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देव भूमि से ‘रुद्र’ क्यों नाराज

04:30 AM Aug 07, 2025 IST | Aditya Chopra
पंजाब केसरी के डायरेक्टर आदित्य नारायण चोपड़ा

शिव यानि कल्याण, शिव यानि संहार, सृष्टि के कल्याण का दायित्व शिव का है और संहार भी शिव के हाथों में है। यह तो मनुष्य के विवेक पर निर्भर करता है कि वह प्राकृति और जीवन में संतुलन बनाए रखे लेकिन दुर्भाग्य से उसने शिव को तीसरा नेत्र खोलने पर विवश कर दिया है। प्राकृतिक आपदाएं शाश्वत सत्य हैं। इंसानी सभ्यता की शुरूआत के साथ ही इनका भी इतिहास रहा है। यह तब भी कहर ढाती थी और आज भी कहर बरपा रही है। फर्क सिर्फ इतना है कि पहले इसके प्रकोप का शिकार जल्दी-जल्दी नहीं होना पड़ता था। उनमें एक लंबा अंतराल होता था। अब आए दिन प्राकृतिक आपदाओं की विभिषिका का इंसान को सामना करना पड़ता है। उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में धराली गांव में बादल फटने से हुई भारी तबाही इसी की एक बानगी है। पलभर में ही खीर गंगा नदी में आए सैलाब से गांव, मकान, होटल सब कुछ जमींदोज हो गया। कितनों की मौत हुई और कितने ही लापता हुए अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। सब कुछ मलबे में दबा हुआ है। पहाड़ी राज्य ​हिमाचल प्रदेश में भी आपदाओं के चलते स्थिति बहुत खराब है। कुदरत के कहर ने आपदा से निपटने की राज्य की तैयारियों पर बड़े सवाल खड़े कर दिए हैं। सटीक पूर्वानुमान और आपदा के दौरान त्वरित संचार ही जीवन बचाता है लेकिन सड़कों के जगह-जगह से टूट जाने के कारण एनडीआरएफ, एसडीआरएफ और पुलिस प्रशासन को भी बचाव टीमें पहुंचाने के लिए कड़ी मशक्कत का सामना करना पड़ा है। ऊपर से बारिश ने भी कहर मचाया हुआ है। उत्तराखंड में 2013 की केदारनाथ त्रासदी, 2021 की चमोली हिमस्खलन त्रासदी और 2023 के जोशीमठ जैसी घटनाएं बार-बार हमें चेतावनी देती रहीं कि कुछ कीजिए। परिस्थितिकी संतुलन गंभीर रूप से बाधित हो चुका है लेकिन न सरकारों ने और न ही मनुष्य ने इस ओर ध्यान दिया। उत्तराखंड प्राकृतिक आपदाओं के लिए पहले से ही संवेदनशील है। इसकी कई वजह हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि उत्तरकाशी में आई आपदा का पैटर्न केदारनाथ में आई जलप्रलय की तरह ही था। दोनों घटनाओं की वजह भूमध्य सागर में उठने वाले पश्चिमी विक्षोभ का हिमालय से टकराना रहा है जिससे बादल फटने की घटना ने विकराल रूप धारण कर लिया। इन परिस्थितियों के लिए कुछ तो दैवीय आपदा जिम्मेदार है और कुछ आपदाओं से होने वाले नुक्सान के पीछे बहुत कुछ जीवन जीने की बदलती शैली, विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधंुध दोहन, अवैध खनन, बहुमंजिली इमारतों के विस्तार जैसे कारण भी जिम्मेदार हैं। अगर देखें तो मानव की सुख-सुविधाओं के लिए पहाड़ को छलनी करने का परिणाम है कि पूर्व में यदा-कदा होने वाली आपदाएं अब आए दिन घट रही हैं। प्रत्येक वर्षा ऋतु में पहाड़ क्षेत्र में जाने का भय बना रहता है। जहां-तहां प्रकृति का तांडव दिख रहा है। आंकड़े बताते हैं कि राज्य में पिछले सौ साल में पचास से ज्यादा विनाशकारी भूस्खलन आए हैं।
प्राकृतिक आपदा कहर तो बरपाती है, साथ ही उस क्षेत्र का विकास भी अवरुद्ध हो जाता है। भूस्खलन, बाढ़ आदि के कारण कई तरह की रुकावटें आती हैं जिससे उस क्षेत्र के पूरे जन-जीवन पर प्रभाव पड़ता है। ऐसे में निर्माण कार्यों पर बहुत ध्यान दिए जाने की जरूरत है। खनन, नदी, घाटियों के कुछ किनारे कुछ निश्चित सीमा तक निर्माण कार्य रोकने, वनीकरण को बढ़ावा देने, कृषि की समुचित प्रणाली, वनस्पतियों की सुरक्षा, बड़ी विकास परियोजना की समीक्षा पर काफी गंभीरता बरती जानी जरूरी है। समय-समय पर आ रही दैवीय आपदाओं के कहर और विकास के नाम पर अति दोहन के बावजूद राज्य का सरकारी तंत्र आपदा प्रबंधन को संवेदनशील होने की आवश्यकता है। नदियों ने अपना रुख बदला तो लोगों ने मकान बना लिए। पहाड़ खोद-खोद कर होटल और होम स्टे बना दिए। पहाड़ों से आने वाला पानी कब अपना रास्ता बदल ले कुछ कहा नहीं जा सकता। चार धाम यात्रा मार्ग पर व्यापक निर्णायक गतिविधियों के चलते आैर हाईडल परियोजनाओं के चलते भी पहाड़ खोखले हुए। धराली आपदा भी इसलिए हुई क्योंकि खीर गंगा में आई बाढ़ ने अपना पुराना रास्ता खोज लिया। हर आपदा के बाद अक्सर लोग कहने लगते हैं कि रुद्र देवभूमि उत्तराखंड से नाराज हैं। या भागीरथी नदी अपना रौद्र रूप दिखा रही है लेकिन यह कोई सोच नहीं रहा कि ऐसा क्यों हो रहा है। महानगरों के एयर कंडीशन कमरों में बैठकर पहाड़ों में सड़कों और बांधों के निर्माण की योजनाएं बनाते समय यह कोई नहीं सोचता कि पहाड़ के विनाश का खाका खींच रहे हैं। प्राकृतिक आपदा के वीडियो देखकर मनुष्य को अपने अस्तित्व का अहसास हो गया होगा। दैवीय आपदाओं को बेशक रोका नहीं जा सकता लेकिन स्थितियों पर नियंत्रण किया जा सकता है। यद्यपि मुख्यमंत्री पुष्कर धामी से लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक राहत कार्यों पर खुद नजर रख रहे हैं। प्रशासन हर संभव कदम उठा रहा है। देशवासी भी व्यथित हैं। उत्तराखंड की मदद करने के लिए देशवासी भी तैयार हैं लेकिन मनुष्य को भी प्राकृति से बहुत ज्यादा छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए।
प्रकृति अपने आप में एक विज्ञान है। यह विशिष्ट रूप से खुद को सुव्यवस्थित और सुसंगठित रखती है। इसके सभी अवयव एक निश्चित अनुपात में रहते हैं। हाल में हम सब ने लोभ के चलते प्रकृति में विकार पैदा कर दिया। इसके सभी अंगों के बीच तारतम्यता और संतुलन को गड़बड़ा दिया है। साल दर साल हम प्रकृति का विनाश करते आ रहे हैं। नदी के किनारे निर्माण कराकर उसके स्वच्छंद फैलाव को सिकोड़ दिया। वनों को उजाड़ दिया। आबोहवा को बिगाड़ दिया। ऐसा करते हुए हम यह भूल जाते हैं कि प्रकृति की सत्ता सबसे ताकतवर है। उसकी लाठी में बहुत जान है। इसके प्यार की लाठी सहारा बन जाती है और क्रोध की लाठी जान ले लेती है। लिहाजा प्रकृति के नैसर्गिक रूप पुनर्धारण के रास्ते में जो कोई भी आता है, बह जाता है, भस्म हो जाता है और उड़ जाता है।

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