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पेट्रोल कहां जाकर थमेगा?

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12:46 AM Apr 09, 2018 IST | Desk Team

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संभवतः पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में भारत अकेला एेसा देश है जिसमें पेट्रोल व डीजल के दाम सबसे ऊंचे हैं। एेसा तब है जब इसकी मुद्रा रुपये की कीमत इस उपमहाद्वीप के सभी देशों की मुद्रा की कीमत डालर के मुकाबले सबसे महंगी है। बांग्लादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका आदि देशों की मुद्रा की कीमत भारतीय रुपये के मुकाबले में ही सस्ती है। इसके बावजूद पाकिस्तान जैसे अधमरे देश में पेट्रोल 47 रु. प्रति लीटर है।

दूसरी तरफ भारत की अर्थव्यवस्था उपमहाद्वीप के सभी देशों के मुकाबले सबसे ज्यादा मजबूत है। यह एेसा विरोधाभास है जिसकी वजह से भारत के आम आदमी को सोचने पर मजबूर होना पड़ रहा है कि उसके देश की सरकार की ईंधन नीति आम आदमी का अधिकाधिक शोषण करने के सिद्धान्त पर टिकी हुई है और इसके माध्यम से सरकार बहुत आसानी से उससे अधिकाधिक राजस्व वसूली करके अपने खजाने को भरकर अपना खर्चा चलाना चाहती है।

पिछले चार साल के दौरान अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट आती रही। बेशक पिछले दो महीने से यह कीमत 50 डालर प्रति बैरल से पलटकर पहले 70 डालर होकर फिर से 63 डालर प्रति बैरल तक आ गई मगर 2014 में कच्चे तेल की यह कीमत 125 डालर प्रति बैरल थी तो भारत में पेट्रोल की कीमत ठीक वही थी जो आज 63 डालर प्रति बैरल हो जाने पर चल रही है जबकि वर्तमान सरकार ने घरेलू बाजार में पेट्रोल की कीमतों को अन्तर्राष्ट्रीय कीमत से जोड़ने का दावा किया हुआ है और इसके अनुरूप तेल कम्पनियों को प्रत्येक दिन पेट्रोल की कीमत तय करने की छूट दे रखी है।

सवाल पैदा होता है कि सरकार ने कौन सी व्यवस्था बनाई है जिसकी वजह से अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत घटने के बावजूद घरेलू बाजार में पेट्रोल की कीमत लगातार महंगी हो रही है? यह समझना मुश्किल काम इसलिए नहीं है क्योंकि पिछली मनमोहन सरकार के दौरान बढ़ी हुई अन्तर्राष्ट्रीय कीमतों के बावजूद सरकार ने घरेलू बाजार में पेट्रोल की कीमतों को उस हद तक ही बढ़ने दिया था जिससे उसकी राजस्व राशि ज्यादा न घट सके।

इसके ​लिए उसने कच्चे तेल पर लगने वाले उत्पाद शुल्क को यथानुरूप घटाया परन्तु वर्तमान सरकार ने अपनी राजस्व राशि बढ़ाने के लिए उत्पाद शुल्क की दरों को पिछले चार साल में नौ बार बढ़ाया और अपने खजाने में ज्यादा धनराशि इकट्ठा की। सरकारों के लिए राजस्व राशि बढ़ाने के लिए कच्चे तेल पर उत्पाद शुल्क की दर बढ़ाने का सबसे सरल रास्ता होता है। इसीलिए इसे ‘इजी मनी’ भी कहा जाता है। इसका सम्बन्ध औद्योगिक नीति या व्यापार नीति से नहीं होता जिसकी वजह से देश में अर्थव्यवस्था में सुधार होकर अधिक राजस्व की प्राप्ति हो सके।

अतः यह इस बात का भी प्रमाण कहा जा सकता है कि पिछले चार वर्षों में अर्थव्यवस्था में सुधार की दर घटी है जबकि सरकार लगातार इसमें वृद्धि होने के दावे करती रहती है। यदि एक लीटर पेट्रोल पर विभिन्न शुल्कों (केन्द्र व राज्य) को छोड़कर इसकी कीमत का हिसाब लगाया जाये तो भारत में इसकी कीमत जरूरी परिशोधन खर्च लगाकर अधिकाधिक 37 रुपए प्रति लीटर बैठेगी।

अतः जाहिर है कि सरकार जमकर आम जनता को इस मोर्चे पर मूर्ख बना रही है और आर्थिक उदारीकरण के नाम पर प्रत्यक्षतः उस व्यक्ति को ठग रही है जो स्कूटर या मोटरसाइकिल चलाता है। महंगाई के मोर्चे पर जिस तरह शिथिलता का माहौल बना हुआ है उससे रुपये की क्रय शक्ति में लगातार गिरावट आ रही है और चीजें लगातार महंगी होती जा रही हैं।

यह सोचा जा सकता है कि भारत में जिस तरह लगातार वाहनों की संख्या में वृि​द्ध हो रही है उससे पेट्रोल की खपत में भी लगातार वृद्धि हो रही है परन्तु इसका आम आदमी के विकास से ज्यादा लेना-देना नहीं है क्योंकि बैंकिंग ऋण सुविधा के चलते स्कूटर व मोटर साइकिल की बिक्री में आयी वद्धि का आम आदमी की आय में वृद्धि से प्रत्यक्षतः सम्बन्ध नहीं है।

यह निश्चित रूप से अजीब विरोधाभास की स्थिति है। हम जितना विकास करते हैं उसकी भरपाई कच्चे तेल के आयात में मुद्रा खर्च करके कर देते हैं। अतः जमीन पर विकास गायब ही रहता है और केवल पेट्रोल व डीजल का धुआं उड़ाकर हम विकास करना चाहते हैं। इस स्थिति को बदलने के लिए यदि प्रयास नहीं होता है तो हम मलेशिया या इंडोनेशिया बन सकते हैं। शुक्र इस बात का है कि हमारी मुद्रा रुपया पूर्ण परिवर्तनीय नहीं बना है। अतः स्थिति गंभीर है, इसे नकारा नहीं जा सकता।

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