तेजस्वी से सुलह पर क्यों मजबूर हुए राहुल?
‘कितने गिले-शिकवे, किस्से-कहानियां आज दफन हैं हमारे दरम्यान,
पर साथ चलने की एक ज़िद ने मिटा दी है हम दोनों के बीच दूरियां’
जाने ऐसा क्या हुआ जो राहुल गांधी और तेजस्वी यादव के संबंधों में यकबयक इतनी तल्खी आ गई, वह भी ऐसे वक्त में जब बिहार चुनाव अपने पूरे उफान पर था। अपनी ‘वोटर अधिकार यात्रा’ के मार्फत पूरे बिहार में घूम-घूम कर महागठबंधन के पक्ष में समां बांधने वाले राहुल गांधी और उनके धनुर्धर तेजस्वी यादव के बीच फोन पर क्या कहासुनी हो गई थी कि अचानक सोनिया गांधी को मोर्चा संभालना पड़ा और उन्होंने अपने विशेष दूत के तौर पर अशोक गहलोत को आनन-फानन में बिहार भेजा। िवशेष सूत्र बताते हैं कि राहुल गांधी की तेजस्वी से नाराज़गी इस बात को लेकर थी कि अब भी कई सीटों पर तालमेल का पेंच फंसा पड़ा था, राहुल चाहते थे कि तेजस्वी इस पर तुरंत निर्णय लें। नहीं तो जनता में वैसे भी इस बात को लेकर महागठबंधन की खूब फजीहत हो रही थी। तेजस्वी का अपना दर्द था, वे कम से कम तीन बातों को लेकर राहुल से बेतरह नाराज थे। नंबर 1, कांग्रेस तेजस्वी को महागठबंधन का ‘सीएम फेस’ घोषित करने में काफी देर कर रही थी। दूसरा, राहुल पप्पू यादव को हर जगह अपने साथ टांगे-टांगे क्यों घूम रहे हैं। तीसरा, क्या यह राहुल की जानकारी में है कि राज्य में कांग्रेस की टिकटों की बोलियां लग रही हैं? और इस कार्य को वहीं लोग अंजाम दे रहे हैं जिन्हें राहुल का भरोसेमंद माना जाता है। दोनों नेताओं की बातचीत के दरम्यान कहते हैं कि तल्खी इतनी बढ़ गई थी कि तेजस्वी ने यह कहते हुए फोन रख दिया कि अगर सचमुच ऐसा है तो कांग्रेस महागठबंधन से अलग होकर चुनाव लड़ ले, राहुल को भी पता चल जाएगा कि बिहार में वाकई कांग्रेस कितनी जमीन पर है। राहुल को तेजस्वी से ऐसे व्यवहार की आशा नहीं थी। वे सीधे अपनी मां सोनिया गांधी के पास पहुंचे और उन्हें सारी वस्तुस्थिति से अवगत कराया।
जब सोनिया बनीं संकटमोचक
कहते हैं सोनिया ने राहुल को ढांढस बंधाते हुए कहा कि वह बिल्कुल भी परेशान न हों, कोई न कोई रास्ता तो जरूर निकलेगा। सूत्रों की मानें तो इसके बाद सोनिया ने सीधे लालू यादव को फोन लगा दिया और उनसे कहा कि हमारे राजनीतिक संबंध आज के नहीं हैं, ये 30-35 साल पुराने हैं। आज मौका है कि हम दोनों एक-दूसरे के काम आएं। हमारे बच्चों के बीच हुई एक छोटी सी तू-तू मैं-मैं से यह िरश्ता खत्म नहीं हो सकता है। लालू भी शायद ऐसे ही किसी मौके की तलाश में थे, उन्होंने भी सोनिया के समक्ष खुल कर अपनी भड़ास निकाली। लालू ने कहा कि जो पप्पू यादव हमारा इतना नुक्सान कर रहा है, आपके परिवार ने उन्हें कंधे पर बिठा रखा है। आपने और राहुल जी ने ऐसे लोगों के हाथों बिहार की जिम्मेवारी सौंपी हुई है जो यहां का एबीसी नहीं जानते। जिन लोगों को चिराग ने टिकट देने से मना कर दिया था वे लोग दो दिन पहले कांग्रेस में आकर पार्टी का टिकट पा रहे हैं। लोग तो यहां यह भी कह रहे हैं कि आपके ही लोग ऊंचे दामों पर कांग्रेस का टिकट बेच चुके हैं। कांग्रेस के बिहार प्रभारी कृष्णा अलावरू को लेकर भी लालू यादव को बड़ी नाराज़गी थी। इसके बाद सोनिया और लालू में इस बात को लेकर सहमति बनी कि सोनिया किसी सीनियर कांग्रेसी नेता को पटना भेजेंगी जो सीधे अहम निर्णय लेने को अधिकृत होगा।
तब अशाेक गहलोत की याद आई
सोनिया व राहुल ने तब काफी विचार-विमर्श के उपरांत यह निर्णय लिया कि मौजूदा हालात को हेंडल करने के लिए अशोक गहलोत ही सबसे उपयुक्त पात्र होंगे। इसके बाद ही आनन-फानन में राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को तलब किया गया। गहलोत ने पटना रवाना होने से पहले सोनिया के समक्ष बस इतनी सी शर्त रख दी कि जो भी उन्हें दिशा-निर्देश देने हों वे अभी ही दे दिए जाएं, वहां उनका पटना में लालू के सामने बैठ कर सोनिया या राहुल को फोन कर उनसे आगे का निर्देश लेना अच्छा नहीं लगेगा। सोनिया ने फौरन इस बात के लिए हामी भर दी और गहलोत पटना के लिए उड़ गए, जहां एक बंद कमरे में उनकी लालू के साथ एक लंबी बातचीत हुई। इस पूरी बातचीत में गहलोत के साथ कांग्रेस का कोई अन्य नेता शामिल नहीं था। कहते हैं लालू ने मूलतः इस बैठक में अपनी ओर से दो प्रमुख मांगें रखीं एक-तत्काल प्रभाव से तेजस्वी को महागठबंधन का ‘सीएम फेस’ घोषित किया जाए। दूसरा-कृष्णा अलावरू को बाहर का दरवाज़ा दिखाया जाए। लालू की बातों पर ही अमल करते हुए, अपनी प्रेस कांफ्रेस में गहलोत ने तेजस्वी को महागठबंधन का सीएम फेस और ‘वीआईपी’ के मुकेश सहनी को डिप्टी सीएम फेस घोषित कर दिया। सहनी का दांव राहुल ने अपनी ओर से चला था ताकि राज्य के 34 लाख से ज्यादा मल्लाह वोटरों में महागठबंधन के पक्ष में एक उम्मीद जगाई जा सके। कांग्रेस यह भी चाहती थी कि राजेश राम को डिप्टी सीएम फेस घोषित किया जाए, पर लालू की राय थी कि किसी मुस्लिम चेहरे पर यह दांव लगाना ज्यादा मुफीद रहेगा। सो, दूसरे डिप्टी सीएम के नाम पर पेंच फंसा ही रह गया। इधर दिल्ली में आनन-फानन में अलावरू को भारतीय युवा कंग्रेस के इंचार्ज के पद से हटाने की घोषणा कर दी जाती है, उनकी जगह मनीष शर्मा को यह जिम्मेदारी दे दी जाती है, यह पूरा उपक्रम बस लालू को खुश करने के लिए ही था।
घर का भेदी अरैरिया ढाहे
टिकट बंटवारे के बाद सिर्फ महागठबंधन में ही क्यों एनडीए में भी उतना ही घमासान मचा हुआ है। भगवा बागी जगह-जगह सिर उठा रहे हैं। कहते हैं उन्हें दल के लोगों से ही हवा मिल रही है। सो, बगावत की चिंगारी जगह-जगह सुलग रही है। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने अपने बिहार प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान को यह महती जिम्मेदारी सौंपी है कि वे इन बगाावती तेवरों पर पानी डालें, बागियों को समझाएं-बुझाएं, जरूरत हो तो आंखें भी दिखाएं। धर्मेंद्र प्रधान को सबसे ज्यादा मशक्कत अररिया के भाजपा सांसद प्रदीप सिंह के बेहद करीबी माने-जाने वाले अजय झा को समझाने में करनी पड़ रही है। अजय झा न सिर्फ सांसद महोदय के बेहद करीबियों में शुमार होते हैं, बल्कि वे पेशे से एक ठेकेदार हैं जो एरिया के बेहद संपन्न व्यक्तियों में गिने जाते हैं। समझा जाता है कि वे अपने धन-बल के साथ सांसद महोदय की सेवा में हमेशा तत्पर रहे हैं। उनकी हमेशा से एक राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी रही है, जिसे सांसद महोदय ने भी खाद-पानी देने का काम किया है। इस बार वे भाजपा टिकट के लिए फारबिसगंज या नरपतगंज विधानसभा सीट के दावेदार थे। फारबिसगंज की सीट फिलवक्त भाजपा के पास है, यहां के विधायक विद्यानंद केसरी उर्फ मंचन केसरी का टिकट कटना यहां से तय माना जा रहा था। सांसद महोदय ने भी शीर्ष को यही फीडबैक दिया था कि विधायक के खिलाफ यहां ‘एंटी इंकमबेंसी’ बहुत है, सो अजय झा भी किसी उपयुक्त मौके की तलाश में थे, पर मंचन केसरी अपनी संघ की पृष्ठभूमि का फायदा उठाकर यहां मंच सजा गए। सांसद इतने नाराज़ हुए कि अपने विधायक के नामांकन में भी वे नहीं पहुंचे। इधर उनके हनुमान झा ने बगावत का झंडा उठा लिया, कफन ओढ़ लिया और निर्दलीय नरपतगंज से पर्चा भी दाखिल कर दिया। भाजपा आलाकमान को भी अजय झा को समझाने-बुझाने में एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है। फारबिसगंज और उसके आस-पास के इलाकों में सांसद भक्त हनुमान के खूब संपतियों के बटोरने के किस्से हवा में हैं। उनके हौसलों की बानगी देखिए कि वे इस क्रम में संघ के एक नेता से भी टकरा गए, संघ के यह नेता भी फारबिसगंज से ताल्लुक रखते हैं। इस केस में झा के खिलाफ संघ नेता ने भी एफआईआर दर्ज करवा दी। मामला तूल पकड़ता देख सांसद महोदय ने भी दो कदम पीछे खींच लिए हैं।
...और अंत में
अंदरखाने भी एनडीए में तूफान बरपा हुआ है। खासकर नीतीश कुमार के विद्रोही तेवर भाजपा रणनीतिकारों को हैरानी में डाल रहे हैं।
नीतीश को लग रहा है कि भाजपा व चिराग अंदरखाने से जद (यू) उम्मीदवारों के साथ भीतरघात कर सकते हैं, सो नीतीश ने भी अपने कैडर से पूरे चुनाव के वक्त चौकस रहने को कहा है। इससे इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि जदयू कैडर के वोट बमुश्किल ही भाजपा या चिराग के उम्मीदवारों को ट्रांसफर होंगे। चिराग की पार्टी की सीमा सिंह का पर्चा खारिज होने का दोष भी इनकी पार्टी वाले नीतीश के सिर ही मढ़ रहे हैं। चिराग को भी शायद यही लगता है कि अगर स्थानीय डीएम चाहता तो वह सीमा सिंह को इस बारे में चेता सकता था। यह एक छोटी सी भूल थी जिसे सुधारा जा सकता था। तो क्या नीतीश ने चिराग के समक्ष अपनी खुली ललकार उछाल दी है?