भाजपा क्यों फहराना चाहती है तमिलनाडु में भगवा !
तमिलनाडु में बीजेपी की राजनीतिक चुनौती: क्या होगा अगला कदम?
यह बात तो जगजाहिर है कि दक्षिण में भाजपा अब तक अपनी पैठ उस प्रकार की नहीं बना पाई है जैसा कि उसकी इच्छा है और लंबे समय से वहां अपना वर्चस्व बनाने की कोशिश में है, चाहे वह केरल हो, कर्नाटक हो, आंध्र प्रदेश या तमिलनाडु हो। वैसे पूर्ण भारत में तो मुगलों के समय अकबर और औरंगजेब के बाद कुछ हद तक कांग्रेस ने उस समय राज किया था जब कांग्रेस की 400 से उपर सीटें आई थीं। तमिलनाडु में भारतीय जनता पार्टी केवल अपना चुनावी भविष्य नहीं तलाश रही है, बल्कि अपने राजनीतिक सिद्धांत को गंभीर चुनौती दे रहे कुछ नेताओं और दलों को वैचारिक धरातल पर शिकस्त देने का रास्ता भी खोज रही है। मगर इस बात की प्रशंसा करनी होगी कि दक्षिण के चार में से तीन में बीजेपी अपना प्रभाव और प्रभुत्व दिखा चुकी है। कर्नाटक में कई बार बीजेपी सत्ता का स्वाद चख चुकी है, आंध्र प्रदेश में इस समय सत्ता की भागीदार है, तेलंगाना में भी बीजेपी मजबूत पकड़ बना चुकी है, केवल तमिलनाडु ही है जहां बीजेपी कई दशकों से उपस्थिति दर्ज कराने के बावजूद हुंकार नहीं भर पा रही है।
बीजेपी के लिए यह चिंता के साथ चिंतन का भी विषय रहा है और इसी प्रक्रिया का एक हिस्सा एआईडीएमके और बीजेपी के ताजा गठबंधन की घोषणा भी है। इस गठबंधन को सहज बनाने और पार्टी के अनुरूप इसका स्वरूप देने का श्रेय गृहमंत्री अमित शाह को जाता है, क्योंकि इस बार यह काम उतना आसान नहीं था। एआईडीएमके और भाजपा के बीच गठबंधन नया नहीं है। 1998 में ही बीजेपी ने इस पार्टी के साथ गठबंधन की नींव डाल दी थी। 1998 की अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनाने और फिर 13 महीने बाद उसे गिराने का श्रेय एआईडीएमके को जाता है। जे. जयललिता का जब तक जीवनकाल रहा तब तक भाजपा नेतृत्व के साथ एआईडीएमके का नजदीकी संबंध बना रहा। जब 1999 में जयललिता ने कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लिया तो करुणानिधि ने डीएमके को बीजेपी के साथ जोड़ लिया और 2004 तक सत्ता का सुख लेते रहे। 2004 के आम चुनाव में फिर से एआईडीएमके बीजेपी के साथ आई तो लेकिन तमिलनाडु में लोकसभा की सीटें नहीं जीत सकी।
2009 में एआईडीएमके ने बीजेपी के साथ कोई समझौता नहीं किया लेकिन 2014 में फिर से एआईडीएमके और बीजेपी का गठबंधन हुआ जो 2019 के लोकसभा और 2021 के विधानसभा चुनाव तक जारी रहा लेकिन इन दोनों चुनावों में इस गठबंधन को कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली। फिर वही हुआ जो हार के बाद गठबंधन में होता है। शाह की रणनीति सही दिशा में काम कर रही है। इधर अगले साल इसी अप्रैल में तमिलनाडु विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। डीएमके दुबारा सत्ता में आने के लिए जो नुस्खा तैयार कर रही है उसमें तमिल प्राइड और भाषा विवाद का घोल मिलाया जा रहा है। स्टालिन और उनका पूरा परिवार इस समय घोर भ्रष्टाचार और गैर कानूनी कामों में लिप्त है लेकिन एजेंडा, हिंदी विरोध, दक्षिण के साथ केन्द्र का कथित सौतेला व्यवहार और मनमाने परिसीमन बनाए जा रहे हैं।
सामान्य शिष्टाचार है कि राज्य में प्रधानमंत्री के दौरे के समय मुख्यमंत्री आगवानी करते हैं लेकिन हाल ही में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तमिलनाडु के दौरे पर गए थे तो जानबूझ कर मुख्यमंत्री स्टालिन गायब हो गए। जाहिर है कि डीएमके बीजेपी विरोध के बजाय केंद्र से टकराव की राजनीति को आगे रख कर चुनाव लड़ना चाहती है। बीजेपी के लिए यह दोहरी चुनौती है। केंद्र में भी एनडीए सरकार का प्रभुत्व, तमिलनाडु में भी कायम रखना प्रशासनिक रूप से जरूरी है तो तमिल आवाम को राष्ट्रीय मुद्दों के साथ जोड़े रखना भी राष्ट्रीय एकता एवं समृद्धि के लिए आवश्यक है। सामरिक रूप से तमिलनाडु एक संवेदनशील राज्य है, श्रीलंका के साथ उसका सीधा जुड़ाव है। चीन श्रीलंका में लगातार अपनी पैठ बढ़ा रहा है, ऐसे में तमिलनाडु में केंद्र की आंख बंद कर खिलाफत करने वाली पार्टी का सत्तासीन रहना देश हित के लिए गंभीर सवाल पैदा करता है।
बीजेपी तमिलनाडु में होने वाले हर लोकसभा या विधानसभा चुनाव में हिस्सा लेती रही है लेकिन बड़ी सफलता अभी तक नहीं मिली है। 2014 में कन्याकुमारी से पोन राधाकृष्णन ने लोकसभा का चुनाव जीता था लेकिन उसके बाद हुए 2019 और 2024 के लोकसभा चुनाव बीजेपी के लिए तमिलनाडु से कोई खुशी नहीं मिली। हालांकि पार्टी, राज्य में 11 प्रतिशत वोट शेयर हासिल करने में सफल रही है लेकिन यह कामयाबी किसी विरोधी पार्टी को चुनाव में नाकामयाब करने के लिए काफी नहीं है। दूसरी तरफ 2023 में बीजेपी को छोड़ने की ठसक घोषणा के बाद एआईडीएमके भी मन मसोस रही थी। बहुत कोशिश के बाद भी उसे 21 प्रतिशत ही वोट मिले। एआईडीएमके नेतृत्व को भी मालूम है कि अगले चुनाव में 40 प्रतिशत से अधिक वोट प्राप्त करने हैं तो 11 प्रतिशत वोट शेयर वाले बीजेपी को ठुकराने का विकल्प अब उनके पास नहीं है। बीजेपी अब उनकी सबसे बड़ी जरूरत बन गई है।
जैसा कि स्पष्ट है कि बीजेपी के लिए तमिलनाडु केवल राजनीतिक संघर्ष का मैदान नहीं है, वैचारिक लड़ाई भी लड़ी जानी है। स्टालिन सरकार द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति को विवादित करने और त्रिभाषा सिद्धांत को हिंदी थोपने की कोशिश के रूप में प्रचारित करने से केंद्र आहत है, स्वयं प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह कई बार स्पष्टीकरण दे चुके हैं कि सभी भारतीय भाषाओं को बराबर सम्मन देना उनकी सोच और बीजेपी के सिद्धांत में शामिल है। तमिल भाषा में तकनीकी पढ़ाई की सुविधा भी उनकी इसी सोच का हिस्सा है। जाहिर है भाजपा पूरे तमिलनाडु को यह बताना चाहती है कि उनका राज्य और वे उनके दिल के कितने करीब हैं। यह काम अकेले बीजेपी करेगी तो शायद सभी कोनों तक नहीं पहुंच पाएगी। एआईडीएमके के साथ यह काम आसान हो जाएगा।
कुछ लोग कहते हैं कि बीजेपी के लिए तमिलनाडु इसलिए मुश्किल है कि यहां हिंदुत्व के नाम पर वोट नहीं मिलता। यानी तमिलनाडु एक मोस्ट सेकुलर स्टेट है लेकिन यही लोग इस बात का जवाब नहीं देते कि तमिलनाडु में मुस्लिम लीग की राजनीति कैसे चल रही है। तमिलनाडु में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग 1948 से राजनीति कर रही है। लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा, सभी में उनके सदस्य हैं और रहे हैं। युवा से लेकर किसानों तक में उनका संगठन है। इस समय डीएमके के साथ सरकार में भी हैं और जमकर मुस्लिम परास्त राजनीति भी कर रहे हैं। अमित शाह जमीनी हकीकत से हमेशा वाकिफ रहते हैं। उनके पास तमिलनाडु को लेकर साफ तस्वीरें हैं। वह एआईडीएमके के साथ अभी से कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बना कर चलना चाहते हैं लेकिन उन्हें अपना लक्ष्य पता है। डीएमके का अहंकार ही उनका मुख्य हथियार होगा। सत्ता परिवर्तन जनता के लिए यदि जरूरी है तो उसे हासिल करने का तरीका भला अमित शाह से ज्यादा कौन जानता होगा।