युद्ध, बुद्ध और चीन की धोखेबाजी
जब किसी देश की राष्ट्रीय सुरक्षा पर जरा भी आंच आती है तो सभी अन्य विषय नैपथ्य में चले जाते हैं और पूरा देश एक साथ उठ कर खड़ा हो दुश्मन को अपनी धरती से बाहर निकालने की शपथ लेता है।
12:03 AM Jul 06, 2020 IST | Aditya Chopra
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जब किसी देश की राष्ट्रीय सुरक्षा पर जरा भी आंच आती है तो सभी अन्य विषय नैपथ्य में चले जाते हैं और पूरा देश एक साथ उठ कर खड़ा हो दुश्मन को अपनी धरती से बाहर निकालने की शपथ लेता है। चीन जिस तरह सीनाजोरी दिखा कर लद्दाख में हमारे क्षेत्र में घुस कर जमा हुआ है उसे वहां से पीछे हटाने के लिए पूरा देश कृतसंकल्प है और सरकार के साथ है। यह समय गफलत में रहने का बिल्कुल नहीं है।
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सरहद के मामले में भ्रम का बने रहना आम भारतीय नागरिक के मन में शंका पैदा करता है और उसके इस विश्वास को तोड़ता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा राजनीति से ऊपर है, यह देश नीति का मामला है जब इस तरह की खबरें आ रही हैं कि लद्दाख की नियन्त्रण रेखा पर इसी प्रकार की आमने-सामने की स्थिति लम्बी बनी रह सकती है तो राजनीतिक नेतृत्व का यह दायित्व बनता है कि वह भ्रम को एक सिरे से तोड़ डाले। जहां तक चीन के मामले में कूटनीति का सवाल है तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमने उसकी नीयत को समझने में देर कर दी है।
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चीन अपनी कारगुजारियों से 2003 के बाद से ही तब से बाज नहीं आ रहा है जब से भारत ने तिब्बत को उसका अंग स्वीकार किया और उसके कब्जे से अपने क्षेत्र ‘अक्साई चिन’ को वापस लेने तक का जिक्र नहीं किया। इसके बाद ही उसने अरुणाचल प्रदेश पर भी अपना दावा पेश करना शुरू दिया था मगर हैरानी की सबसे बड़ी बात यह है कि भारत में चीन की आर्थिक तरक्की का गुणगान करने में हमारे राजनीतिक दल पीछे नहीं रहे और बात-बात पर उसका उदाहरण देने में राजनीतिज्ञ अपनी शान समझने लगे। चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, दोनों ने ही चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ समझौते करने में अपनी इज्जत समझी। जबकि भारत में चीन जैसी एकाधिकार वादी राजनीतिक प्रणाली की रत्ती भर भी गुंजाइश नहीं है।
भारत का लोकतन्त्र बहुराजनीतिक दलीय प्रणाली की व्यवस्था करता है और कहता है कि शासन सिर्फ संविधान का ही रहेगा, चाहे सरकार किसी भी पार्टी की हो। जबकि चीन में पार्टी और सरकार में कोई फर्क ही नहीं है। हमारे यहां जो राजनीतिक प्रणाली है उसमें किसी भी पार्टी का प्रधानमन्त्री तक अपनी पार्टी के भीतर उसका एक साधारण कार्यकर्ता होता है और उस पर पार्टी अनुशासन पर उसी प्रकार लागू होता है जैसे किसी अन्य कार्यकर्ता पर।
यदि ऐसा न होता तो किस प्रकार 1969 में कांग्रेस कार्य समिति तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी को पार्टी से बाहर निकाल कर उनकी प्राथमिक सदस्यता तक रद्द करती! यह बात दीगर कि तब इन्दिरा जी ने अपने ही बूते पर एक नई कांग्रेस पार्टी खड़ी कर दी और बाद में कांग्रेस कार्य समिति वाली कांग्रेस, जिसे तब सिंडिकेट कहा जाता था, हाशिये पर चली गई।
चीन और भारत के इस मूलभूत अन्तर को नजर अन्दाज करके हमने भारत की अर्थव्यवस्था में उसे पैर पसारने के अवसर प्रदान किये। आज हम अपनी अर्थव्यवस्था में उसका कद छांटने के विविध उपाय कर रहे हैं जबकि उसकी फौजें हमारे ही इलाके लद्दाख में कई जगह अतिक्रमण किये बैठी हैं और फौजी ढांचे खड़ी कर रही हैं। भारत के साथ चीन के सम्बन्धों का इतिहास बताता है कि उसने भारत को अपना दुश्मन समझने वाले पाकिस्तान के साथ दोस्ती की और इस तरह की कि 1963 से हमारे ही पाक अधिकृत इलाके का काराकोरम इलाका उसके कब्जे में है और वह अब वहां ‘सी पैक’ परियोजना लागू कर रहा है।
चीन ने यह बात कितनी आसानी से समझ ली कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त और पाकिस्तान को अपनी पीठ पर बैठा लिया। ऐसा नहीं है कि चीन भारत से घबराता नहीं है। यदि ऐसा न होता तो वह पाकिस्तान को अपनी बाहों में क्यों झुलाता? और 2008 में अमेरिका के साथ परमाणु करार होने के बाद अभी तक भारत के एनएसजी (न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप) देशों की सदस्यता लेने में क्यों अड़ंगे लगाता। जाहिर है कि एशिया भर में चीन को भारत ही प्रतियोगी नजर आता है।
चीन जानता है कि भारत की अर्थव्यवस्था से उसकी अर्थव्यवस्था पांच गुना बड़ी होने के बावजूद भारत की ‘साख’ एशिया व अफ्रीकी महाद्वीप में उससे ज्यादा ऊंची है। इसकी वजह ऐतिहासिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक सम्बन्ध व एकात्मता है मगर आज नेपाल तक उसके उकसावे में आकर हमारे खिलाफ जाने की जुर्रत कर रहा है। ऐसा चीन अपनी आर्थिक शक्ति की बदौलत ही कर पा रहा है और अपनी सामरिक शक्ति में विस्तार भी करता जा रहा है। अपनी इसी शक्ति का रौब वह भारत पर गालिब करना चाहता है जिसे भारतीय कभी स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि भारत की सेनाएं उसकी ‘गुंडा सेना’ का माकूल जवाब देने में पूरी तरह सक्षम है। उसकी विस्तारवादी नीतियों से भारत इस बार और ज्यादा आहत हुआ है क्योंकि उसने दोस्ती का दिखावा करके पुनः पीठ में छुरा घोंपा है।
जरूरी यह है कि उसकी बदनीयती का पर्दाफाश इस तरह किया जाये कि गफलत की जरा भी गुंजाइश ही न रहने पाये। हकीकत तो यह है कि चीन एक तरफ वार्ता करता है तो दूसरी तरफ आतंकवादियों की तरह व्यवहार करता है और हमारे सैनिकों को शहीद करके बातचीत की वकालत करने की जुगत भिड़ाता है। चाणक्य नीति कहती है कि चीन को जवाब भी इसी तरह दिया जाना चाहिए। भगवान बुद्ध ने कहा था कि सत्य वह नहीं है जो तुम ‘कहते’ हो बल्कि सत्य वह है जो तुम ‘करते’ हो। चीन के मामले में हमें इसी उक्ति पर खरा उतरना होगा।
-आदित्य नारायण चोपड़ा
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