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विदेशी नागरिक कौन है ?

यह सवाल बहुत ही उलझा हुआ है कि स्वतन्त्र भारत में किसे विदेशी समझा जाये क्योंकि अंग्रेजों ने भारत के जिस बेरहमी के साथ टुकड़े पर टुकड़ेे किये

12:47 AM Aug 02, 2018 IST | Desk Team

यह सवाल बहुत ही उलझा हुआ है कि स्वतन्त्र भारत में किसे विदेशी समझा जाये क्योंकि अंग्रेजों ने भारत के जिस बेरहमी के साथ टुकड़े पर टुकड़ेे किये

यह सवाल बहुत ही उलझा हुआ है कि स्वतन्त्र भारत में किसे विदेशी समझा जाये क्योंकि अंग्रेजों ने भारत के जिस बेरहमी के साथ टुकड़े पर टुकड़ेे किये उससे इस देश की सामूहिक नस्ली, मजहबी और जातीय व क्षेत्रीय सांस्कृतिक व सामाजिक समरसता भी खंड-खंड हो गई। 1889 में अफगानिस्तान को भारत से अलग करने के बाद अंग्रेजों ने श्रीलंका को 1919 में भारत से अलग किया। इसके बाद 1935 में बर्मा (म्यांमार) को अलग देश घोषित किया और अन्त में भारत का बंटवारा करके पश्चिमी व पूर्वी पाकिस्तान इस तरह बनाया कि पंजाबी व बंगाली सांस्कृतिक एकता धर्म के नाम पर बिखर जाये जबकि तमिलनाडु और कोलम्बो (श्रीलंका) की सांस्कृतिक एकता को सबसे पहले तोड़ा गया और उसके बाद हमारे उत्तर-पूर्वी राज्यों की सहोदर सांस्कृतिक साझेदारी को छिन्न-भिन्न किया गया और अन्त में हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर भारत को दो हिस्सों में इस तरह तामीर किया गया कि पंजाबी व बांग्ला संस्कृति अपना सिर धुनने लगे। पुरानी पीढ़ी के लोगों को याद होगा कि सत्तर के दशक के शुरू तक किस तरह सरकारी नौकरियों के विज्ञापन में यह लिखा हुआ आया करता था कि वे नागरिक भी आवेदन करने के अधिकारी होंगे जिनका जन्म 1935 से पहले ‘भारत’ में हुआ है। दरअसल भारतीय नागरिकता कानून को जब हमारे संविधान रच​ियता बाबा साहेब अम्बेडकर बना रहे थे तो उनके सामने इस कदर दिक्कत पेश आयी थी कि उन्होंने कई बार इस कानून के मसौदे बना-बना कर फाड़े थे अाैर तब जाकर वह किसी निष्कर्ष पर पहुंच पाये थे।

इसकी वजह यही थी कि अंग्रेजों ने हमें एेसी विरासत सौंपी थी जिसकी वजह से भारत के संविधान निर्माताओं के सामने कई उलझे हुए प्रश्न पैदा हो रहे थे मगर उन्होंने इसका हल पूरी दूरदर्शिता के साथ निकाला और इस प्रकार निकाला कि किसी भी हिन्दोस्तानी के साथ अन्याय न हो सके। तब सबसे बड़ा सवाल यह था कि 1947 में बंटवारा हो जाने पर पंजाब व बंगाल में जो लोग पाकिस्तान से बचे-खुचे भारत में आ रहे हैं और भारत से पाकिस्तान जा रहे हैं वे पक्के तौर पर सम्बन्धित देश की राष्ट्रीयता से बन्धें। यह कार्य उन्होंने बहुत सूझ-बूझ और होशियारी के साथ किया और इस प्रकार किया कि 1935 से पहले म्यामांर में रहने वाले लोगों के भारत में उस दौरान आने वाले लोगों को भी कोई परेशानी न हो जबकि पाकिस्तान बनने पर तो आबादी की अदला-बदली की पूरी छूट दी गई थी। यह नागरिकता के प्रश्न पर कोई छोटी-मोटी समस्या नहीं थी क्योंकि वे लोग पक्के भारतीय समझे गये थे जो पाकिस्तान बनने के समय वहां से भारत आये थे। बेशक उनका जन्म नये बनने वाले देश पाकिस्तान की सीमाओं में हुआ था। इसकी असली वजह यह थी कि बंटवारा किसी भी स्तर पर स्वाभाविक नहीं था। न तो भौगोलिक दृष्टि से और न ही सांस्कृतिक या भाषाई दृष्टि से मगर इतिहास की जो त्रासदी होनी थी वह अंग्रेजों की साजिश की वजह से होकर रही परन्तु बांग्लादेश के उदय ने इस त्रासदी के दिये गये जख्मों पर पानी डालने का काम एक हद तक किया और समूचे बांग्ला भाषी लोगों के सामने यह अवसर रखा कि वे मजहब की पहचान को ताक पर रखकर उस सांस्कृतिक पहचान को अपना ईमान समझें जो उन्हें इंसानियत की राह दिखाती है मगर बांग्लादेश उदय के समय जिस तरह पाकिस्तान की फौजों ने बंगाली मुसलमानों का कत्लेआम मचाया और उन पर जुल्मों का पहाड़ ढहा दिया उससे बचने के लिए 1970 की अन्तिम तिमाही से ही पूर्वी पाकिस्तान से लोग असम में आने लगे थे।

ये लोग वे थे जिन्हें पाकिस्तानी फौज ने अपने जुल्म के कारनामों से असम में शरण लेने के लिए मजबूर किया था। क्योंकि पाक की फौज असम से लगे पाकिस्तान के इलाकों में बांग्ला भाषी मुसलमानों का कत्लेआम इस तरह कर रही थी जैसे ये इंसान न होकर कोई गाजर-मूली हों। इसको ही आधार बना कर तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान सरकार की मानवीयता के विरुद्ध की जा रही कार्रवाइयों को मुद्दा बनाया और पूरे संसार में इसके लिए व्यापक मुहिम चलाई और बाद में बंगलादेशी शर्णार्थियों के भारत आने पर 16 दिसम्बर 1971 को केवल 13 दिन के युद्ध के बाद बांग्लादेश का निर्माण करा दिया और एक लाख पाकिस्तानी फौजियों से ढाका में आत्मसमर्पण करा लिया। इसलिए 25 मार्च 1971 के दिन को बंगबन्धु शेख मुजीबुर्रहमान और इन्दिरा जी ने आधार बिन्दु बनाकर तय किया कि इस तारीख तक असम में आने वाले लोगों को भारतीय नागरिकता प्रदान किये जाने में कोई दिक्कत नहीं आयेगी बशर्ते वे एेसा चाहते हों मगर इसके बाद आये शरणार्थियों को नवोदित राष्ट्र बांग्लादेश जाना होगा अतः असम में आये बांग्लादेशियों के मुद्दे को हमें एेतिहासिकता के व्यापक परिप्रक्ष्य में देखना होगा लेकिन इसके साथ ही हमें असम में चली अलगाववादी मुहिम को भी ध्यान में रखना होगा। इस राज्य में व्यापार पर कब्जा राजस्थान से आये लोगों का रहा है और बिहार,

बंगाल व पंजाब के लोग भी भारी संख्या में यहां विभिन्न काम धन्धों में लगे हुए हैं। अस्सी के दशक में यहां जिस तरह उल्फा जैसे आतंकवादी संगठन ने समानान्तर सरकार कायम करके गैर असमी भाषी लोगों के खिलाफ आतंक मचाया था, वह उस असम गण परिषद की सरकार के लिए ही चुनौती बन गया था जिसने विदेशी नागरिकों के मुद्दे पर आन्दोलन चलाकर सत्ता प्राप्त की थी और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर बनाने का स्व. राजीव गांधी से 1985 में समझौता किया था। यह कार्य असम गण परिषद की प्रफुल्ल चन्द मोहन्ता सरकार दस साल तक सत्ता में रहने के बावजूद नहीं कर पाई और उल्फा जैसा उग्रवादी संगठन कोहराम मचाता रहा, 2001 से 2016 तक इस राज्य में कांग्रेस के श्री तरुण गोगोई की सरकार रही। इसने उल्फा को ठंडा किया मगर इस दौरान विदेशी नागरिकों का मुद्दा सर्वोच्च न्यायालय में झटके खाता रहा और 2014 से इस पर काम शुरू हुआ। इस बीच 2016 में भाजपा की सरकार आ गई और रजिस्टर का काम पूरा हुआ जिसमें चालीस लाख लोगों के नाम नहीं आये। ये लोग कौन हैं इसकी तसदीक अभी होनी है मगर इनका नाम मतदाता सूची से गायब करना आसान काम नहीं होगा क्योंकि मुख्य चुनाव आयुक्त ने साफ कह दिया है कि उनकी सूची रजिस्टर देखकर तय नहीं होती है जाहिर है कि इसमें भाजपा के ही गृमन्त्री श्री राजनाथ सिंह ने जो रुख लिया है वह न्यायपूर्ण है क्योंकि उन्होंने संसद में ही स्पष्ट कर दिया है कि यह अंतिम दस्तावेज नहीं है। जब गृहमन्त्री राजनाथ सिंह संसद में खड़े होकर आश्वासन दे रहे हैं तो पूरे देश को यकीन करना चाहिए और इसे ही भाजपा का मत मानना चाहिए।

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