जब बार-बार संविधान की हत्या की बात की जाए!
अभी हाल ही में पटना के गांधी मैदान पर वक्फ संशोधन बिल को कूड़े में फेंकने की बात की गई, जो संविधान की हत्या से कम नहीं थी, ठीक ऐसे ही जैसे 1975 में आपातकाल की घोषणा की गई थी। पटना में सभी विरोधी पार्टियों ने मोर्चा संभालते हुए कहा कि वे वक्फ संशोधन बिल को ग़ैर कानूनी समझते हैं। बड़ी हैरानी की बात है कि जो बिल संसद में पास हो गया उसे कुछ लंपटवादी के कारण असंवैधानिक क़रार दिया जा रहा है। अभिव्यक्ति की आज़ादी और क़ानून के कुछ लचर पहलुओं ने मज़ाक बना रखा है संविधान का।
यदि हम इतिहास के पन्नों को पलटें तो पता चलेगा कि अगस्त 1975 में अपनी सुरक्षा के लिए संविधान संशोधन करने के पश्चात इंदिरा गांधी और संजय गांधी लग गए अपने अगले लक्ष्य की ओर। दो बातें खास तौर से इनको साध्य करनी थीं। प्रथम तो बचे-खुचे विपक्षियों को और संघ के स्वयंसेवकों को समाप्त करना और ऐसी दहशत निर्माण करना कि देश के किसी भी नागरिक को सरकार के विरोध में बोलने की हिम्मत ही ना हो। द्वितीय, यह कि नसबंदी द्वारा जनसंख्या कम करके इस देश को सुंदर बनाना। उस समय जॉर्ज फर्नांडिस, नानाजी देशमुख, सुब्रमण्यम स्वामी, दत्तोपंत ठेंगड़ी, सिकंदर बख्त, विजय गोयल आदि भूमिगत थे। अनेक संघ के प्रचारक सरकार के हाथ नहीं लगे थे। इनको गिरफ्तार तो करना ही था, साथ ही दहशत भी पैदा करनी थी। असल में पूर्ण देश को जकड़ने की साज़िश थी यह।
कांग्रेस कैसी दहशत पैदा करती थी, उसका उदाहरण ही कि 7 अप्रैल 1976 के दिन, "दिल्ली हाईकोर्ट बार एसोसिएशन" के चुनाव हुए। अब बार एसोसिएशन क्यों न हो, दहशत के इस माहौल में क्या और कैसे चुनाव हो सकते हैं, इसलिए इस चुनाव में कांग्रेसी चेले, डी.डी. चावला बड़े ही सहजता से जीत जाएंगे, ऐसा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को लग रहा था, पर हुआ उल्टा। डी.डी. चावला को पटखनी देकर दिल्ली के तिहाड़ जेल में बंद संघ के स्वयंसेवक, प्राणनाथ लेखी जीतकर आए। यही किस्सा "जिला बार एसोसिएश"' में दोहराया गया। वहां पर भी कंवरलाल गुप्ता चुनकर आए, क्योंकि जनता तब भी परिपक्व थी और उसको अच्छाई का आभास था। फिर क्या था, कांग्रेस का खून खौला। उसने दूसरे ही दिन कोर्ट परिसर में बुलडोजर भेज दिए। जिला और सेशंस कोर्ट के आसपास अनेक वकीलों के कार्यालय थे। पार्टी के आदेश पर उस दिन 1000 से ज्यादा कार्यालयों पर बुलडोजर चलाया गया। यह छुट्टी का दिन था। जैसे ही वकीलों को पता चला, वह भागते-दौड़ते आए, अपना सामान, कागजात बचाने, पर कुछ नहीं हो सका। पुलिस ने उन्हें बड़ी निर्ममता से लाठी मार-मार के भगाया। वकीलों में आक्रोश निर्माण हुआ।
दूसरे ही दिन इस घटना का विरोध करने के लिए कुछ वकीलों ने मुख्य न्यायाधीश टी.वी.आर. ताताचारी को ज्ञापन देने का निश्चय किया। ज्ञापन देने यह 43 सीनियर एडवोकेट्स एक बस से जा रहे थे। पुलिस ने बस को रोका, सभी को गिरफ्तार किया। 24 को "मीसा"में और 19 लोगों को "राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम" में बंद किया। अगले ही सप्ताह और 700 कार्यालय ध्वस्त कर दिए गए। कुल 98 वकीलों को मिसा में बंद किया। इमरजेंसी में कुछ करने के लिए इंदिरा गांधी ने एक 20 सूत्रीय कार्यक्रम जारी किया तो दूसरी ओर एक छोटा 5 सूत्रीय कार्यक्रम भी था। यह कार्यक्रम अच्छे थे किंतु इन्हें करने के लिए आपातकाल की आवश्यकता नहीं थी और इन्हें लागू किया गया जुल्म और दहशत के आधार पर। सरकार नई दिल्ली को सुंदर बनाने का बीड़ा उठाया तुरंत आदेश जारी हुए। नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली के बीच, दरियागंज के पहले, दिल्ली गेट और तुर्कमान गेट आदि स्थानों पर घनी मुस्लिम आबादी है। कांग्रेस के आदेश पर 13 अप्रैल 1976 को वहां बुलडोजरों की फौज खड़ी हुई। यह बैसाखी का दिन था किंतु 19 अप्रैल से बुलडोजर आगे बढ़ने लगे। उन्हें रोकने के लिए सारी बस्ती सड़क पर उतर आई। दोपहर को पुलिस ने जमा हुई भीड़ पर लाठी भांजना चालू किया। आंसू गैस के गोले भी फोडे़ किंतु क्या पुरुष, क्या महिला, क्या बच्चे, कोई भी हिलने तैयार नहीं।
सूचना प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल की दबंगई ऐसी ही थी। कांग्रेस का दूसरा कीड़ा था, नसबंदी। इस नसबंदी की मुहिम ने ऐसा आतंक मचाया कि लाखों पुरुषों का जीवन बर्बाद हुआ। अनेकों ने इसके कारण आत्महत्या की। इंदिरा गांधी के चुनाव क्षेत्र रायबरेली के पास सुल्तानपुर का किस्सा है कि यहां के नारकादि गांव में जबरन नसबंदी करने के विरोध में जब गांव वाले इकट्ठा हुए तो पुलिस ने उन पर गोली चलाई। 13 लोग मारे गए। सैकड़ों जख्मी हुए।
ऐसे निराशाजनक वातावरण में बेंगलुरु के कारागृह से अटल बिहारी वाजपेयी जी ने एक कविता लिखी जिसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं ः "टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते सत्य का संघर्ष सत्ता से, न्याय लड़ता निरंकुशता से, अंधेरे ने दी चुनौती है, किरण अंतिम अस्त होती है।