For the best experience, open
https://m.punjabkesari.com
on your mobile browser.
Advertisement

भारत धर्मनिरपेक्ष व समाजवादी क्यों है ?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि संविधान की मूल प्रस्तावना में 1976 में इमरजेंसी के दौरान जोड़े गये दो शब्दों समाजवाद व धर्मनिरपेक्ष को नहीं हटाया जा सकता क्योंकि ये संविधान के बुनियादी ढांचे का अटूट अंग हैं…

10:12 AM Nov 29, 2024 IST | Rakesh Kapoor

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि संविधान की मूल प्रस्तावना में 1976 में इमरजेंसी के दौरान जोड़े गये दो शब्दों समाजवाद व धर्मनिरपेक्ष को नहीं हटाया जा सकता क्योंकि ये संविधान के बुनियादी ढांचे का अटूट अंग हैं…

भारत धर्मनिरपेक्ष व समाजवादी क्यों है

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि संविधान की मूल प्रस्तावना में 1976 में इमरजेंसी के दौरान जोड़े गये दो शब्दों समाजवाद व धर्मनिरपेक्ष को नहीं हटाया जा सकता क्योंकि ये संविधान के बुनियादी ढांचे का अटूट अंग हैं। इससे स्पष्ट हो जाना चाहिए कि हमारे संविधान निर्माताओं के सामने लक्ष्य बहुत स्पष्ट था कि स्वतन्त्र भारत एक एेसा राज्य होगा जिसमें सत्ता का कोई धर्म नहीं होगा और प्रत्येक नागरिक को बराबरी का अधिकार होगा।

समाजवाद का अर्थ इतना ही है कि राज्य प्रत्येक व्यक्ति को एक समान अधिकार इस प्रकार दे कि सम्पत्ति का संचय केवल कुछ लोगों तक सीमित न रहे और राष्ट्रीय आय व सम्पत्ति में प्रत्येक नागरिक की एक समान भागीदारी तय हो सके। इसीलिए संविधान की उद्देशियका में समता व बन्धुत्व शब्द रखे गये और प्रत्येक को एक समान दृष्टि से न्याय उपलब्ध कराने की बात कही गई। समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्द स्व. इन्दिरा गांधी ने 1976 में संविधान में 42वां संशोधन करके जोड़े। इस संशोधन की मार्फत केवल ये दो शब्द ही नहीं जोड़े गये बल्कि इनके अलावा लगभग 8 और प्रमुख उपबन्ध लिखे गये। इनमें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण नागरिकों के मूल कर्त्तव्य (फंडामेंटल ड्यूटीज) थीं, जिनका पालन करने के लिए मौजूदा सरकार के प्रतिनि​िध अक्सर जोर देते रहते हैं।

संविधान निर्माता केवल नागरिकों के मूल अधिकारों के बारे में ही लिख कर गये थे मगर इमरजेंसी में कर्त्तव्यों को भी संविधान की मूल भवना का हिस्सा बनाया गया। इसके अलावा पर्यावरण संरक्षण, समान न्याय व प्रत्येक गरीब नागरिक को मुफ्त कानूनी सलाह देना, मजदूरों की प्रबन्धन में हिस्सेदारी और भारत की अखंडता को भी संविधान का हिस्सा बनाया गया। इनमें सर्वाधिक महत्व मूल कर्त्तव्यों को तो दिया ही गया मगर गरीब नागरिकों के लिए राज्य की मदद पर भी बल दिया गया। इमरजेंसी हटने के बाद जब विपक्षी दलों की खिचड़ी जनता पार्टी की सरकार आयी तो संविधान में 43वां व 44वां संशोधन किया गया मगर 42वें संशोधन के इस हिस्से को हटाना गैर कांग्रेसी पार्टियों ने भी जरूरी नहीं समझा। संविधान विशेषज्ञ फैजान मुस्तफा के अनुसार यदि जनता पार्टी की सरकार एेसा चाहती तो कर सकती थी मगर उसने 42वें संशोधन को संपूर्णता में निरस्त नहीं किया।

अब सवाल यह उठता है कि इन्दिरा गांधी ने एेसा क्यों किया? और कुछ पार्टियां केवल इस 42वें संशोधन के एक अंश समाजवाद व धर्मनिरपेक्ष शब्दों पर ही आपत्ति क्यों करती हैं? इसके लिए यह समझना जरूरी है कि विरोध करने वाली पार्टियों की निगाह में समाजवाद का अर्थ कहीं न कहीं न साम्यवाद के निकट जाकर पड़ता है। जबकि स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान ही यह स्पष्ट हो गया था कि आजादी की लड़ाई लड़ने वाली कांग्रेस पार्टी स्वतन्त्र भारत में गांधी के सिद्धान्तों का समाजवाद लागू करेगी। कांग्रेस के तीस के दशक के शुरू के लखनऊ अधिवेशन में ही पं. जवाहर लाल नेहरू ने स्पष्ट कर दिया था कि उनकी पार्टी देश से जमींदारी प्रथा समाप्त करेगी और किसानों को जमीन पर उनका वाजिब हक दिलायेगी। इससे जिन्ना की मुस्लिम लीग के कान खड़े हो गये थे क्योंकि लीग के उस समय तक सदस्य केवल बड़े-बड़े मुस्लिम जमींदार और धन्ना सेठ ही थे। इसकी सदस्य संख्या भी दो हजार के लगभग थी और जो सदस्य थे वे समय पर चन्दा तक भी जमा नहीं कराते थे।

1936 में जब कांग्रेस की प्रान्तीय एसेम्बलियों के पहले चुनावों के बाद कई राज्यों में सरकार बनी तो उन्होंने जमींदारी उन्मूलन को लागू भी कर दिया। केवल मुस्लिम लीग ही इससे घबराई हो एेसा नहीं बल्कि अंग्रेज सरकार भी सावधान हो गई थी और सोचने लगी थी कि आजाद होने पर भारत सोवियत संघ के खेमे की तरफ मुड़ सकता है। एेसा पाकिस्तान मूल के स्वीडिश राजनीतिक विज्ञानी डा. इश्तियाक अहमद ने अपनी पुस्तक ‘जिन्ना उनकी राजनीतिक सफलताएं व विफलताएं व बंटवारे में उनकी भूमिका’ में सविस्तार तथ्यों व सबूतों के साथ लिखा है। अतः यह साफ हो जाना चाहिए कि स्वतन्त्र भारत में समाजवाद इसका लक्ष्य होना तय था। इसके साथ ही धर्मनिरपेक्षता के बारे में भी हमें किसी भ्रम में रहने की जरूरत नहीं है। इसके तार भारत की पांच हजार साल पुरानी संस्कृति से जाकर जुड़ते हैं।

ईसा से तीन हजार साल पहले तक धर्म जीवन का आवश्यक अंग नहीं था मगर जैसे-जैसे आर्थिक विकास होता गया और सम्पत्ति का मालिक बनने का विचार बढ़ता गया वैसे-वैसे ही कबीलों में रहने वाले लोग अपना-अपना धर्म विकसित करते गये और देवी-देवताओं की संख्या में वृद्धि भी उसी के अनुरूप होती चली गई। प्रथम सूर्य उपासना से लेकर अन्य प्राकृतिक शक्तियों की उपासना की पद्धति विकसित होती चली गई औऱ कर्मकांड की स्थापना वैदिक काल में हुई। इसके बाद जैन व बौद्ध धर्मों ने पुनः प्रकृति की सत्ता को एकल स्वरूप में स्वीकार किया और इसी दौर में किसी धारा से यह वचन फूटा होगा कि ‘धारयति सः धर्मः’ अर्थात जो धारण करने योग्य है वही धर्म है। इसमें पूजा पद्धति का उल्लेख कहीं नहीं है।

हिन्दू संस्कृति जिसे हम मान रहे हैं वह मनुस्मृति से प्रस्फुलित होती है जिसमें चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की व्यवस्था है। इन चारो वर्णों के लोगों में कार्य का विभाजन केवल सम्पत्ति के संचय की व्यवस्था को ही दर्शाता है। इतिहास का एेसा विश्लेषण भारत के विद्वजनों द्वारा ही किया गया है। इसलिए संस्कृति और धर्म को हम जब अपने-अपने चश्मे से देखते हैं तो विकार उत्पन्न हो जाता है। ईसा सदी शुरू होते अगर हम सम्राट कनिष्क के शासन को देखें तो उसमें बौद्ध धर्म का अनुयायी होने के बावजूद मूर्ति पूजा को बल मिला और इस धर्म में महायान का प्रारम्भ हुआ जिसमें बौद्ध साहित्य पाली भाषा के साथ संस्कृत में भी लिखने की अनुमति दी गई। वरना इससे पहले सम्राट चन्द्रगुप्त जहां जैन धर्म के अनुयायी थे वहीं उनके पौत्र सम्राट अशोक बौद्ध धर्म को मानते थे।

अतः जिसे हम आज हिन्दू संस्कृति मानते हैं वह बहुआयामी थी और इसीलिए हम भारतीय शुरू से ही धर्मनिरपेक्षता को मानने वाले थे। बात 2000 के आसपास की है जब केन्द्र में भाजपा नीत वाजपेयी सरकार थी। इस सरकार के संसदीय कार्यमन्त्री स्व. प्रमोद महाजन थे। वह एक दिन लोकसभा में भारतीय संविधान की मूल हस्तलिखित कापी की फोटो कापियां लेकर आये। इस मूल कापी में भगवान राम के लंका विजय के बाद अयोध्या वापस लौटने के चित्र के साथ बादशाह अकबर व टीपू सुल्तान तक के चित्र अंकित हैं।

स्व. महाजन का तर्क था कि जब संविधान की मूल प्रति में ही भगवान राम मौजूद हैं तो संविधान की मूल प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्ष शब्द को हटा दिया जाना चाहिए और समाजवाद को तो पूरी तरह ही हटा दिया जाना चाहिए क्योंकि भारत अब बाजार मूलक अर्थव्यवस्था अर्थात पूंजीवाद की नीतियों पर चल रहा है। उनके इस तर्क का बहुत विरोध हुआ और कहा गया कि संविधान की मूल प्रति को सुन्दर बनाने के लिए नन्द लाल बोस जैसे चित्रकार की सेवाएं ली गई थीं। इसका उद्देश्य धार्मिक नहीं बल्कि राष्ट्रीय था।

सबसे ज्यादा विरोध उस समय सदन में कांग्रेस पार्टी के उप नेता श्री प्रियरंजन दास मुंशी ने किया था। बाद में श्री दासमुंशी ने मुझे अपने संसद स्थित कार्यालय में बुलाया और कहा कि जो लोग आज एेसी बातें कर रहे हैं शायद वे जानते नहीं कि आर्थिक उदारीकरण की नीतियां कांग्रेस के शासन में ही इसलिए लागू की गई थीं जिससे उस समय भारत की अर्थव्यवस्था पटरी पर आ सके। भारत नेहरूकाल से ही मिश्रित अर्थव्यवस्था पर चल रहा है अब जरा पूंजी मूलक की तरफ झुकाव हो गया है। मगर उद्देश्य गरीबों को सम्पन्न बनाने का ही है और भारत की मिली-जुली गंगा-जमुनी तहजीब को बरकरार रखने का ही। इसीलिए संविधान की मूल कृति में रामायण के राम भी हैं और अकबर भी। जब मैंने श्री प्रमोद महाजन की प्रतिक्रिया ली तो वह अपने विश्वास पर दृढ़ थे उन्होंने कहा कि राम की विजय यात्रा का सन्देश समझिये।

Advertisement
Advertisement
Author Image

Rakesh Kapoor

View all posts

Advertisement
×