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निगरानी में मतदाता सूची!

06:30 AM Sep 02, 2025 IST | Aditya Chopra

चुनाव आयोग द्वारा बिहार में जारी सघन मतदाता सूची पुनरीक्षण का कार्य अब वि​धि सेवा प्राधिकरण के दायरे में भी आ गया है । इस मामले में न्यायालय के समक्ष दायर याचिकाओं की सुनवाई चल रही है जो कि मतदाता सूची पुनरीक्षण के खिलाफ हैं। न्यायालय ने आज इस सम्बन्ध में जो आदेश दिया है वह काफी महत्वपूर्ण है और इशारा करता है कि आगामी 30 सितम्बर को चुनाव आयोग अपनी अंतिम संशोधित मतदाता सूची प्रकाशित नहीं कर सकता क्योंकि न्यायालय ने साफ कह दिया है कि जिन 65 लाख लोगों के नाम चुनाव आयोग ने बिहार की मतदाता सूची से उड़ाये हैं उन्हें 1 सितम्बर के बाद भी अपना नाम जुड़वाने के लिए समय दिया जायेगा और चुनाव आयोग इसके लिए मना नहीं कर सकता। सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं की ओर से दलील दी गई कि चुनाव आयोग अपना नाम जुड़वाने या हटवाने वाले मतदाताओं के आधार कार्ड को एक सबूत नहीं मान रहा है जबकि न्यायालय ने ही यह आदेश दिया था कि आधार कार्ड को एक पक्का सबूत माना जाना चाहिए। याचिकाकर्ताओं ने शिकायत की है कि इसके बावजूद चुनाव आयोग उनके आवेदन स्वीकार नहीं कर रहा है और मतदान केन्द्र स्तर के अधिकारी अपना हाथ खड़ा कर रहे हैं।

इस पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने निर्देश दिया कि बिहार वि​धि सेवा प्राधिकरण के स्वयं सेवकों को इस काम में लगाया जाये और राजनैतिक दल भी आगे आकर इस काम में सहयोग करें। इससे जाहिर होता है कि चुनाव आयोग का काम अब पूरी तरह पारदर्शी तरीके से होने में मदद मिलेगी। चुनाव आयोग ने बिहार की मतदाता सूची अन्तरिम तौर पर जारी की थी और कहा था कि राज्य के कुल 7.89 करोड़ मतदाताओं में से 65 लाख के नाम हटा दिये गये हैं। पहले उसने इसका कारण भी बताने से इन्कार कर दिया था मगर जब सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया तो उसने सभी 65 लाख लोगों के नाम सार्वजनिक किये और कारण भी बताया। चुनाव आयोग भारत में एक स्वायत्तशासी स्वतन्त्र संस्था है और सरकार का अंग नहीं है। इसकी जिम्मेदारी सीधे मतदाताओं के प्रति होती है क्योंकि यह भारतीय नागरिकों को मिले एक वोट के संवैधानिक अधिकार की रक्षा करता है। इसका कर्त्तव्य बनता है कि भारत का एक भी जायज मतदाता छूटे नहीं। चूंकि भारत का पूरा लोकतन्त्र मूल रूप से वोट के अधिकार पर ही आश्रित है अतः प्रत्येक मतदाता का हक बनता है कि उसके वोट का अधिकार संरक्षित रहे।

चुनाव आयोग जब अपनी मतदाता सूची का संशोधन करता है तो उसका लक्ष्य रहता है कि 18 वर्ष के हर वयस्क नागरिक का वोट बने। बिना किसी शक के चुनाव आयोग भारत के वैध नागरिकों का ही वोट बनाता है मगर उसे यह अधिकार नहीं होता कि वह मतदाताओं की नागरिकता की जांच करे। इसके विपरीत प्रत्येक मतदाता की यह जिम्मेदारी होती है कि वह अपनी नागरिकता की घोषणा करे। उसे चुनाव आयोग को यह लिख कर देना होता है कि वह भारत का नागरिक है। उसकी इस नागरिकता की जांच केवल केन्द्रीय गृह मन्त्रालय ही कर सकता है। गृह मन्त्रालय हर दस साल बाद जनगणना का काम करता है और भारतीय नागरिकों की वैधता की इसमें जांच भी हो जाती है। भारत में यह काम पिछले 2010 -11 के बाद से नहीं हुआ है। अतः इसे कराने की घोषणा केन्द्र सरकार ने तीन महीने पहले ही कर दी थी। यह जनगणना 2027 में फरवरी महीने से शुरू होगी। मगर इससे पहले घरों या परिवारों की जनगणना होगी जो अप्रैल 26 से लेकर सितम्बर महीने तक जारी रहेगी। इसके लिए भारत के महामंजीयक की ओर से सरकार से लगभग 15 हजार करोड़ रुपये की मांग की गई है। बहुत स्पष्ट है कि इस जनगणना में प्रत्येक भारतीय की गिनती होगी और उन घुसपैठियों का भी पता चलेगा जो भारत की धरती पर अवैध रूप से रह रहे हैं। मगर मतदाता सूची में भी किसी घुसपैठिये का नाम नहीं आना चाहिए। इसके लिए भी कानून में प्रावधान है।

किसी भी मतदाता की नागरिकता को कोई दूसरा व्यक्ति चुनौती दे सकता है। इसकी अपनी प्रक्रिया है। ऐसा नहीं है कि भारत में ऐसे सवाल पहली बार उठ रहे हैं। 90 के दशक में जब मुख्य चुनाव आयुक्त स्व. टी.एन. शेषन थे तो उन्होंने प्रत्येक मतदाता के लिए पहचान पत्र या वोटर कार्ड जारी करने को आवश्यक बना दिया था। इससे भी घुसपैठियों को पहचानने में मदद मिली थी। मगर वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त ने आधार कार्ड को ही मतदाता की पहचान मानने से इन्कार कर दिया और 11 ऐसे दस्तावेजों में से किसी एक को सबूत के तौर पर दिखाने का नियम बनाया था जो भारत के नागरिकों के पास होते हैं। मगर आधार कार्ड ऐसा दस्तावेज है जो भारत के लगभग हर निवासी के पास होता है। बेशक यह नागरिकता की पहचान नहीं होता मगर यह तो प्रमाणित करता है कि वह व्यक्ति भारत का निवासी है।
निवासी व नागरिक में फर्क होता है जिसकी पहचान गृह मन्त्रालय करता है। अतः चुनाव आयोग का कार्य मतदाता सूची बनाने तक ही सीमित किया गया। वर्ष 2027 में जो जनगणना होगी उसमें जातिगत गणना भी की जायेगी जिससे यह मालूम हो सकेगा कि भारत में कितने लोग अनुसूचित जाति व जनजाति के हैं, कितने पिछड़े वर्ग के हैं, कितने अलपसंख्यक समुदायों के हैं और कितने सवर्ण कहे जाने वाले लोग हैं।

वर्तमान में चुनाव आयोग जो बिहार में मतदाता सूची पुनरीक्षण का कार्य कर रहा है और 65 लाख लोगों को मताधिकार से वंचित कर रहा है, उसके बारे में कहा जा रहा है कि इनमें सर्वाधिक गरीब तबके के लोग हैं और महिलाएं भी शामिल हैं। जाहिर है कि इससे आम लोगों में अपने वोट के अधिकार के प्रति चिन्ता उठी है। बिहार की गूंज देश के अन्य राज्यों में भी सुनाई पड़ने लगी है। प. बंगाल इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। इस राज्य में अगले वर्ष 2026 में चुनाव होने वाले हैं। इसके साथ कुछ अन्य राज्यों में भी चुनाव होने हैं। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले की रोशनी में ही सब तथ्यों का अवलोकन किया जाना चाहिए। मोटे तौर पर यही कहा जा सकता है कि मतदाता सूची पुनरीक्षण का कार्य बिहार की तरह अफरा- तफरी में नहीं किया जाना चाहिए।

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