मतदाता सूची, चुनाव और चुनाव आयोग
स्वतन्त्र भारत के इतिहास में एेसा पहली बार हो रहा है जब देश के सभी विपक्षी दल चुनाव आयोग के सामने आकर खड़े हो गये हैं । यह पूरा कार्य कांग्रेस नेता राहुल गांधी के नेतृत्व में हो रहा है। श्री गांधी लोकसभा में विपक्ष के नेता भी हैं अतः चुनाव आयोग के बारे में कहे गये उनके शब्दों या आरोपों को सामान्य रूप में नहीं लिया जा सकता। राहुल गांधी ने चुनाव आयोग पर जो आरोप लगाये हैं वे साधारण नहीं कहे जा सकते क्योंकि उनका सीधा सम्बन्ध चुनावों की पवित्रता व शुचिता के साथ है। श्री गांधी आरोप लगा रहे हैं कि पूरे देश में मतदाता सूचियों में भारी गड़बड़ है। अभी तक भारत में जो मांग होती रही है वह चुनाव प्रणाली को सुधारने की होती रही है। इसमें चुनाव आयोग की विश्वसनीयता कभी निशाने पर नहीं रही। मगर राहुल गांधी ने सीधे ही आयोग की विश्वसनीयता को सन्देह के घेरे में खड़ा कर दिया है।
सबसे गंभीर सवाल यह है कि क्या मतदाता सूची के स्तर पर ही अशुद्धि को घोल कर पूरी चुनाव प्रणाली को अपवित्र करने का कोई काम चुनाव आयोग द्वारा किया गया है? इसमें एक बात समझने की है कि चुनाव आयोग पूरी तरह एक स्वतन्त्र और स्वायत्तशासी या खुद मुख्तार संस्था है जो सरकार का अंग नहीं है। उसे इस बात से कोई मतलब नहीं है कि कौन सी पार्टी सत्ता में है और कौन सी विपक्ष में बैठी हुई है। चुनाव आयोग सीधे संविधान से शक्ति लेकर अपने काम को अंजाम देता है। आजकल संसद का सावन सत्र (मानसून) चालू है और इसके दोनों सदनों मंे विपक्ष की तरफ से यह मांग हो रही है कि चुनाव आयोग की भूमिका के बारे मंे बहस कराई जाये जिसे सत्तापक्ष यह कह कर नकार रहा है कि चुनाव आयोग जैसी स्वतन्त्र व निष्पक्ष संस्था के बारे में बहस नहीं कराई जा सकती क्योंकि उसके बारे में सर्वोच्च न्यायालय में अपील चल रही है। मगर एेसा पहले भी कई बार हो चुका है जब लोकसभा या राज्यसभा में न्यायालय में लम्बित मामलों पर भी बहस घुमा-फिरा कर हुई है। संसद का सत्र केवल 21 अगस्त तक है और अभी तक संसद में केवल आपरेशन सिन्दूर पर ही लम्बी बहस हुई है। कुछ विधेयक भी सरकार ने विपक्ष के शोर- शराबे के बीच पारित करा लिए हैं। अतः समझा जा सकता है कि विपक्ष इस मसले को सीधे जनता के बीच ले जाने की फिराक में हैं। यदि यह स्थिति आती है और चुनाव आयोग के मुद्दे को विपक्ष संसद से निकाल कर सड़क तक ले जाता है तो सत्ताधारी पार्टी को रक्षात्मक होना पड़ेगा जबकि मतदाता सूची में गड़बड़ी का मामला सत्ता पक्ष के लिए भी आगे जाकर मुसीबत का सबब बन सकता है। अतः बहुत साफ है कि सत्ताधारी भाजपा चुनाव आयोग की वकील नहीं बन सकती है। इस मामले में चुनाव आयोग को अपनी पैरवी खुद ही करनी पड़ेगी और मतदाता सूचियों मंे गड़बड़ी के सन्देह को दूर करना होगा क्योंकि आरोप बहुत बड़े हैं जिनका सम्बन्ध सीधे चुनाव आयोग की कार्य प्रणाली से जाकर जुड़ता है।
मुझे अच्छी तरह याद है कि जब 1974 में देश मं स्व. जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन चला था तो चुनाव प्रणाली में सुधार का भी एक प्रमुख मुद्दा था। इस आन्दोलन में जनसंघ (भाजपा) भी शामिल थी। उस समय चुनाव बहुत महंगे होते जा रहे थे। जेपी मांग कर रहे थे कि चुनावों पर बढ़ते धन के प्रभाव को कम किया जाये । इसके लिए उहोंने एक चुनाव सुधार कमेटी भी बनाई थी जिसके प्रमुख बम्बई उच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश श्री वी.एम. तारकुंडे थे। इस समिति ने सरकारी खर्च से चुनाव कराये जाने की वकालत तक की थी। मगर इसके बाद देश मंे 1975 जून में इमरजेंसी लग गई और 1977 में जब चुनाव हुए तो गैर कांग्रेसी मोरारजी देसाई सरकार का गठन हुआ । यह सरकार जनता पार्टी की थी जो सभी प्रमुख दक्षिणपंथी व मध्यमार्गी दलों का विलय करके बनी थी। इस सरकार ने चुनाव सुधारों के लिए एक पृथक आयोग रिटायर्ड मुख्य चुनाव आयुक्त श्री एस.एल. शकधर के नेतृत्व में बनाया। मगर 1980 में पुनः चुनावों के बाद सरकार बदल गई और श्रीमती इन्दिरा गांधी पुनः सत्ता पर बैठीं। लेकिन अब 2025 चल रहा है और चुनाव सुधारों का मामला न होकर चुनावी घांधली का विषय मुख्य रूप से सामने आया है जिसका कर्ताधर्ता खुद चुनाव आयोग को बताया जा रहा है। विपक्ष इस मसले से सीधे आम जनता को जोड़ना चाहता है। यदि आम जनता इससे जुड़ जाती है तो यह एक जनान्दोलन का स्वरूप ले सकता है क्योंकि आम जनता अपने एक वोट के बारे मंे बहुत संवेदनशील रहती है।
भारतीय संविधान में प्रत्येक वयस्क व्यक्ति को एक वोट का संवैधानिक अधिकार यह है। इस एक वोट की कीमत बराबर होती है। अर्थात सड़क बनाने वाले मजदूर के एक वोट की भी वही कीमत होती है टाटा या बिड़ला के वोट की होती है। मगर राहुल गांधी कह रहे हैं कि इस वोट को ही चुनाव आयोग ने प्रदूषित कर दिया है और लाखों की संख्या मंे फर्जी मतदाता खड़े कर दिये हैं जिसका लाभ सत्ताधारी दल को मिलता है। यह आरोप चुनाव आयोग पर है। अतः चुनाव आयोग को इन आरोपों की जांच के लिए आगे कदम उठाना होगा और अपनी विश्वसनीयता व प्रतिष्ठा को बचाना होगा। भारत के चुनाव आयोग की पूरे विश्व के लोकतान्त्रिक देशों मंे बहुत ऊंची ख्याति है । न जाने कितने देशों ने भारत की चुनाव प्रणाली का अध्यन कर उससे कुछ सीखा है। भारत में चुनाव आयोग को लोकतन्त्र की गंगा का गोमुख माना जाता है। अतः राहुल गांधी जो भी और जितने भी आरोप मतदाता सूची को लेकर लगा रहे हैं उनकी जांच स्वयं चुनाव आयोग को ही करनी होगी । इस काम में सरकार उसकी कोई मदद नहीं कर सकती है। दूसरी तरफ राहुल गांधी समेत पूरे विपक्ष को यह सोचना होगा कि उनके आरोप पुख्ता सबूतों पर ही आधारित हों । उनका लक्ष्य राजनीतिक विजय प्राप्त करना न हो बल्कि चुनाव प्रणाली को शुद्ध करना हो क्योंकि चुनाव सुधारों के लिए तो अब विपक्ष भी खुद उत्सुक नहीं बचा है। विपक्ष कह रहा है कि मतदाता सूची के मुद्दे पर वह संसद से लेकर सड़क तक जाम करने की स्थिति में है। चुनाव आयोग विपक्ष को मतदाता सूचियां भी उपलब्ध करा रहा है जबकि राहुल गांधी मांग कर रहे हैं कि उन्हें डिजिटल सूचियां दी जायें। इसमें दिक्कत की कोई बात नहीं है क्योंकि मुख्य आरोप यह है कि एक ही मतदाता कई राज्यों में मतदाता बना हुआ है एक पते पर दर्जनों मतदाताओं के नाम पंजीकृत हैं। मगर राहुल गांधी को भी यह सोचना होगा कि वह इस मामले मंे किसी प्रकार की शंका में महाराष्ट्र की तरह न रहें ।
महाराष्ट्र में पांच महीने के दौरान बढ़े मतदाताओं की संख्या उन्होंने लोकसभा में 70 लाख बताई जो बाद मंे घट कर 40 लाख के करीब रह गई । उन्हें यह तो याद रखना होगा कि बाबा साहेब अम्बेडकर ने जो संवैधानिक व्यवस्था भारत के लोकतन्त्र के लिए बनाई उसमें चुनाव आयोग को इसी लोकतन्त्र का भीष्म पितामह बनाया क्योंकि खुद सरकार से बाहर रह कर आयोग देश मंे राजनीतिक प्रशासन प्रणाली को देने का काम करता है। एेसा वह अपने संवैधानिक दायित्व के तहत करता है। वह निष्पक्ष व निर्भीक चुनाव कराता है और प्रत्येक भारतीय को विश्वास दिलाता है कि उसके एक वोट के माध्यम से ही मुल्क में सरकारों का गठन होगा। वह लोकतन्त्र में आम आदमी की भागीदारी को सुनिश्चित करने का महायन्त्र होता है।
मगर यह भी हकीकत है कि बिहार में तीन महीने बाद ही विधानसभा चुनाव हो रहे हैं और यहां चुनाव आयोग ने मतदाता पुनरीक्षण सूची तैयार की है। इसमें 65 लाख फर्जी मतदाता हटाये गये हैं तो भी विपक्ष इसका विरोध कर रहा है। क्या चुनाव आयोग के इस कार्य को कानून सम्मत नहीं माना जाना चाहिए.। यह कैसे संभव है कि चुनाव आयोग एक राज्य में मतदाता बढ़ाये और दूसरे में घटाये तो भी उसे कटघरे में खड़ा किया जाये। भाजपा के इस तर्क में वजन क्यों न माना जाये कि चुनाव आयोग मतदाता सूचियों की सफाई करने के लिए ही पुनरीक्षण करा रहा है जबकि विपक्ष इसका भी विरोध कर रहा है तो मामला इतना सीधा नहीं है।