क्या 11 मंत्रियों की होगी मोदी कैबिनेट से छुट्टी?
इस आने वाली 9 जून को मोदी सरकार अपने तीसरे कार्यकाल का 1 साल पूरा कर लेगी…
‘कीमती सामान सा रखते हैं वह मुझे गैरों की बुरी नज़रों से बचा कर
जरा धूप में क्या निकल गया रोशनी की शिकन लौटा हूं साथ लेकर’
इस आने वाली 9 जून को मोदी सरकार अपने तीसरे कार्यकाल का 1 साल पूरा कर लेगी तो इस मौके पर केंद्रीय मंत्रिमंडल में एक बड़े फेरबदल की सुगबुगाहट है। विश्वस्त सूत्रों का दावा है कि कम से कम 11 केंद्रीय मंत्रियों को बाहर का दरवाजा दिखाया जा सकता है और उनकी जगह कैबिनेट में दर्जन भर नए चेहरों को जगह मिल सकती है। जिन मंत्रियों को हटाए जाने की आहट है उनमें से कइयों के कामकाज के एक साल का रिपोर्ट कार्ड तैयार है जो उनकी परफॉरमेंस, निर्णय लेने की क्षमता, ब्यूरोक्रेसी के साथ सही तालमेल और पब्लिक व पार्टी कैडर के फीड बैक से जुड़ा है, अगर इन्हीं मानकों को मद्देनज़र रखते पीएम मोदी अपना फैसला सुनाएंगे तो वित्त, पैट्रोलियम, कानून एवं न्याय, विदेश जैसे कई अहम मंत्रियों पर भी गाज़ गिर सकती है। इस बात के भी संकेत मिल रहे हैं कि पीएम मोदी तेदेपा-जदयू की बैसाखियों पर से भी अपनी निर्भरता कम करना चाहते हैं, इस परिप्रेक्ष्य में उनकी पूर्व में शरद पवार, अजित पवार के संग भी मुलाकातें हो चुकी हैं। केंद्र की सत्ता के करीबी माने जाने वाले देश के एक शीर्शस्थ उद्योगपति शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे के संपर्क में हैं और लगातार इस बात की संभावनाएं टटोली जा रही हैं कि बीएमसी चुनाव से पहले शिवसेना के दोनों गुट यानी उद्धव व शिंदे क्या फिर से साथ आ सकते हैं? क्योंकि भाजपा के अपने ही अंदरूनी सर्वे में यह तथ्य उभर कर सामने आया है कि बिना उद्धव को साधे सत्तारूढ़ गठबंधन के लिए वृह्न मुंबई नगर पालिका का चुनाव जीतना आसान नहीं होगा। जुलाई केअंत तक कभी भी मोदी अपने कैबिनेट में एक व्यापक फेरबदल कर सकते हैं। संभावित मंत्रियों की सूची में एनसीपी (शरद) कोटे से सुप्रिया सुले को कैबिनेट, वहीं राज्य मंत्री के तौर पर जितेन्द्र अवाड और जयंत पाटिल के नामों की चर्चा है। अगर उद्धव मोदी-भाजपा के साथ आ गए तो उनके पुत्र आदित्य ठाकरे को भी केंद्रीय कैबिनेट में एक अहम जिम्मेदारी मिल सकती है। शशि थरूर को विदेश जैसे अहम मंत्रालय से नवाजा जा सकता है। आने वाले बिहार विधानसभा चुनाव के आलोक में रवि शंकर प्रसाद की भी फिर से लॉटरी लग सकती है।
प्री-पॉन क्यों हो गई महुआ की शादी : इस कॉलम के पाठकों को यकीनन इस बात का कहीं शिद्दत से इल्म होगा कि तृणमूल की फायर ब्रांड नेत्री महुआ मोइत्रा की शादी की खबर सबसे पहले ‘मिर्च मसाला’ में ही प्रकाशित हुई थी। जिसमें बताया गया था कि महुआ 20 जून को डेनमार्क में अपने एक पुराने वकील मित्र से शादी कर रही हैं, पर जब यह खबर इतनी वायरल हो गई तो पिनाकी व महुआ ने आनन-फानन में इस बेहद पर्सनल मैरिज सेरेमनी को प्री-पॉन करने का निश्चय किया, पहले जगह बेल्जियम चुना गया, फिर इसे जर्मनी शिफ्ट कर दिया गया, जहां 5 जून को महुआ व पिनाकी मिश्रा विवाह सूत्र में बंध गए। इस नवदंपित से जुड़े सूत्र खुलासा करते हैं कि आमतौर पर 15 जून के बाद सुप्रीम कोर्ट के जज व सीनियर वकील बड़ी संख्या में छुट्टियां मनाने के लिए यूरोप चले जाते हैं, सो ऐसे में इस दंपित को अपने मेहमानों की सूची काफी लंबी बनानी पड़ती। दोनों चाहते थे कि परिवार के कुछ गिने-चुने लोगों के बीच ही यह विवाह संपन्न हो। सो, बेहद गिनती के लोग ही इसमें शामिल हुए। जैसे महुआ की ओर से लंदन में रह रहे उनकी बहन-बहनोई, उनके कुछ खास मित्र, वहीं महुआ के सियासी दुश्मनों ने भी उन्हें थोकभाव में बधाई संदेश भेजे, गुलदस्ते और गिफ्ट भी भिजवाए।
क्या पंजाब में दोफाड़ हो सकती है आप? : दिल्ली में विभाजन का दंश झेल रही आम आदमी पार्टी को क्या पंजाब में भी एक बड़ा झटका लग सकता है? फिलवक्त आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने पंजाब में ही अपना डेरा-डंडा जमाया हुआ है, उनकी नज़रें भी बदस्तूर लुधियाना उपचुनाव पर टिकी हैं। जहां से उनकी पार्टी के उम्मीदवार और राज्यसभा मेंबर संजीव अरोड़ा मैदान में हैं। कयास इसी बात के लगाए जा रहे हैं कि केजरीवाल अरोड़ा को यहां से विधायक निर्वाचित करवा उन्हें मान सरकार में मंत्री बनवा देंगे और उनके द्वारा रिक्त की गई राज्यसभा सीट पर खुद चुनकर आ जाएंगे, पर सूत्रों की मानें तो भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व नहीं चाहता कि केजरीवाल ऊपरी सदन में आकर उनकी नाक में दम करें, सो माना जा रहा है कि भगवा पार्टी भी लुधियाना में भीतरखाने से यहां के कांग्रेस उम्मीदवार भारत भूषण आशु की मदद कर रही है, आशु कांग्रेस के पूर्व मंत्री रह चुके हैं जो मजबूती से इस बार का चुनाव लड़ रहे हैं। कांग्रेस शीर्ष ने आशु को यहां से जिताने का जिम्मा राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को सौंप रखा है, चन्नी ने भी एक तरह से लुधियाना में ही अपना डेरा-डंडा जमा रखा है। अब इस बात के चर्चे भी बहुत हैं कि अगर खुदा ना खास्ता आप यहां अपनी लुधियाना सीट गंवा देती है तो उसके बाद पार्टी में एक बड़ी टूट देखी जा सकती है, सूत्रों की मानें तो उन परिस्थितियों में आप के 60 से 70 विधायक टूट कर अपनी एक नई पार्टी बनाने का ऐलान कर सकते हैं। इस नए दल को सरकार बनाने के लिए वहां कांग्रेस भी अपना समर्थन दे सकती है। समझा जाता है कि भाजपा भी अंदरखाने से इस मुहिम को हवा दे रही है।
जुलाई के अंत तक भाजपा का नया अध्यक्ष? : तमाम कयासों के बीच सियासी नेपथ्य में एक नई हलचल की आहट है कि भाजपा का नया राष्ट्रीय अध्यक्ष जुलाई माह के अंत तक चुन लिया जाएगा। फिलहाल इस नाम को लेकर सस्पेंस अब भी बरकरार है या इसे यूं कहा जाए कि नए अध्यक्ष को लेकर अब तलक भाजपा व संघ नेतृत्व के दरम्यान आम सहमति नहीं बन पाई है। जिन नामों पर अब भी संघ और भाजपा के बीच चर्चा जारी है, ये संभावित नाम हैं-नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह, शिवराज सिंह चौहान, मनोहर लाल खट्टर, अरुण सिंह, भूपेंद्र यादव और धर्मेंद्र प्रधान। सूत्रों का दावा है कि राजनाथ सिंह ने पहले ही अध्यक्षीय दावेदारी से अपना नाम वापिस ले लिया है। उनकी नाम वापसी के बाद ही उनके साढू भाई अरुण सिंह का नाम रेस में शामिल हो गया। अरुण सिंह संघ और भाजपा दोनों के ही दुलारे हैं और ये चुप रह कर नेपथ्य से काम करने में भरोसा रखते हैं। वैसे भी राष्ट्रीय अध्यक्ष के नाम की घोषणा से पहले दिल्ली, हरियाणा, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के प्रदेश अध्यक्षों के नामों की घोषणा होनी है। अभी महाराष्ट्र में भाजपा के कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष रवीन्द्र चव्हाण हैं, कयास लगाए जा रहे हैं कि चव्हाण को ही महाराष्ट्र का प्रदेश अध्यक्ष घोषित किया जा सकता है। अब से पहले तक भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की रेस में मनोहर लाल खट्टर को सबसे आगे माना जा रहा था, खट्टर तमिलनाडु जैसे दक्षिण भारतीय राज्य में भी प्रचारक के तौर पर काम कर चुके हैं और वे पीएम मोदी के पुराने मित्रों में शुुुमार होते हैं। पर माना जा रहा है कि इस बार नए अध्यक्ष के चुनाव में संघ का ’वीटो’ ही सबसे अहम रहने वाला है।
यह कौन सा राग गा रहे हैं चिराग? : चिराग पासवान इन दिनों सियासी अनिश्चय की भंवर में डूब-उतर रहे हैं, इसकी सबसे बड़ी वज़ह यही है कि भाजपा की ओर से उन्हें साफ-साफ इशारा नहीं मिल पा रहा है कि वे करें तो आखिर क्या करें। सो, मजबूरन उन्हें नीतीश कुमार के घर जाना पड़ा उनसे मिलने, उनका आशीर्वाद लेने और उन्हें यह बताने के लिए कि इस दफे का बिहार विधानसभा का चुनाव वे क्यों लड़ना चाहते हैं? नीतीश उस वक्त अपने दो खास नौकरशाहों से घिरे बैठे थे, नीतीश ने चिराग से कहा-’तुम्हारे पिता ने कभी बिहार की लोकल राजनीति को तवज्जो नहीं दी, केंद्र की राजनीति करते रहे, फिर तुम काहे को यहां माथा मार रहे हो? इतनी कम उम्र में कैबिनेट मिनिस्टर बन गए हो, अपने पिता की विरासत संभालो।’ नीतीश और उनके दोनों नौकरशाह सहयोगियों की बातों ने चिराग को निराश ही किया। सो, इसके बाद वे लल्लन सिंह से मिलने जा पहुंचे और उनके समक्ष अपनी मन की बात रखते हुए कहा कि ’इस बार वे कम से कम 50 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ना चाहते हैं।’ तब लल्लन ने उन्हें बताया कि ’फिलवक्त तो जदयू व भाजपा दोनों मिल कर उनकी पार्टी के लिए मात्र 20 सीटें छोड़ने का इरादा रखती है, 10 जदयू के कोटे से और 10 भाजपा अपने कोटे से।’ इस बात से निराश चिराग तब पीके के संपर्क में आए और उन्होंने लगभग अपना मन बना लिया है कि ’वे 2020 के बिहार चुनाव की तर्ज पर ही प्रशांत किशोर के साथ मिल कर ज्यादा से ज्यादा सीटों पर यहां अपने उम्मीदवार उतारेंगे जिससे कि एक बार फिर जदयू की राहें मुश्किल हो जाएं।’
पीके के निशाने पर नीतीश : प्रशांत किशोर की ’उद्घोष यात्रा’ जारी है, पर बिहार चुनाव में उन्होंने एक तरह से अपनी रणनीतियों का भी उद्घोष कर दिया है। पीके से जुड़े सूत्रों की मानें तो पीके उन सीटों को टारगेट नहीं करना चाहते जहां भाजपा मजबूती से लड़ रही है, बल्कि पीके उन सीटों पर फोकस कर रहे हैं जहां जदयू ने अच्छी तरह से अपने पांव जमा रखे हैं। जिन सीटों पर जदयू का मुस्लिम उम्मीदवार मजबूत स्थिति में दिख रहा होगा, जवाब में पीके भी यहां अपना मजबूत मुस्लिम उम्मीदवार उतारेंगे। एक ओर जहां बिहार के ज्यादातर राजनीतिक दल दलित, मुस्लिम व पिछड़े वोटरों के इर्द-गिर्द कदमताल कर रहे हैं, पीके की जन सुराज पार्टी का फोकस राज्य के अगड़े वोटरों पर है। नीतीश ने भी राज्य के अगड़े वोटरों को साधने की राजनीति तेज कर दी है, उन्होंने सवर्ण आयोग का मुखिया जहां महाचंद्र प्रसाद सिंह को बनाया है, वहीं दलित व महादलित वोटरों को साधने के लिए चिराग पासवान के बहनोई और जीतन राम मांझी के दामाद को बिहार राज्य अनुसूचित आयोग में अहम जिम्मेदारियां दी हैं।
…और अंत में : नीतीश का स्वास्थ्य जब-जब ठीक रहता है उन्हें अपने कोर वोट बैंक की चिंता बेतरह सताने लगती है। जब उन्हें इस बात का पूरा यकीन हो गया कि मोदी सरकार को उनके वक्फ बिल पर समर्थन देने से उनके मुस्लिम वोट बैंक में दरार पड़ गई है तो वे फौरन ‘डैमेज कंट्रोल’ अभियान में जुट गए। नीतीश को रिपोर्ट मिली कि उनके वक्फ बोर्ड पर समर्थन देने मात्र से उनका पसमांदा मुसलमानों का वोट बैंक खिसक गया है तो उन्होंने फौरन अपनी पार्टी के एक पुराने नेता गुलाम रसूल बलियावी को तत्काल प्रभाव से बिहार राज्य अल्पसंख्यक बोर्ड का मुखिया बना दिया ताकि वे जदयू से रूठ गए मुसलमानों को मनाकर फिर से उनके पाले में ला सके। जबकि बलियावी ने हमेशा से खुल कर वक्फ बिल की मुखालफत की है।