि यही थी। अतः बहुत जरूरी है कि हम राजनीति में हिंसक प्रवृत्ति रखने वाले व्यक्तियों को आगे न बढ़ने दें मगर जातिवादी पर परिवारवादी राजनीति के चलते यह कार्य दुष्कर होता जा रहा है।