अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा क्या हो?
अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा क्या हो, यह हमेशा से विवाद का विषय रहा है। हाल ही…
अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा क्या हो, यह हमेशा से विवाद का विषय रहा है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ गुजरात पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज करने पर सवाल उठाए हैं। ये एफआईआर एक सोशल मीडिया पोस्ट पर हुई थी। पोस्ट में ‘ऐ खून के प्यासे बात सुनो’ नाम की कविता थी। कोर्ट ने कहा कि कविता अहिंसा को बढ़ावा देती है। किसी धर्म या राष्ट्र विरोधी गतिविधि से इसका कोई लेना-देना नहीं है। कोर्ट ने कहा, पुलिस को कुछ संवेदनशीलता दिखानी चाहिए थी। कार्रवाई करने से पहले उन्हें कविता पढ़नी चाहिए थी। कोर्ट ने एफआईआर को गलत बताते हुए कहा कि 75 साल के संविधान के इतिहास में अब तक पुलिस को अभिव्यक्ति की आजादी समझ आ जानी चाहिए थी। कोर्ट ने जो कहा वो सिर-माथे। कोर्ट पर सवाल उठाये नहीं जा सकते और न ही कभी उठने ही चाहिए।
प्रत्येक भारतीय को नागरिक के रूप में सरकार की आलोचना करने का अधिकार है और इस प्रकार की आलोचना को राष्ट्र विरोध के रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता है। आलोचना को राष्ट्र विरोध के रूप में परिभाषित करने की स्थिति में भारत का लोकतंत्र एक पुलिस राज्य के रूप में परिणत हो जाएगा। लगभग 21 महीने के राष्ट्रीय आपात के बाद जेल से स्वतंत्र हुए स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के निम्नलिखित कथन से परिलक्षित होता है कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की महत्ता कितनी अधिक है-
‘‘बाद मुद्दत के मिले हैं दीवाने,
कहने-सुनने को बहुत हैं अफसाने,
खुली हवा में जरा सांस तो ले लें,
कब तक रहेगी आज़ादी कौन जाने?’’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली बार सत्ता संभालने के एक माह बाद जून 2014 में कहा था, ‘अगर हम बोलने व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी नहीं देंगे तो हमारा लोकतंत्र नहीं चलेगा।’
गौरतलब है कि लोकतंत्र में विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बुनियादी मूल्य है और संविधान में इन्हें कहीं अधिक महत्व दिया गया है। भारत का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा और जनता के लिए निहायत उदार दृष्टि से भरा है। इसी संविधान के भीतर अनुच्छेद 19(1)(क) में मूल अधिकार के अंतर्गत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निहित है जो न केवल लोक सशक्तीकरण का पर्याय है, बल्कि शासन व्यवस्था को लोकहित में समद्दपत बनाए रखने का अनूठा काम भी करता है। अमर्त्य सेन की पुस्तक ‘द आर्गुमेंटेटिव इंडियन’ इसकी प्रासंगिकता को उजागर करती है। अभिव्यक्ति को असहमति से जोड़ना उतना ही समूचित है जितना सहमति से, जिसकी इजाजत संविधान भी देता है और औपनिवेशिक सत्ता के दिनों में यही सब हासिल करने के लिए वर्षों संघर्ष किया गया।
सहमति और असहमति लोकतंत्र के दो खूबसूरत औजार हैं। इनमें से एक तभी बेहतर होता है जब दूसरा सक्रिय होता है और जब देश में प्रजातांत्रिक मूल्यों को मजबूती के साथ लोकहित की जद में अंतिम व्यक्ति भी शामिल होता है तो देश का नागरिक असहमति से सहमति की ओर स्वयं गमन कर लेता है। जाहिर है असहमतियों का दमन लोकतंत्र के लिए सुखद नहीं है। एक सभ्य और सहिष्णु समाज के निर्माण के लिहाज से असहमतियों को भी स्थान मिलना चाहिए।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के कारण भारत की लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के अंतर्गत शासन की शक्तियों का आज तक शांतिपूर्ण हस्तांतरण होता आया है। जिसने भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश बनाया एवं इसे स्थायित्व प्रदान किया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी अधिकारों की जननी मानी जाती है। यह सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक मुद्दों पर जनमत तैयार करती है। मेनका गांधी बनाम भारत संघ मामले में न्यायमूर्ति ने वाक स्वतंत्रता पर बल प्रदान करते हुए कहा कि लोकतंत्र मुख्य रूप से बातचीत एवं बहस पर आधारित है तथा लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश में सरकार की कार्यवाही के उपचार हेतु यही एक उचित व्यवस्था है। अगर लोकतंत्र का मतलब लोगों का, लोगों द्वारा शासन है तो स्पष्ट है कि हर नागरिक को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार है और अपनी इच्छा से चुनने के बौद्धिक अधिकार के लिये सार्वजनिक मुद्दों पर स्वतंत्र विचार, चर्चा और बहस ज़रूरी है। इससे न सिर्फ लोकतंत्र को मज़बूती प्रदान की गई है बल्कि तार्किक चयन की स्वतंत्रता प्रदान कर बाज़ार-आधारित अर्थव्यवस्था के विकास, समाज में संवाद अंतराल और सामाजिक तनाव को कम किया है।
देश में अभिव्यक्ति की सीमा के संदर्भ में चिंतन होना चाहिए। वैसे संविधान के अनुच्छेद 19(2) में कुछ अभिव्यक्तियों में पाबंदी की बात है। मौजूदा समय में अभिव्यक्ति के कई आयाम देखे जा सकते हैं। आज जिस तरह से इंटरनेट मीडिया सुगमता से लोगों की पहुंच में है, वह अभिव्यक्ति की असीम ताकत बन गई है। इसकी अभिव्यक्ति की सीमा को लेकर कई बार सरकार भी असमंजस में रही है और इस पर आंशिक पाबंदी की खबरें भी सामने आती रही हैं। हालांकि अब तक इस दिशा में कुछ खास नहीं हुआ है।
देखा जाए तो कई बार आतंकवादियों के लिये भी स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति और मानवाधिकार की बात की जाती है लेकिन स्वतंत्रता एवं स्वच्छंदता में फर्क होता है। मानवाधिकार एवं अभिव्यक्ति की आजादी भारत के संविधान द्वारा संरक्षित है, पर संविधान की रक्षा कौन करता है? जो संविधान की रक्षा करता है उसके मानवाधिकारों की रक्षा की बात क्यों नहीं की जाती? उसकी अभिव्यक्ति की आजादी का क्या? आतंकवादियों के मरने पर अगर उनके घर जाकर अफसोस जताया जाता है तो क्या शहीदों के घर जाने की ज़रूरत नहीं है? क्या उस सिपाही का मानवाधिकार नहीं होता जिसके ऊपर पाकिस्तान से पैसा लेकर कश्मीरी युवक पत्थर फेंकते हैं। इसलिये मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की राष्ट्रहित में मर्यादा निश्चित की जानी आवश्यक है।
वर्तमान समय में कुछ लोगों द्वारा स्वयं के हित के लिये अपनी संस्कृति की रक्षा के नाम पर फिल्मों, उपन्यासों का विरोध करने से भी अभिव्यक्ति का अधिकार सीमित होता है। वहीं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग लोगों द्वारा स्वयं को लाइम-लाइट में लाने एवं अपने राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाने हेतु करना भी आम हो गया है। इसके अलावा आतंकी समूहों द्वारा सोशल मीडिया का प्रयोग भर्तियों एवं आतंकी गतिविधियों के संचालन हेतु करना ऐसी समस्याएं हैं जिन्होंने न सिर्फ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को चुनौती दी है बल्कि सरकार द्वारा इससे निपटना अत्यंत कठिन बना दिया है।
वास्तव में, अभिव्यक्ति की आजादी जहां समाज को जोड़ने का काम करती है, वहीं द्वेषपूर्ण भाषण समाज में वैमनस्य फैलाता है, लोगों के बीच अविश्वास की खाई पैदा करता है और एक दूसरे के खिलाफ उठ खड़े होने के लिए उकसाता है। घृणा-संवाद एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मध्य अंतर को समझना भी बहुत जरूरी है। मजबूत लोकतंत्र हेतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ उसकी सीमा का तय होना भी आवश्यक है। इन दोनों में पूरकता के संबंध को स्वीकार करते हुए बढ़ावा देने की आवश्यकता है ताकि राष्ट्र लगातार प्रगति के रास्ते पर अग्रसर हो सके, समाज समावेशी बने एवं विश्व में भारतीय संविधान जो कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हेतु प्रसिद्ध है, की गरिमा बरकरार रहे। वैसे देखा जाए तो असहमतियां लोकतंत्र के प्रति निष्ठा का ही एक संदर्भ है, बशर्ते इसके सहारे राष्ट्र विरोधी गतिविधियों को मौका नहीं मिलना चाहिए। सरकारें आती और जाती रहेंगी, मगर लोकतंत्र कायम रहना चाहिए।