जनता की आवाज़- सच्चाई का पहरेदार
1965 से लेकर आज तक पंजाब केसरी का एक ही तेवर-निर्भीक अंदाज़
पंजाब केसरी वह अखबार है जिसने कदम-कदम पर चुनौतियां और संघर्षों का सामना किया। इस राह पर चलते हुए जो इतिहास पंजाब केसरी ने लिखे उसका उदाहरण दुनिया की किसी प्रिंटिंग प्रेस, अखबार या पत्रकारिता की दुनिया में नहीं दिखता। पंजाब केसरी के संस्थापक शहीद शिरोमणि लाला जगत नारायण जी का 9 सितंबर 1981 को बलिदान और इस घटना के बाद उनके सुपुत्र अमर शहीद रमेश चंद्र जी की 12 मई 1984 को शहादत। ये दोनों घटनाएं पत्रकारिता के इतिहास में एक पिता-पुत्र के बलिदान की ही गाथा नहीं बल्कि वह गौरवपूर्ण इतिहास है जिसमें दो संपादकों ने आतंकवादियों के समक्ष घूटने टेकने से इंकार कर दिया तथा 62 लोग जो पंजाब केसरी से जुड़े हैं का खून भी इस पंजाब केसरी के इतिहास में आतंकवादियों द्वारा की गयी निरीह हत्या के रूप में दर्ज है।
सन्ï 1965 में पंजाब केसरी का जन्म हुआ और यह एक अखबार के रूप में सत्य की पताका संभालने वाला कर्मयाही बना और एक पिता की उस परंपरा को 1 जनवरी 1983 को अश्विनी कुमार मिन्ना देश की राजधानी में पंजाब केसरी के रूप में लांच कर दिया। यह प्रगतिशील समाचारपत्र एक के बाद एक सफलताओं के आयाम स्थापित कर चुका है और मूल रूप से राजधानी दिल्ली, हरियाणा, यूपी, उत्तराखंड, झारखंड, बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, महाराष्ट्र, बंगाल, उड़ीसा तक पाठकों की सेवा में रत है। कुल मिलाकर लाखों परिवार तक पंजाब केसरी की पहुंच है और पाठकों की संख्या तो करोड़ों में है। लाखों परिवारों के जीवन के हर चरण तक पंजाब केसरी की पहुंच है। लेकिन एक बात यथार्थ है और पंजाब केसरी के इतिहास में यह बात काबिल-ए-गौर है कि पत्रकारिता की दुनिया में निर्भीक, बेखौफ, दबंग और सच्चाई से खबरें लिखने का अंदाज अगर हमें बुलंदी पर रखता है तो यह सब एक दिन या एक रात या कोई यह कह ले कि आसानी से मिल गया है तो बात नहीं बनती। इस ऊंचे मुकाम को पाने के लिए हमने, हमारे परिवार के लोगों ने खून-पसीना बहाया है। कदम-कदम पर परित्याग किया है। दिन-दोपहर-शाम और रात हम मेहनत की भट्टïी में तप कर सर्वोच्च के मुकाम तक पहुंचे हैं। सही मायनों में पंजाब केसरी आज भी एक स्वतंत्र समाचार पत्र है और संस्थापक शहीद शिरोमणि लाला जगत नारायण जी, अमर शहीद रमेश चंद्र जी से यही कहा करते थे कि हम एक स्वतंत्र समाचार पत्र है। हमें किसी की आलोचना की परवाह नहीं करनी। अपने आदर्श कायम रखने हैं। किसी से समझौता नहीं करना है। हमने आजादी कैसे हासिल की इस जंग में लाला लाजपतराय जैसे अमर शहीद की शहादत को मैंने अपनी आंखों से देखा है तो इसलिए शहादत से कभी नहीं डरना। खून बहा देना बेहतर है लेकिन किसी से समझौता नहीं करना। किसी के आगे घुटने नहीं टेकने क्योंकि हमने निडरता के साथ 1947 में देश की आजादी के बाद धैर्यशीलता का कवच पहनकर 1948 के बंटवारे को भी झेला है। सही मायनों में पंजाब केसरी ने अपने इन आदर्शों की रक्षा की है।
अश्विनी कुमार जी ने 1 जनवरी 1983 को यह मंत्र आत्मसात कर लिए थे और इसी तेवर के साथ पंजाब केसरी आज प्रकाशित हो रहा है। पंजाब केसरी कठिन से कठिन परिस्थितियों में कभी डगमगाया नहीं। हर रोज होने वाली छोटी से बड़ी घटनाएं चाहे उनका रिश्ते सड़क से संसद तक क्यों न हो, पंजाब केसरी ने अपनी परंपराओं और नैतिक मूल्यों को सदा बुलंदी पर ही रखा। इस कड़ी में अगर हम बुलंदी पर हैं तो इसके पीछे हमारे एडिटोरियल डेस्क पर काम करने वाले पत्रकारों, रिपोर्टरों, डिस्ट्रीब्यूटरों, फोटोग्राफरों और एजेंटो की भी भूमिका रही है। अखबार को स्वतंत्र विचारों का दर्पण बनाए रखने के लिए हमारे आज भी असूल हैं कि हर आदमी की बात सुनी जाए। श्री रमेश जी की कलम को जब अश्विनी जी ने थामा और पंजाब केसरी का संचालन किया लेकिन जब उनका 18 जनवरी 2020 को निधन हुआ तब एक बड़ा शून्य भर गया। जिसे भरना आसान नहीं था लेकिन प्रभु कृपा और पुरखों के आशीर्वाद से आदित्य नारायण चोपड़ा ने एक युवा संपादक के रूप में कलम संभाली। उन्होंने अपने दोनों छोटे भाईयों अर्जुन चोपड़ा और आकाश चोपड़ा के साथ मिलकर इस मिशन को सफलता पूर्वक आगे बढ़ाया। अखबार पुराना है तो संस्कार और असूल भी पुराने हैं कि सत्यता, निर्भीकता और बेखौफ अंदाज से आगे बढ़ते रहना है। सत्ता पक्ष हो या विपक्ष आज पंजाब केसरी को युवा पीढ़ी चला रही है लेकिन हर पक्ष की बात एक समाचार में सुनी जाती है और प्रकाशित की जाती है।
पंजाब केसरी की डायरेक्टर किरण चोपड़ा की देखरेख में पाठकों के प्यार से पंजाब केसरी आज भी डटा हुआ है। बड़ी बात यह है कि देश में भ्रष्टïाचार हो या कोई अन्य कांड पंजाब केसरी ने इसे खबर के रूप में छापने में कभी कोई समझौता नहीं किया। लोगों की रूची का ध्यान रखा और यह आदर्श स्थापित किए कि पंजाब केसरी लोगों का अखबार है और लोगों के लिए ही है। यही वजह है कि लोकतंत्र में पंजाब केसरी के प्रति सर्वाधिक सम्मान का गौरव है। सच बात तो यह है कि लाला जी की कलम की मारफत ही पंजाब केसरी आज की तारीख में राजनीति में सही खबर लोगों तक पहुंचाने और सत्ता के खिलाफ एक प्रवक्ता के रूप में खड़ा है तो इसके पीछे वजह यही है कि लोगों को पता है कि यह अखबार सच लिखता है और बेखौफ होकर लिखता है। इतना ही नहीं अगर कोई इस अखबार की आलोचना करता है तो एक यह परंपरा भी पंजाब केसरी ने स्थापित कि उसे भी प्रकाशित किया जाये। यही वजह है कि जब लालाजी और रमेश जी की हत्या के बाद पंजाब के लोग दिल्ली की तरफ पलायन करने लगे तो अश्विनी कुमार लौहपुरुष बनकर खड़े हो गए कि अपने पुरखों के द्वारा स्थापित धंधे न छोड़े जाएं और लोग पंजाब में ही रहें तो अच्छा है। उनकी इस बात को लोगों ने स्वीकार किया।
दैनिक पंजाब केसरी लोगों की आवाज बनता चला गया और बाद में यह एक बड़ी शक्ति बन गया और यह सच है इसीलिए कभी-कभी संकटों का सामना भी इस पंजाब केसरी को करना पड़ा। हमारा सत्यता का अडिग हौंसला और लोगों तक सत्य पहुंचाने का प्रयास कभी डगमगाया नहीं। हमारी इमेज एक सच के पहरेदार के रूप में स्थापित हो गयी। इस कड़ी में पंजाब केसरी की संपादकीय नीति में जो स्थिरता है वह ओर किसी अखबार में नहीं। हमने आतंकियों के लंबे हमलों का सामना किया और लालाजी तथा रमेश जी सहित कई ऐसे दिग्गजों को खो दिया जो सच्चाई पूर्वक हमें राह दिखा रहे थे। लाला जी और रमेश जी जैसे न्यायप्रिय व्यक्तियों की हत्या से सबसे ज्यादा वह लोग विस्मित थे जो साधनहीन थे। लालाजी और रमेश जी साधनहीनों का खास ध्यान रखते थे। लालाजी की हत्या के बाद जब रमेश जी ने संपादक के रूप में चार्ज संभाला तो भी हमारे इरादे आतंवादी समूहों के समक्ष न झुकने के थे। सच के समक्ष तो आतंकवादी झुक गए उनके इरादे नेस्तनाबूद भी हो गए लेकिन पंजाब केसरी की रगों में आज भी सच्चाई का खून दौड़ता है। आतंकवाद एक ऐसा काल था जिसने पंजाब केसरी के स्टाफ की 62 जानें ली। लेकिन हम डटे रहें और हालात इतने डगमगा रहे थे कि हम समुंद्र की चट्टïान बन गए। लोगों को उम्मीद थी और विश्वास था कि पंजाब केसरी ही हमारे साथ है और यह विश्वास आज भी बरकरार है।