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यूपी में भाजपा क्यों सिमटी

05:51 AM Jun 21, 2024 IST | Shivam Kumar Jha

2024 के लोकसभा चुनावों में जिस तरह केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के प्रत्याशियों को अपेक्षा के अनुरूप सफलता नहीं मिली है उसे लेकर पार्टी गंभीर चिन्तन व समीक्षा कर रही है उससे यह लगता है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा के खिलाफ आम जनता में रोष था जिसकी वजह से राज्य में पार्टी की सीटें पिछले लोकसभा चुनावों के मुकाबले घट कर लगभग आधी रह गई। 2019 में भाजपा को उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में से 62 सीटें मिली थी जबकि 2024 में यह संख्या घट कर लगभग आधी 33 सीटें की रह गई हैं। भाजपा आलाकमान इसका कारण जानना चाह रहा है। इसके लिए उसने अपनी राज्य शाखा के पदाधिकारियों को चुनाव क्षेत्रवार एक प्रश्न तालिका भेजी है। सवाल यह है कि क्या उत्तर प्रदेश को भाजपा अपना गढ़ मान कर चल रही थी जिसे भेदना विपक्ष के बूते से बाहर था?

उत्तर प्रदेश में 1952 से लेकर 2024 तक भाजपा का ग्राफ ऊपर-नीचे होता रहा है। 1996 से पहले के लोकसभा चुनावों में भाजपा की इस राज्य में सफलता सामान्य रही है । मगर 1989 के चुनावों में बोफोर्स तोप खऱीदी मामले के चुनावी मुद्दा बन जाने पर भाजपा का अयोध्या में श्रीराम मन्दिर निर्माण आन्दोलन एक मुद्दा बन चुका था। इन चुनावों में स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस से बगावत करके पृथक जनता दल पार्टी बना ली थी जिससे इस वर्ष के चुनावों में उसे पूरे उत्तर भारत में अच्छी सीटें मिली थी। जिनके बूते पर केन्द्र में इस पार्टी के नेतृत्व में एेसी संयुक्त मोर्चा सरकार बनी थी जिसे भाजपा और वामपंथी दल दोनों सरकार से बाहर रहते हुए समर्थन कर रहे थे।

श्री राम मन्दिर आन्दोलन के चलते संयुक्त मोर्चा की वी.पी. सिंह सरकार से अपना समर्थन जब मंडल आयोग मुद्दे पर वापस लिया तो सिंह सरकार गिर गई और 1991 में पुनः चुनाव हुए क्योंकि इस बीच छह महीने के लिए जनता दल से ही अलग होकर स्व. चन्द्रशेखर ने कांग्रेस पार्टी के बाहर से समर्थन किये जाने पर अपनी अल्पमत सरकार बनाई। इस सरकार को कांग्रेस के दो सौ के लगभग सदस्यों का बाहर से समर्थन था परन्तु कांग्रेस ने छह महीने बाद ही अपना समर्थन वापस ले लिया जिसकी वजह से चन्द्रशेखर सरकार गिर गई और 1991 के लोकसभा चुनाव सम्पन्न हुए। भाजपा की असली ताकत इन्हीं चुनावों से बढ़नी शुरू हुई और 1996 के चुनावों में इस ताकत ने अपना भरपूर रंग बिखेरा। 1996 में भाजपा को कुल 167 सीटें मिली जिसमें उत्तर प्रदेश का जबर्दस्त हिस्सा था। मगर 1992 में अयोध्या राम जन्म भूमि स्थान पर बनी बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया था जिससे राम मन्दिर आंदोलन औऱ उग्र हो गया औऱ भाजपा की ताकत भी समानान्तर रूप से बढ़ती चली गई जिस पर 2009 के लोकसभा में जाकर अवरोध लगा। मगर 2014 के आते-आते राष्ट्रीय पटल पर जब भाजपा के गुजरात के नेता श्री नरेन्द्र मोदी का उदय हुआ तो उत्तर प्रदेश ने इन चुनावों ने भाजपा की झोली में 72 सीटें डाल दी जिससे नरेन्द्र मोदी प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर बैठ सके।

यदि यह कहा जाये कि 1991 से उत्तर प्रदेश भगवा रंग में रंगना शुरू हो गया तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। मगर 2024 में इस पार्टी की ताकत को गहरा झटका क्यों लगा जबकि राज्य में भी भाजपा की ही सरकार काबिज है। सबसे पहले स्पष्ट होना चाहिए कि उत्तर प्रदेश बुनियादी तौर पर जनसंघ या भाजपा के साथ नहीं रहा हर चुनाव में फौरी मुद्दों के उछलने पर लोगों ने भाजपा के पक्ष या विरोध में वोट दिये। वर्तमान चुनावों में भाजपा की सीटें घटने का मुख्य कारण केवल चुनावी राजनैतिक विमर्श रहा है। दूसरे यह भी सत्य है कि बुनियादी तौर पर इस प्रदेश के लोग साम्प्रदायिक सोच नहीं रखते हैं। 1967 के राज्य विधानसभा चुनावों के साथ जब लोकसभा के चुनाव भी हुए थे तो भाजपा को 425 सीटों के सदन में 99 सीटें मिली थी जो कांग्रेस की सीटों से लगभग आधी से भी कम थीं। उस समय कांग्रेस से विद्रोह करके चौधरी चरण सिंह ने संयुक्त विधायक दल की सरकार बनाई थी। यह सरकार भी कुछ महीने ही चली परन्तु इस दौरान चौधरी साहब ने अपनी अलग पार्टी भारतीय क्रान्ति दल बना ली थी औऱ जब 1969 में राज्य में मध्यावधि चुनाव हुए तो भारतीय क्रान्ति दल कांग्रेस के बाद दूसरे नम्बर की पार्टी बन कर उभरी। जबकि भाजपा की ताकत 47 सीटों की रह गई। भाजपा को अकेले चौधरी साहब ने ही अपनी ग्रामीण राजनीति के जरिये हाशिये पर धकेल दिया। चौधरी साहब ने जात-पात के निरपेक्ष नया ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर आधारित सामाजिक समीकरण बनाया जो उनके जीवन काल तक भलीभांति चलता रहा।

मनमोहन सरकार के कार्यकलापों व कांग्रेस के विभिन्न शक्ति केन्द्रों की मार्फत सरकार चलाने के खिलाफ नरेन्द्र मोदी व उनकी पार्टी ने जो मुहिम छेड़​ी थी और राम मन्दिर निर्माण के पक्ष में जो वातावरण पहले से ही लालकृष्ण अडवानी बना कर गये थे उसने जादू जैसा असर किया था। मगर इन चुनावों में कांग्रेस नेता राहुल गांधी व समाजवादी नेता अखिलेश यादव ने जो राजनैतिक विमर्श भाजपा के एक पूंजीपतियों की समर्थक पार्टी होने का छोड़ा उसने जमीन पर असर किया मगर सबसे ज्यादा असर युवा वर्ग पर ही पड़ा जो बेरोजगारी से तंग था। अतः उस पर मन्दिर निर्माण हो जाने का असर भी नहीं पड़ा ।

उत्तर प्रदेश में भाजपा के सिकुड़ जाने का मूल कारण यही है। अग्निवीर योजना के साथ पूरे देश में रोजगार ठेके पर दिये जाने के खिलाफ लोगों का समर्थन राहुल- अखिलेश को मिला और धार्मिक पहचान के निरपेक्ष लोगों ने अपनी बुनियादी आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर वोट दिया। यही वह विमर्श जिसे भाजपा पकड़ नहीं पाई इन मुद्दों से जनता का ध्यान हटाने में मग्न रही। मगर मध्य प्रदेश या ओडिशा में एेसा नहीं हुआ। मन्दिर पूरा हो जाने से उसका विमर्श एक सीमा तक ही चल सकता था अतः लोगों ने रोजी-रोटी व के विमर्श और बढ़ती आर्थिक असमानता के मुद्दों पर ही ध्यान दिया। हार या कम सीटें आने का असली कारण यही है।

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