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हांगकांग में मानवाधिकारों के लिए युद्ध

साम्यवादी विचारधारा केन्द्रित कम्युनिस्ट देश चीन कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो लेकिन मानवाधिकारों के हनन के मुद्दे पर वह दुनियाभर में बदनाम हो चुका है। चीन आर्थिक रूप से और सामरिक रूप से बहुत मजबूत है

 

04:30 AM Oct 10, 2019 IST | Ashwini Chopra

साम्यवादी विचारधारा केन्द्रित कम्युनिस्ट देश चीन कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो लेकिन मानवाधिकारों के हनन के मुद्दे पर वह दुनियाभर में बदनाम हो चुका है। चीन आर्थिक रूप से और सामरिक रूप से बहुत मजबूत है

 

साम्यवादी विचारधारा केन्द्रित कम्युनिस्ट देश चीन कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो लेकिन मानवाधिकारों के हनन के मुद्दे पर वह दुनियाभर में बदनाम हो चुका है। चीन आर्थिक रूप से और सामरिक रूप से बहुत मजबूत है लेकिन उसने हमेशा ही लोकतंत्र और आजादी की मांग को कुचला है। चीन की सत्ता काफी निरंकुश है। कम्युनिस्ट देश में असंतुष्टों को जेल में डाला जाता है या फिर उन्हें​ निष्कासितकर दिया जाता है। 1989 में थियानमेन चौक का इतिहास तो सबको याद है जब चीन के सुरक्षा बलों ने आंदोलनकारी छात्राें पर गोलियां बरसा कर मार दिया था। 
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छात्रों को मिलिट्री के टैंकों ने रौंद दिया था और छात्र आंदोलन को दमन चक्र के सहारे कुचल दिया था। चीन यद्यपि अपने पड़ौसियों से दबंगई करता रहता है लेकिन उसके भीतर भी असंतोष है। पहले चीन पर आवरण था। वहां क्या-क्या होता है, इसकी भनक तक दुनिया को नहीं लगती थी। चीन की खबरें छन-छन कर बाहर आती थीं। जब से चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था को विदेशी निवेश के लिए खोला है तभी से चीन की बातें कोई छिपी नहीं रह गईं। इंटरनैट और मोबाइल की दुनिया ने पूरा परिदृश्य ही बदल दिया है। अब चीन के घटनाक्रम की खबरें आसानी से मिल जाती हैं।
अब हांगकांग को ही ले लीजिए। वहां पिछले कुछ समय से असंतोष पनप रहा है जो अब काफी उग्र हो चुका है। अब चीन को हांगकांग में बड़ी चनौती मिल रही है। जनता के असंतोष के सामने चीन की सत्ता अभी तक बेबस दिखाई देती है।हांगकांग जो कभी चीन का हिस्सा होता था तथा बाद के दिनों में लगभग 99 वर्षों तक ब्रिटेन का उस पर अधिकार रहा। हांगकांग को 1987 में कुछ शर्तों के साथ चीन को सौंप दिया गया। ​ब्रिटिश  शासन के दौरान हांगकांग में प्रशासनिक व्यवस्था एक अलग प्रकार की थी और चीन में कम्युनिस्ट प्रशासन की व्यवस्था अलग प्रकार की थी। हांगकांग के प्रशासनिक हस्तांतरण के दौरान चीन और ब्रिटेन में संधि में यह शर्त भी रखी गई थी कि चीन अगले 50 सालों तक हांगकांग के प्रशासन में कोई परिवर्तन नहीं करेगा तथा चीन ने भी ‘एक देश-दो व्यवस्था’ के सिद्धांत को स्वीकार कर ​लिया  था।
हांगकांग एक व्यापारिक महानगर है, वहां पर विश्व के अनेक देशों के नागरिकों ने अपना व्यापार स्थापित किया है इसलिए उन्हें डर लगा रहता है कि कहीं चीन द्वारा ऐसी नीतियां उनके ऊपर न थोप दी जाएं जिस प्रकार का अमानवीय और अलोकतांत्रिक कानून चीन की मुख्य भूमि पर लागू है। पिछले 3 महीनों से हांगकांग अशांत है, जिसका कारण यह है कि हांगकांग प्रशासन द्वारा एक प्रत्यर्पण बिल पेश किया गया है, जिसमे  यह प्रावधान है कि कुछ अपराधों में अपराधियों को चीन की मुख्य भूमि पर प्रत्यर्पण कर दिया जाएगा तथा उस पर मुकदमे की कार्रवाई और सजा का प्रावधान भी चीन में ही होगा। हांगकांग का आम नागरिक इस प्रत्यर्पण कानून की मंशा को समझ चुका था इसलिए  वह आक्रोशित होकर हांगकांग की सड़कों पर चीन के खिलाफ प्रदर्शनों में शा​िमल हो गया।
इन प्रदर्शनों को चीन ने अपनी सैन्य ताकत का डर दिखाकर शांत करने का प्रयास किया। हांगकांग की सीमा से सटे चीनी शहर में सैन्य बलों द्वारा एक ‘दंगा नियंत्रण युद्ध अभ्यास’ किया गया जो मात्र हांगकांग के प्रदर्शनकारियों में डर पैदा करने के लिए था। चीन के सरकारी अखबार में इस प्रकार के लेख भी छपे कि चीन की सरकार हांगकांग में दंगों से निपटने के लिए ​​ थियानमेन चौक जैसी घटना को दोहरा सकती है। हांगकांग के दंगों को देखते हुए हांगकांग के प्रशासन ने इस बिल को संसद में पास करवाने का निर्णय वापस ले लिया। परिणामस्वरूप चीन की सरकार को भी झुकना पड़ा।
प्रत्यर्पण संबंधी बिल के विरोध में प्रदर्शनों के पीछे चीन की सरकार अमेरिका और यूरोपीय देशों का हाथ होने का आरोप लगा रही है लेकिन अब चीन को उसके ही घर हांगकांग से चुनौती मिल रही है। इसी के साथ-साथ ताइवान जैसे देशों से भी हांगकांग की जनता को समर्थन मिला क्योंकि चीन उन पर भी अपनी कुदृष्टि रखता है।हांगकांग में प्रदर्शनकारियों का चेहरा बन चुके 22 वर्षीय जोशुआ वांग को हांगकांग के प्रशासन ने गिरफ्तार कर लिया था, जिसे बाद में दबाव में आकर रिहा करना पड़ा। रिहा होने के बाद जोशुआ वांग ने जर्मनी की यात्रा के दौरान वहां के विदेश मंत्री से मुलाकात की जिससे चीनी प्रशासन खफा हो गया। 
जोशुआ वांग के अनुसार हांगकांग में अब प्रदर्शन प्रत्यर्पण कानून से भी आगे अधिक स्वतंत्रता की मांग को लेकर चल रहे हैं। चीन ने हमेशा भारत के मार्ग में बाधाएं खड़ी कीं। पाकिस्तान के दुर्दांत आतंकी अजहर मसूद को संयुक्त राष्ट्र की आतंकवादियों की सूची में डालने की राह में बार-बार वीटो किया लेकिन अंततः भारत को कूटनीतिक सफलता मिली। जब चीन पूरी तरह अलग-थलग पड़ा तो उसने अपने कदम वापस खींचे। 
कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान के साथ खड़ा दिखाई  देने वाले चीन को भी वैश्विक रुख देखकर पीछे हटना पड़ा क्योंकि पाकिस्तान का साथ देने पर पूरे विश्व में चीन पर आतंकवाद समर्थक देश का खिताब जुड़ जाता। पाकिस्तान चीन की मजबूरी है क्योकिउसने पाकिस्तान में अरबों डालर का निवेश कर रखा है। चीन को कश्मीर मुद्दे पर बोलने का कोई अधिकार नहीं क्योकि  मानवाधिकार हनन के मामले में उसका रिकार्ड पूरी तरह काला है। उसे पहले अपने भीतर झांकना चाहिए।
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