लद्दाख की आवाज़
ट्वीट करने से लेकर “प्रधानमंत्री जी, लद्दाख का वर्षों पुराना सपना पूरा करने के लिए धन्यवाद” और अब यह कहने तक कि “मेरी गिरफ्तारी मेरी आज़ादी से ज़्यादा देश को जगाएगी”, सामाजिक कार्यकर्ता सोनम वांगचुक का सत्ताधारी व्यवस्था के साथ रिश्ता नाटकीय रूप से बदल गया है।
जो कभी नायक माने जाते थे, आज उन्हें खलनायक बताया जा रहा है, जो कभी परिवर्तन के प्रतीक थे, अब उन्हें पाकिस्तान से जोड़कर देखा जा रहा है और जो कभी पर्यावरणविद के रूप में सम्मानित थे, उन पर अब विदेशी फंडिंग कानून के उल्लंघन का आरोप लगाया जा रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को किया गया “धन्यवाद” ट्वीट वर्ष 2019 का है, जब केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर से लद्दाख को अलग कर एक केंद्र शासित प्रदेश बनाया था यह लद्दाखवासियों की लंबे समय से चली आ रही मांग थी। अनुच्छेद 370 के हटने तक लद्दाख, जम्मू-कश्मीर राज्य का हिस्सा था। मोदी सरकार के निर्णय के बाद इसे एक केंद्र शासित प्रदेश के रूप में गठित किया गया मगर अब हालात बदल चुके हैं, वही सरकार जिसकी कभी सोनम वांगचुक ने सराहना की थी आज उन्हें जेल के पीछे भेज चुकी है। इस वर्ष सितंबर में वांगचुक को गिरफ्तार कर राजस्थान के जोधपुर की जेल में भेजा गया। लद्दाख में प्रदर्शनकारियों और सुरक्षा बलों के बीच हिंसक झड़पें हुईं। प्रदर्शनकारियों ने जहां भारतीय जनता पार्टी के स्थानीय कार्यालय को आग के हवाले कर दिया, वहीं सुरक्षा बलों की गोलीबारी में चार प्रदर्शनकारियों की मौत हो गई।
इस खूनी टकराव की दो कहानियां हैं। एक प्रशासन की और दूसरी जनता की। लद्दाख के उपराज्यपाल कविंदर गुप्ता ने यह बयान दिया कि यदि पुलिस ने लेह में गोलीबारी न की होती तो पूरा लद्दाख जलकर राख हो जाता। वहीं, एपेक्स बॉडी का आरोप है कि प्रदर्शनकारियों को सिर और सीने में गोली मारी गई। इस तूफ़ान के केंद्र में हैं सोनम वांगचुक, कभी भाजपा के पोस्टर ब्वाय रहे यह शख्स अब आरोपी हैं, बदनाम और निशाने पर।
आज अपने गृह राज्य से लगभग 1,600 किलोमीटर दूर, सोनम वांगचुक राष्ट्रविरोधी गतिविधियों, सरकार को गिराने की साज़िश और लद्दाख में हिंसा भड़काने के आरोपों से जूझ रहे हैं। यह सर्वविदित है कि वांगचुक लद्दाख को संवैधानिक अधिकार दिलाने के लिए अभियान चला रहे हैं। 10 सितंबर से वे भूख हड़ताल पर थे, जबकि सरकार का आरोप है कि उन्होंने “भीड़ भड़काने के लिए स्थल छोड़ दिया।” इससे पहले भी उन पर भड़काऊ भाषण देने और प्रदर्शनकारियों को उकसाने का आरोप लगाया गया था।
आख़िर सोनम वांगचुक हैं कौन? उनका उद्देश्य या कथित “एजेंडा” क्या है? जैसा कि भाजपा शासित व्यवस्था जनता को समझाना चाहती है? वे किसके हित में लड़ रहे हैं और क्यों? और लद्दाख में यह असंतोष किस बात का संकेत है? क्यों यह पहाड़ी क्षेत्र अस्थिर है, हिंसा उकसाई गई थी या स्वतः भड़की?
सितंबर 2025 से पहले तक ये ऐसे प्रश्न थे जिनके उत्तर अस्पष्ट थे। शायद आज भी हैं लेकिन वांगचुक की गिरफ्तारी के बाद अब नज़रें उन पर और उन मुद्दों पर टिकी हैं जिनसे यह पहाड़ी क्षेत्र जूझ रहा है। बड़ी तस्वीर लद्दाख की है, पर फ़ोकस वांगचुक पर है। दोनों ने मिलकर उन सवालों को केंद्र में ला खड़ा किया है जिन पर वर्षों से असंतोष सुलग रहा था और प्रशासन तथा सरकार को उन्हें संबोधित करने के लिए मजबूर किया है। इसलिए जब वांगचुक ने कहा, “क़ैद में बंद सोनम वांगचुक, आज़ाद सोनम वांगचुक से ज़्यादा मुश्किल हैं,” तो वे ग़लत नहीं थे। एक स्थानीय प्रतीक, जिनकी गिरफ्तारी ने देशभर का ध्यान खींचा है, वांगचुक का जन्म लेह के पास एक गांव में हुआ था। 1975 में उनके पिता के जम्मू-कश्मीर सरकार में मंत्री बनने के बाद परिवार श्रीनगर चला गया। श्रीनगर के स्कूलों में सोनम को पढ़ाई में कठिनाई हुई, क्योंकि वे केवल लद्दाखी भाषा जानते थे, जबकि शिक्षा उर्दू और कश्मीरी में दी जाती थी। तभी उन्होंने प्रण लिया कि एक वैकल्पिक शिक्षा व्यवस्था खड़ी करेंगे और स्नातक होने के बाद उन्होंने यह सपना पूरा किया।
लद्दाख में उनके द्वारा सह-स्थापित वैकल्पिक मॉडल स्कूल का उद्देश्य शिक्षा प्रणाली में सुधार लाना था। बाद में वे ‘आइस स्तूपा’ जैसी नवाचार परियोजनाओं से राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुए, जो जल संकट से निपटने का एक उपाय थीं और ‘सोलर टेंट’ जैसी खोजों से, जो हिमालय की कठिन सर्दियों में तैनात भारतीय सैनिकों के काम आईं।
वांगचुक की गिरफ्तारी ने निश्चित रूप से जनता में असंतोष पैदा किया लेकिन अब यह केंद्र-बिंदु नहीं रहा। हिंसा थम गई है, प्रदर्शन धीमे पड़ गए हैं और राज्य सामान्य स्थिति की ओर लौट रहा है। इस बीच एपेक्स बॉडी और केंद्र सरकार के बीच मांगों पर बातचीत जारी है। लगभग तीन लाख की आबादी वाला लद्दाख मुख्य रूप से लेह और कारगिल जिलों में विभाजित है जहां लेह में बौद्ध और कारगिल में मुस्लिम समुदाय बहुसंख्यक हैं। दोनों समुदायों की चिंताएं और सोच एक-दूसरे के विपरीत हैं। बौद्ध समुदाय अपने लिए अलग क्षेत्र की मांग कर रहा है, जबकि मुस्लिम समुदाय जम्मू-कश्मीर राज्य का हिस्सा बने रहना चाहता है। यही कारण है कि अनुच्छेद 370 के हटने के बाद लेह में उत्सव मनाया गया, जबकि कारगिल में शोक छा गया। अब आगे बढ़ते हुए जो गुट कभी एक-दूसरे के विरोध में थे उन्होंने युद्धविराम की घोषणा कर एकजुट मोर्चा बना लिया है। इसे अवसरवाद कहें या व्यावहारिकता परंतु अब स्थानीय नेता और नागरिक समाज एक स्वर में अपनी मांगें उठा रहे हैं, पूर्ण राज्य का दर्जा, लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करना, एक अलग लोक सेवा आयोग की स्थापना और एक अतिरिक्त संसदीय सीट की मांग।
इनमें से कुछ मांगें व्यावहारिक हैं लेकिन राज्य के दर्जे की मांग जटिल और विवादास्पद है। लद्दाख के बाहर से देखें तो राज्य का दर्जा देने पर केंद्र सरकार की झिझक उचित प्रतीत होती है। यह तर्क कि लद्दाख एक सीमावर्ती क्षेत्र है और इसलिए संवेदनशील है, कुछ हद तक सही भी है। चूंकि लद्दाख की सीमाएं चीन और पाकिस्तान दोनों से लगती हैं, इसलिए केंद्र की चिंताएं वाजिब लगती हैं। घरेलू स्तर पर भी राज्य का दर्जा एक पेचीदा विषय है। सिर्फ़ लद्दाख ही नहीं, बल्कि जम्मू-कश्मीर जैसे क्षेत्र भी लंबे समय से राज्य का दर्जा मांग रहे हैं। केंद्र सरकार पहले ही कह चुकी है कि जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा दिया जाएगा, हालांकि समय सीमा स्पष्ट नहीं की गई है। ऐसे में लद्दाख की मांग पर विचार करना, जबकि जम्मू-कश्मीर को अभी तक राज्य का दर्जा नहीं मिला है, किसी विश्वासघात से कम नहीं माना जाएगा। जहां तक छठी अनुसूची का सवाल है, इस पर सरकार वर्षों से चर्चा कर रही है लेकिन कोई ठोस प्रगति नहीं हुई है। छठी अनुसूची जनजातीय समुदायों को स्वायत्तता और संवैधानिक संरक्षण देती है ताकि उनकी भूमि, संसाधन और सांस्कृतिक अधिकार सुरक्षित रहें किंतु संविधान के अनुसार यह प्रावधान केवल पूर्वोत्तर राज्यों के लिए आरक्षित है और इसके दायरे में कोई अन्य क्षेत्र नहीं आ सकता। यदि लद्दाख को छठी अनुसूची का लाभ दिया जाता है तो मणिपुर, नगालैंड और अरुणाचल प्रदेश जैसे अन्य राज्य भी इसकी मांग कर सकते हैं जहां बड़ी जनजातीय आबादी रहती है। संविधान में संशोधन संभव है लेकिन फिलहाल भाजपा सरकार इस दिशा में सहमति नहीं दिखा रही है। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने हाल ही में कहा कि केंद्र सरकार ने 2023 की हिल काउंसिल चुनावों में लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए छठी अनुसूची के संरक्षण देने का वादा किया था, जबकि उसे भली-भांति पता था कि ऐसा करना लगभग असंभव है। उन्होंने कहा “छठी अनुसूची के अंतर्गत भूमि का अधिग्रहण, विशेष रूप से रक्षा उद्देश्यों के लिए, लगभग असंभव हो जाता है और एक ऐसा क्षेत्र जो एक ओर चीन और दूसरी ओर पाकिस्तान से घिरा है, वहां मज़बूत रक्षा ढांचा अनिवार्य है।” फिलहाल, लद्दाख की कहानी गिरे हुए नायकों, हिंसा, ख़ून और मौतों की कहानी है। यह उस शिक्षित युवाओं के आक्रोश की दास्तान है जिनके पास डिग्रियां तो हैं, पर रोज़गार नहीं। यह टूटी हुई उम्मीदों की कहानी भी है, एक ऐसी सरकार की जो नागरिक, समाज और उसके कार्यकर्ताओं की मांगों पर ठिठकी हुई नज़र आती है। यह उन लोगों की पीड़ा है जो खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं जैसे वे कहते हैं, “सरकार ने हमें गाड़ी तो दी है, पर इंजन के बिना।”

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