करुणानिधि के बाद क्या ?
तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमन्त्री श्री एम. करुणानिधि के निधन से दक्षिण भारत की तमिल राजनीति में वह शून्य पैदा हो गया है जिसे भर पाना आज के दौर
तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमन्त्री श्री एम. करुणानिधि के निधन से दक्षिण भारत की तमिल राजनीति में वह शून्य पैदा हो गया है जिसे भर पाना आज के दौर के किसी भी राजनीतिज्ञ के लिए संभव नहीं दिखता है क्योंकि श्री करुणानिधि केवल राजनीतिज्ञ ही नहीं थे बल्कि वह एक समाज सुधारक, चिन्तक और तमिल अस्मिता और उप राष्ट्रीयता के एेसे विचारशील प्रणेता थे जिन्होंने भारतीय संघ की एकता को कायम रखते हुए क्षेत्रीय सम्मान को शालीन पहचान देने में निर्णायक भूमिका निभाई। दक्षिण भारत में हिन्दी थोपने के विरुद्ध आन्दोलन में शिरकत करके उन्होंने केवल 14 वर्ष की आयु में ही सिद्ध कर दिया था कि तमिल संस्कृति की गहरी जड़ों का विस्तार भारत की एकता में कहीं बाधक नहीं है। उन्होंने तमिल भाषा को संस्कृत के समकक्ष शास्त्रीय दर्जा ही नहीं दिलाया बल्कि यह भी सिद्ध किया कि द्रविड़ संस्कृति भारत की ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ मान्यता का ही जीता-जागता स्वरूप रही है किन्तु भारत की राजनीति में उनका सबसे बड़ा योगदान यह माना जायेगा कि उन्होंने दलितों व पिछड़ों को अपने शासन के दौरान वह स्थान दिलाने में कमरतोड़ मेहनत की जिसकी परिकल्पना कभी बाबा साहेब अम्बेडकर ने की थी। राज्य की ब्राह्मणवादी व्यवस्था को तोड़ने की सीख उन्हें स्व. पेरियार से मिली थी जिन्होंने द्रविड़ संस्कृति में जातिवादी व्यवस्था को स्थानरहित बताते हुए इसे कथित आर्य संस्कृति का अतिक्रमण बताया था।
स्व. पेरियार की शागिर्दी में ही उन्होंने 1938 में हिन्दी विरोधी आदोलन में भाग लिया था। पेरियार ने यह आन्दोलन स्व. राजगोपाला चक्रवर्ती द्वारा राज्य में हिन्दी को अनिवार्य बनाये जाने के विरुद्ध शुरू किया था। मद्रास रेजीडेंसी में अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान ही 1920 से ही सीमित मताधिकार द्वारा मद्रास विधान परिषद के चुनाव होने लगे थे और इनमें राज्य की जस्टिस पार्टी का दबदबा था जो इस राज्य की 1936 तक प्रान्तीय एसेम्बली बनने तक कायम रहा मगर अंग्रेजी शासनकाल में जब देशभर की विभिन्न चुनीन्दा प्रान्तीय एसेम्बलियों के चुनाव हुए तो इनमें कांग्रेस को शानदार जीत हासिल हुई और यह सिलसिला 1967 तक चलता रहा। जस्टिस पार्टी सामाजिक न्याय की अलम्बरदार थी। इसी वजह से कामराज जैसे नेता भी इस पार्टी में अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत में रहे थे मगर 1936 में जब ब्रिटिश शासन के दौरान चुनीन्दा प्रान्तीय एसेम्बलियों के चुनाव हुए तो इनमें कांग्रेस की शानदार जीत हुई और स्व. राजाजी मुख्यमन्त्री बनाये गये। उन्होंने ही हिन्दी को अनिवार्य विषय बना दिया था जिसका विरोध पेरियार ने कांग्रेस में रहते हुए ही किया था, 1939 में उन्होंने जस्टिस पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली और 1944 में इसी पार्टी को तोड़कर ‘द्रविड़ कषगम’ पार्टी की स्थापना करके ‘द्रविड़ नाडु’ राष्ट्र का नारा दिया और चुनावी राजनीति में भाग न लेने के एेलान के साथ कहा कि उनकी पार्टी द्रविड़ नाडु के लिए आन्दोलन चलायेगी मगर कुछ समय बाद ही पेरियार ने अपनी बूढ़ी उम्र में एक नवयोवना से विवाह कर लिया जिसका असर आम जनता पर विपरीत हुआ और भारत के आजाद होने की घोषणा होने पर भी पेरियार की इसी जिद के चलते स्व. अन्ना दुरै ने 1949 में उनसे अलग होकर अपनी पार्टी ‘द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम’ बना ली मगर इसका लक्ष्य भी शुरू में द्रविड़ कषगम वाला ही रहा। तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. नेहरू की निगाह में इस घटनाक्रम का न आना संभव नहीं था।
इसलिए वह 1955 के आसपास एक संविधान संशोधन लाये जिसमें यह प्रावधान था कि वह राजनैतिक दल चुनाव नहीं लड़ सकता जो भारत के किसी भू-भाग को इससे अलग करने की वकालत करता हो। इसकी वजह यह थी कि द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम के नेता स्वतन्त्र उम्मीदवार के रूप में 1952 में चुनाव लड़े थे मगर बुरी तरह हारे भी थे। इसके बाद द्रमुक के संस्थापक अन्ना दुरै ने अपनी पार्टी के संविधान में संशोधन किया और घोषित किया कि भारत से पृथक होने का उनकी पार्टी का उद्देश्य नहीं है, यही वजह रही कि करुणानिधि ने 1957 का चुनाव निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़ा था और इसमंे वह जीते थे और इसके बाद हुए किसी भी चुनाव में जीवन पर्यन्त नहीं हारे परन्तु द्रविड़ कषगम के सिद्धान्तों पर यकीन करते हुए 1940 से ही वह तमिल फिल्मों में कहानी, संवाद आदि लिखने का काम करने लगे थे और इसे तमिल संस्कृति को उजागर करने का उन्होंने एेसा सशक्त माध्यम भी बनाया जो उस समय के फिल्म अभिनेता एम.जी. रामचन्द्रन की लोकप्रियता बढ़ाने के काम आया।
1953 में एम.जी. रामचन्द्रन भी द्रमुक में शामिल हो गये और दोनों साथ काम करने लगे। यह मोटा इतिहास मैं इसीलिए लिख रहा हूं जिससे उत्तर भारत के पाठकों को तमिलनाडु की उलझी हुई राजनीति का एहसास हो सके मगर फिलहाल यह गौर करने वाला मुद्दा है कि तमिलनाडु में करुणानिधि के बाद क्या होगा क्योंकि वह राज्य की राजनीति में पांच बार मुख्यमन्त्री रहने के बावजूद राष्ट्रीय राजनीति में अहम किरदार इस तरह निभाते रहे थे कि उन्होंने 1989 में वी.पी. सिंह की मिलीजुली साझा सरकार बनवा दी थी और इसमें अपनी पार्टी के स्व. मुरासोली मारन को मन्त्री बनवा कर दक्षिण भारत का प्रतिनिधित्व दिया था। वह स्व. कामराज के बाद अकेले एेसे नेता थे जो क्षेत्रीय क्षत्रप होने के बावजूद केन्द्र में पद पाने के इच्छुक तब भी नहीं रहे जब प्रधानमन्त्री पद तक उनके पास आने वाला था। 1996 में एेसी ही परिस्थितियां बन गई थीं कि विभिन्न दलों की तरफ से उन्हें प्रधानमन्त्री पद की पेशकश की गई थी लेकिन हिन्दी विरोध से अपना राजनीतिक जीवन शुरू करने वाले करुणानिधि के सामने तब वैसी ही पशोपेश पैदा हो गई थी जैसी 1964 में नेहरू जी की मृत्यु के बाद श्री कामराज के सामने। स्व. कामराज ने तो साफ कह दिया था कि प्रधानमन्त्री बनने के लिए हिन्दी आना बहुत जरूरी है मगर करुणानििध ने इसे सार्वजनिक न करते हुए इस हकीकत को स्वीकार किया था।
उनके जैसा कद्दावर नेता क्या तमिलनाडु में अब कोई नजर आता है? उनके पुत्र एम.के. स्टालिन पिछले कई साल से पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष हैं। दूसरी तरफ फिल्मी कलाकार अपनी-अपनी पार्टियां बनाकर तमिलनाडु में जोर-आजमाइश करना चाहते हैं। तीसरी तरफ अन्नाद्रमुक पार्टी में एक से बढ़कर एक नाकारा व चाटुकारों की भीड़ है। चौथी तरफ इस राज्य की राजनीति में वोट के लिए नोट की नई संस्कृति पनप चुकी है। हमने देखा कि किस तरह श्री करुणानिधि की मृत्यु के बाद उनके समाधिस्थल के स्थान को लेकर अन्नाद्रमुक सरकार ने बचकाना हरकत की। इसे देखते हुए आसार अच्छे नजर नहीं आ रहे हैं। अतः बहुत जरूरी है कि इस राज्य में सामाजिक न्याय की जो लौ जगाई गई है उसे बुझने न दिया जाये क्योंकि देशभर में इसी राज्य ने इस न्याय की सबसे पहले अलख जगाई थी और दलितों, पिछड़ों को 69 प्रतिशत आरक्षण दिया था जिसका सम्बन्ध संविधान में किये गये प्रथम संशोधन से है। दरअसल करुणानिधि की शख्सियत हमें यह बताती है कि किस प्रकार राज्यों के सशक्त होने से देश मजबूत होता है और किस प्रकार विविधता को बनाये रखकर हम एकता स्थापित कर सकते हैं क्योंकि उन्होंने शुरूआत द्रविड़ नाडु से करके इसे तमिलनाडु पर खत्म किया और इसी धारा को संवैधानिक दायरे में मजबूत किया। मुद्दा केवल यह है कि उनकी विरासत को स्टालिन किस तरह थामे रहेंगे और सामाजिक न्याय के ध्वज को ऊंचा रखेंगे। इस राज्य की राजनीति यही है, इसके अलावा और कुछ नहीं। फिल्मी सितारों के प्रति यहां के लोगों का आकर्षण उनके न्याय के लिए लड़ने के किरदारों से ही पैदा होता रहा है।