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गोहाना की जलेबी पर विवाद क्यों?

03:03 AM Oct 05, 2024 IST | Shera Rajput

बेशक भारत का लोकतन्त्र शोर- शराबे का लोकतन्त्र है मगर इसका मतलब यह भी नहीं है कि तथ्यहीन व तत्व विहीन मुद्दों को चुनावी विमर्श में खड़ा करने का प्रयास किया जाये। इसकी वजह यह है कि भारत की 90 प्रतिशत जनसंख्या से अधिक लोग राजनीति में जमीनी मुद्दों की परख करना बखूबी जानते हैं। चुनाव प्रचार के अन्तिम चरण में सोनीपत के निकट के कस्बे में यहां की प्रसिद्ध जलेबी को लेकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जो तजवीज पेश की उसे लेकर ही उनके विरोधी पक्ष के लोग तूफान खड़ा करने लगे हैं। यह सच है कि कभी-कभी भारत के चुनावों में इस तरह के मुद्दे तैर जाते हैं औऱ चुनावों को प्रभावित भी कर देते हैं। मगर राहुल गांधी ने केवल यही कहा था कि गोहाना की जलेबी अगर इस कस्बे की पहचान है तो इसके उत्पादन को बढ़ाया जाना चाहिए जिससे जलेबी बनाने की बड़ी फैक्टरीनुमा उत्पादन इकाई खुल सके और स्थानीय लोगों को रोजगार मिल सके। इसमें किसी को क्या एेतराज हो सकता है। खाने-पीने की चीजों की फैक्टरियां भी होती हैं।
मैं जिला बिजनौर के छोटे से कस्बे नजीबाबाद का रहना वाला हूं। मेरा बचपन और किशोर अवस्था इसी कस्बे में बीते। शहर के चौक बाजार में एक प्रसिद्ध कृष्णा हलवाई की दुकान हुआ करती थी। इस दुकान की मिठाई पूरे जिले में अव्वल मानी जाती थी। वैसे तो कृष्णा हलवाई की दुकान की सारी मिठाइयां ही लजीज समझी जाती थीं, मगर इसकी बनाई हुई सोहन पापड़ी की ख्याति दूर-दूर तक के शहरों में थी। इसकी बनाई सोहन पापड़ी धीरे-धीरे पूरे उत्तर प्रदेश में जानी जाने लगी। बेसन से बनने वाली सोहन पापड़ी इतनी नफासत भरी होती थी कि वह मुंह में रखते ही घुल जाया करती थी। इस दुकान के कारीगर बेजोड़ समझे जाते थे।
इन्हीं कारीगरों में एक कारीगर इन्दर ने दुकान की नौकरी छोड़ कर अपनी पृथक एक छोटी सी दुकान केवल सोहन पापड़ी की ही खोली। उसकी सोहन पापड़ी भी खूब बिकने लगी। उसकी देखा-देखी कुछ औऱ लोगों ने भी यह धंधा शुरू कर दिया। मगर इस बीच कृष्णा हलवाई की दुकान थोड़ी हल्की पड़ती गई और एक समय एेसा भी आया कि कृष्णा हलवाई की अगली पीढि़यां दुकान पर बैठने लगी। बाद में हालत यह हो गई कि तीसरी पीढ़ी के पुत्र अशोक ने दुकान को नामचारे के लिए ही चलाया। अशोक कुमार की मृत्यु के बाद अब यह दुकान पूरी तरह से बन्द हो चुकी है।
दूसरी तरफ सोहन पापड़ी के कारोबार में अन्य लोग घुस गये। थोड़ी पूंजी लगा कर ही सोहन पापड़ी का व्यापार करने वाले लोग अब नजीबाबाद के करीब के कस्बे सहारनपुर समेत अन्य कई गांवों में फैले हुए हैं। इन लोगों की उत्पादन इकाइयों को यहां के लोग ‘सोहन पापड़ी की फैक्टरी’ कहते हैं। नजीबाबाद से इन्हीं फैक्टरियों में बनने वाली सोहन पापड़ी अब प्रदेश के लगभग हर राज्य में नजीबाबाद की सौगात के रूप में जानी जाती है। इस कारोबार में कार्यरत लोगों की संख्या भी अच्छी-खासी मानी जाती है। भारत की यह विशेषता है कि इसके हर शहर में कुछ न कुछ एेसा खाद्य पदार्थ जरूर बनता है जिसकी शोहरत दूर-दूर तक फैली हुई होती है।
उदाहरण के तौर पर हम आगरा को ही लें। आगरा में पेठे का कारोबार बहुत जोर- शोर से होता है। इस शहर के इस उत्पाद को बनाने के लिए आगरा व उसके आस-पास के इलाकों में पेठा तैयार करने की इकाइयां लगी हुई हैं। पेठे के बड़े उत्पादकों को यहां भी पेठे की फैक्टरी के मालिक नाम से जाना जाता है। असल में जब किसी भी उत्पाद का उत्पादन बड़ी मिकदार में होता है तो स्थानीय जनता उसे फैक्टरी के रूप में ही पहचानती है। याद कीजिये भारत के बंटवारे से पहले पंजाब के स्यालकोट शहर की पहचान क्रिकेट का बल्ला बनाने वाले शहर के रूप में होती थी। इस शहर में खेल का सामान उत्पादित करने वाली सैकड़ों फैक्टरियां थी।
अतः बहुत स्पष्ट है कि जिस किसी भी उत्पाद का उत्पादन थोक में होने लगता है तो भारत के लोग उसके उत्पादन स्थल को फैक्टरी ही कहने लगते हैं। इसी प्रकार पंजाब के जालंधर शहर के बूंदी के लड्डू बहुत प्रसिद्ध हैं। इनका उत्पादन लवली ब्रांड के साथ होता है। अब इस दुकान के लड्डू व कलाकन्द विदेशों तक में जाते हैं। पंजाब के लोग भी लड्डू उत्पादन केन्द्रों को लड्डू की फैक्टरी ही कहते हैं। इसी प्रकार लखनऊ से पहले संढीला कस्बा आता है। यहां के काशीफल के लड्डू भी दूर-दूर तक प्रसिद्ध हुआ करते थे। इन्हें संढीला के लड्डू ही बोला जाता है और इनके उत्पाद स्थलों को लोग फैक्टरियां ही बोल देते हैं। इसी प्रकार मेरठ शहर में देशी घी की रेवडि़यां या गजक बनाने की सैकड़ों फैक्टरियां हैं।
मध्य प्रदेश के विभिन्न बड़े- बड़े नगरों में ‘रतलामी सेव’ बनाने की फैक्टरियां हैं। बेशक इन्हें हलवाई और कारीगर ही बनाते हैं मगर एेसी इकाइयों में सैकड़ों अन्य लोग भी काम करते हैं। अगर हम गौर से देखें तो पंजाब सरकार का एक उपक्रम वर्का भी खाद्य सामग्री का उत्पादन करता है। यह डिब्बा बन्द सरसों का साग तक बनाता है। यह सारा काम फैक्टरियों में ही होता है।
अब यदि गोहाना की जलेबी का उत्पादन थोक में किसी बड़ी फैक्टरी में होता है तो उसमें किसी को क्यों गुरेज होना चाहिए। नहीं भूला जाना चाहिए कि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार हर जिले के एक उत्पाद को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाने के प्रयासों में जुटी हुई है। अगर आप कभी सड़क मार्ग से दिल्ली से हरिद्वार या देहरादून गये हैं तो मार्ग में एक छोटा सा कस्बा ‘पुरकाजी’ पड़ता है। एक जमाने में इस कस्बे की गुप्ता जी की चाट बहुत प्रसिद्ध थी। हर यात्री इस दुकान की चाट खाने से खुद को रोक नहीं पाता था। अब पुरकाजी में दर्जनभर चाट की दुकानें खुल चुकी हैं और सभी अपने को असली गुप्ता जी चाट वाले का वंशज बताते हैं।
भारत जितनी विविधताओं से भरा देश है उसकी कल्पना महानगरों में पले-बढे़ लोग नहीं कर सकते। यह एेसा देश है जहां पेड़े भी फैक्टरी में बनते हैं। मथुरा वृन्दावन में पेड़े बनाने के थोक केन्द्रों को पेड़े बनाने वाली फैक्टरी ही कहा जाता है। वैसे भी जब सरकार ‘वोकल फार लोकल’ का उद्घोष करते हैं तो जलेबी की फैक्टरी होने पर किसी को एेतराज क्यों हो सकता है। फिर चाहे व बनारसी साड़ी का मामला हो या यहां कि दूध, जलेबी, कचौरी या रबड़ी का। स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए हमें खाद्य पदार्थ की फैक्टरी की जरूरत है। हल्दीराम की मिठाई व नमकीन भी विदेशों में निर्यात होती है और अमेरिका तक में जाती है। एेसे और भी बहुत से उदाहरण हैं। मसलन मसालों को ही ले लीजिये। कितने उद्योगपति इस कारोबार में लगे हुए हैं। सभी के उत्पादन स्थलों को फैक्टरी ही बोला जाता है।

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